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जीने की राह छियालीस

आश्रम में नई रसोई बनी थी। ये सब वंशी बाबू के उपक्रम थे। कहते थे – पैसा है तो खर्च कर देते हैं, लोगों की भलाई के लिए लगा देते हैं। वरना तो कोई गड़प कर जाएगा ..

पैसा है ही एक बुरी बला!

“चलकर देख तो लो स्वामी जी!” वंशी बाबू का आग्रह था। “खूब धन खर्च हो गया है!” वह बता रहे थे। “लेकिन काम मेरी मर्जी का हो गया है।” वो प्रसन्न थे।

और मैं भी नए रसोई घर को देख कर प्रफुल्लित हो उठा था। तभी मेरी निगाह उठी थी और एक ओर बर्तन सफाई करते लोगों पर जा टिकी थी।

“गुलनार!” सहसा मेरे होंठों से गुलनार का नाम निकल गया था। फिर मैंने दृष्टि को स्थिर करके देखा था। हां हां! गुलनार ही थी। बड़े ही मनोयोग से बर्तन सफाई में जुटी थी। गुलनार के गुलाबी चेहरे पर लटें लटक रही थीं और उसने साड़ी के पल्लू को कमर से बांधा हुआ था।

मैं क्षत-विक्षत हो गया था। मेरा कलेजा मुंह को आ गया था।

“तुम्हारी महारानी गुलनार – बर्तन सफाई कर रही है पीतू!” किसी ने मेरे कान में कहा था। “डूब मरो चुल्लू भर पानी में ..!”

और मैं – स्वामी पीतांबर दास भूल ही गया था कि मैं इस आश्रम का महंत था।

गुलनार मेरे साथ साथ मेरी कुटिया में चली आई थी।

हमारा साम्राज्य हमारे साथ चला आया था। मैं देख रहा था कि सजी-वजी गुलनार कचौड़ियां बेच रही थी। मैं भी भट्टी पर जमा था। मैं कचौड़ियां सेक सेक कर सप्लाई कर रहा था और गुलनार ..

बहुत आकर्षक लगती थी गुलनार! रूप सज्जा के साथ साथ जो मोहक मुसकान गुलनार के चेहरे पर खिलती रहती थी वो ग्राहकों के लिए अलग से एक निमंत्रण होता था। और फिर गुलनार कचौड़ी सेंटर तो सुविख्यात हो गया था और गुलनार के चारों बेटे भी अब चार दिशाओं के मालिक थे।

लेकिन बबलू का रिश्ता टूटने के बाद बात बिगड़ी थी।

“ये क्या फालतू का आदमी रक्खा है, मां!” बबलू झुंझला कर मेरे बारे ही कहता। “कोई भी हलवाई आ जाएगा। भगाओ इसे!” उसका आदेश होता था।

गुलनार चुप ही रहती। गुलनार कुछ न बोलती। और जब बबलू दूसरा हलवाई ले आया था तब भी गुलनार चुप ही रही थी।

अब आ कर मेरी शामत आई थी। बनवारी ने मुझे पव्वा देना बंद कर दिया था। कारण – अब नया हलवाई लेता था घूस और जब मुझे पव्वा नहीं मिलता था तो मैं मरने मरने को हो जाता था। गुलनार ने मेरी पीड़ा जान ली थी और बबलू की निगाहें बचा कर मुझे पैसे पकड़ा दिए थे। लेकिन .. लेकिन मेरे पव्वे की प्यास तो इतनी विकृत हो चुकी थी कि

मैं अब मैदा घोलता था। अत: मैदा चुरा कर बनवारी को दे देता और पव्वा ले लेता! फिर अपने एकांत में अपने भगवान पव्वा को सलाम करता और पीकर मस्त सो जाता – कहीं भी! किसी भी हाल में!

अब मैं मालिक तो छोड़ो गुलनार का नौकर भी न था।

गुलनार को न जाने क्यों कभी मेरी सुध ही न आती थी। हमारा अबोला ही चलता रहता – बातें करना तो दूर!

गुलनार के पास पैसा था। गुलनार के पास चार बेटे थे। गुलनार के पास काम था, नाम था! और मैं – पीतू माने कि पव्वा निरा ही दिशाहीन था।

कहां जाता – कोई रास्ता सूझता ही नहीं था। सब राहें और रास्ते भूला मैं पीतू माने कि पव्वा अब लुक छिप कर रहने लगा था।

मेजर कृपाल वर्मा

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