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जीने की राह एक सौ तेरह

शनिवार की शाम थी। उत्सव अपने उत्कर्ष पर था।

परम सुंदरी गुलनार के हुस्न को स्वामी जी की निगाहों ने घूंट-घूंट कर पिया था। मन था कि गुलनार के प्रेम सागर में डूब-डूब कर नहाया था। इतने अंतराल के बाद भी स्वामी जी को लगा था कि वो कुछ भी नहीं भूले थे। गुलनार से लिपट-लिपट कर उन्होंने वही आनंद भोग किया था जिसके वो आज तक कायल थे। मन माना ही नहीं था और गुलनार की आंखों में कई बार झांक आया था – बेशर्म!

अंजली और अविकार आज आत्म विभोर होकर गा रहे थे।

“तेरे नयना .. तेरे नयना! रस के पगे तेरे बैना!”

और स्वामी जी रह-रह कर गुलनार के वही संवाद सुन रहे थे जिन्होंने कभी उन्हें अपार आनंद दिया था।

“बस गए – अंजली ओर अविकार!” आह रिता कर स्वामी जी ने मन में कहा था। “और .. उजड़ गए – पीतू और गुलनार! लेकिन क्यों?” मुड़ कर स्वामी जी ने स्वयं से ही प्रश्न पूछा था।

“हमारी जीने की राहें बदल गई थीं – शायद!” उत्तर आया था। “गुलनार को दमड़ी प्यारी लगी थी – पीतू नहीं! और पीतू पव्वा के साथ हो लिया था – गुलनार के साथ नहीं। और फिर गुलनार के वो चार बेटे ..”

पलट क स्वामी जी ने फिर एक बार गुलनार को देखा था।

“अब न बिछुड़ेंगे स्वामी!” गुलनार बोली थी।

“मिलेंगे तब न?” स्वामी जी का उत्तर था। “अब कभी संभव न हो पाएगा – गुलनार!” वह सपाट स्वर में कह गए थे। “अब हम अंजान – अजनबी हैं। इसी में हमारा शुभ है!”

“हम मिल बैठें तो?”

“जमाना थूकेगा – हम पर!” कह कर स्वामी जी न निगाहें फेर ली थीं।

रात्रि भोज था। गजब की गहमागहमी थी। गुलनार को सजी वजी सुहागिनों ने घेरा हुआ था। एक पवित्र परंपरा पर चर्चा चल रही थी। पति पुरुष से प्रेम स्नेह पाने के लिए व्रत और वंदना जरूरी थे – यह तय होने लग रहा था। न माने – पर था तो पुरुष श्रेष्ठ! उसके बिना तो अंधकार ही अंधकार था। पत्नी की गरिमा पति से सीधी जुड़ी थी – इसे सबने स्वीकार किया था।

सेठानी सरोज बेहद प्रसन्न थी। वो चाहती थीं कि समाज में प्रेम की श्रेष्ठ परंपराएं डाली जाएं! बिना प्रेम और सौहार्द के जीवन नीरस था, नितांत झूठा और बेकार था।

कुटिया में लौट कर स्वामी पीतांबर दास ने ध्यान लगाया था। अपने बिगड़े मन को मनाया था, समझाया था और शांत किया था। गुलनार से फिर कभी न मिलने का व्रत उठाया था स्वामी जी ने। वो मानते थे कि तनिक सी भी भनक लगने पर उनका तप भंग हो जाएगा।

ईश्वर का स्मरण कर उन्होंने बेखटके नींद ली थी और बड़े ही स्वस्थ इरादों के साथ आंखें खोली थीं।

“गजब हो गया स्वामी जी!” शंकर हांफ रहा था। “आश्रम में .. आश्रम में तो .. कोहराम मचा है!” वह कहता ही जा रहा था।

“क्या हुआ शंकर?” स्वामी जी भी सन्न रह गए थे।

“पता नहीं हुआ क्या है! पर .. पर गुलाबी गालियां बक रही है।” शंकर ने सूचना दी थी। “आप मत जाना!” शंकर ने राय दी थी। “वंशी बाबू हैं वहां!”

गुलाबी का नाम सुनते ही स्वामी जी ने अपने मन के चोर को पकड़ लिया था! अवश्य ही गुलाबी ने खोज लिया होगा कि ..

स्वामी जी को सारा संसार उड़ता बिखरता दिखाई दे रहा था।

कोई जीने की राह थी कहां?

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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