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जीने की राह बानवे

अवस्थी इंटरनेशनल की दुर्दशा देख अविकार कांप उठा था।

एक भूली बिसरी याद सी संस्था अचानक ही अविकार के दिमाग में उठ बैठी थी। कभी चमकती दमकती अवस्थी इंटरनेशनल आज मटमैली और मैली कुचैली लगी थी अविकार को। कहीं शेड टूट रहा था तो कहीं दीवार खिसक गई थी। सड़कें टूटी फूटी थीं तो कहीं पर नालियां रुकी पड़ी थीं और कीचड़ भरा पड़ा था। न जाने कब से रंग रोगन न हुआ था। मशीनें भी भदरंग थीं, पुरानी थीं और किसी कबाड़ी की अमानत लग रही थीं।

संस्था में कर्मचारी थे। लेकिन लग रहा था कि वहां एक बियाबान का निर्माण हो चुका था। सभी को पता था कि अवस्थी इंटरनेशनल का सौदा वकील रोशन कर बैठे थे। कभी भी – किसी दिन भी सूचना आनी थी और ..

पुराने कर्मचारी पग्गी गाड़े बैठे थे! उन्हें अपना हक चाहिए था। नए कर्मचारी यूं ही के लिहाज से डोल फिर रहे थे और काम को छू-छू कर देख रहे थे। लेकिन काम कोई हो न रहा था।

अविकार और अंजली को आया देख हर कोई संदिग्ध निगाहों से कुछ सोचने समझने का प्रयत्न कर रहा था।

जहां तक अजय अवस्थी और अमरीश की दोस्ती का सवाल था – वो सच अब सबके सामने था। अजय के बेटे अविकार का संस्था में आना सभी को शुभ लगा था। अमरीश की बेटी अंजली का विवाह अविकार के साथ हुआ था – ये तो पहले से तयशुदा बात थी। हर किसी को अजय अवस्थी और अमरीश के प्रगाढ़ रिश्ते जबानी याद थे।

लेकिन अब प्रश्न कुछ और ही थे। क्या संस्था चलेगी? क्या संस्था बिकेगी? और क्या संस्था ..

“चलना तो मुश्किल है!” कंपनी के बड़े बाबू सुरजीत ने तो ऐलान कर दिया था। “कंपनी का तो मार्केट ही मिट गया!” उनका कहना था। “नया ट्रेंड आ गया है बाजार में! पुराने देवताओं को तो विदा लेनी ही पड़ेगी।” वो हंस-हंस कर बयान करते थे। “हां! अगर अजय बाबू होते तो संभव था कि ..”

विक्षिप्त भाव से अविकार और अंजली ऑफिस में बैठे थे।

चाय आई थी। बड़े बाबू ने दोनों का सत्कार किया था। कुछ कर्मचारी भी झांक-झांक कर उन दोनों को देख गए थे। कहीं कुछ उम्मीदें भी जागी थीं। लगता तो बाप का ही बेटा है – लोगों का रिमार्क था। चाहेगा तो करपारेगा!

चाय की चुस्कियां लेते-लेते अविकार ने कई बार चोर निगाहों से अंजली को देखा था। अंजली असंपृक्त थी। जबकि अविकार का दिमाग चल रहा था। संस्था की हुई दुर्गति पर उसे क्षोभ था लेकिन अब तो सब बहुत पीछे छूट गया था।

“बड़े बाबू! कितना बकाया चल रहा होगा?” अविकार ने कुछ सोच कर प्रश्न पूछा था।

अंजली चौंकी थी। बड़े बाबू के चेहरे का रंग बदला था। इस प्रश्न की तो जैसे किसी को उम्मीद ही न थी।

“लौटना तो मुश्किल ही लगता है कुंवर साहब!” बड़े बाबू संभल कर बोले थे। “बैंकों का ही बहुत बाकी है। और कर्मचारी भी आस लगाए बैठे हैं कि ..”

“बिकेगा तो मिलेगा?” अंजली बीच में बोल पड़ी थी।

सब चुप थे। एकबारगी कोई भी न बोल पा रहा था। संस्था के बिकने की अप्रिय सूचना एक अशुभ की तरह ऑफिस में डोलती रही थी।

“पापा की संस्था है! मैं बेचूंगा नहीं बड़े बाबू!” अविकार का स्वर संयत था। वह गंभीर था। उसकी आवाज में एक दर्द था – एक दंभ था।

बड़े बाबू बड़े गौर से अविकार के भावावेश को आंकते रहे थे और नापते रहे थे। उन्हें लगा था – जैसे आज अनंत काल से छूटकर अजय बाबू घर लौट आए हों! उनके चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गई थी।

“ठीक कहते हो! आप के पापा भी नहीं चाहते कि संस्था बिके!” अंजली ने समर्थन किया था।

आज अवस्थी इंटरनेशनल का फिर से मार्ग प्रशस्त हुआ था।

कर्मचारियों ने भी एक नई जीने की राह देख ली थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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