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जीने की राह बहत्तर

अमरीश के संकट गहराते चले जा रहे थे। लगता था कि गाइनो ग्रीन उससे अवस्थी इंटरनेशनल ले कर रहेगी।

विचित्र संयोग था। गाइनो ग्रीन कौन थी, कहां से आई थी और अविकार कैसे उसके चंगुल में फसा कोई नहीं जानता! लेकिन मीडिया गाइनो के पक्ष में था। यहां तक कि फर्म के लोगों में भी नई मालकिन गाइनो ग्रीन को लेकर चर्चाएं चल पड़ी थीं।

“बड़ी स्मार्ट महिला है। फर्म को कहीं से कहीं पहुंचा देगी।” लोग बातें करने लगे थे। “ये अमरीश तो कंजूस है। अजय बाबू तो अजय बाबू थे! बहुत खुले दिल के इंसान थे! और ये गाइनो ..!”

घर लौटने का मन ही न होता था – अमरीश का!

हारा थका मन अब भविष्य वक्ताओं के पास जा बैठता था। कोई कुछ दशा बताता था तो कोई और ही राग अलापता था। घर लौटते थे तो अंजली से मुकाबला होते ही वो जंग हार जाते थे। बेटी की शादी अविकार के साथ होना तय था। लेकिन अब तो अविकार का ही अता पता नहीं था। और एक अंजली थी कि अविकार के ही इंतजार में मीराबाई बनी बैठी थी!

तानपूरे पर आलाप करती अंजली करुणा की देवी लगती थी। साक्षात मीराबाई बन गई थी – अंजली!

“मनीषा की मर्जी के मुताबिक ही हमने अंजली को संगीत की शिक्षा दिलाई थी।” सरोज कहती रहती थी। “और अब ..?” आंसू भर आते थे सरोज की आंखों में।

अमरीश का ऑफिस में मन ही न लगता था। काम काज की तो सुध बुध ही भूल बैठा था। अवस्थी इंटरनेशनल राम भरोसे ही चल रहा था।

“साब! बुरा न मानें तो मैं कुछ कहूँ?” धर्मा था – फर्म का सुपरवाइजर जो यूं ही ऑफिस में चला आया था।

“मैं जानता हूँ धर्मा तुम क्या कहोगे!” दीन हीन आवाज में बोले थे अमरीश। “क्या करूं? मैं कर भी क्या सकता हूँ धर्मा ..”

“आप अमरपुर आश्रम चले जाइए साब!” धर्मा बताने लगा था। “वहां स्वामी जी हैं – स्वामी पीतांबर दास! कहते हैं – स्वयं प्रकट हुए हैं! उनका आशीर्वाद ले लें आप! बड़े बड़े लोगों को फल मिला है ..”

“कुछ नहीं हैं ये यार धर्मा! ढोंग है! लूटने खाने का जरिया है।”

“नहीं साब! कुछ लेते नहीं हैं स्वामी जी। एक फूल माला ले जाना – बस! इसमें हर्ज भी क्या है?”

अमरीश का मन और भी खट्टा चूक हो गया था।

“चले जाओ आश्रम!” सरोज ने राय दी थी। “मैं माला बना दूंगी। गुलाब खिले हैं। चले जाओ .. चुपचाप!”

कभी वक्त था जब अमरीश साधू संतों को हिकारत की निगाहों से देखते थे। चमत्कारों में उनका विश्वास न था। कर्म प्रधान जिंदगी जीने वालों में उनका नाम एक नम्बर पर था। घोर परिश्रम के बाद ही वो यहां पहुंचे थे। लेकिन आज अवश थे!

अमरीश एक चोर की तरह चुपचाप सरोज की बनाई गुलाबों की माला को कांख में दबाए अमरपुर आश्रम जा रहे थे।

मन बहुत उदास था। रह रह कर आज अजय अवस्थी की याद आ रही थी। कितना गहरा दोस्ताना था उनका। कितना प्यार सौहार्द था। दोनों परिवार एक जान एक प्राण थे। लेकिन वक्त ऐसा पलटा कि सब कुछ तबाहो बर्बाद हो गया!

अंजली और अविकार की शादी के सपने देखते देखते आज दोनों परिवार कहां पहुंच गए थे।

शंकाकुल मन मर मर कर आश्रम की ओर चला जा रहा था।

जब जिंदगी ठहर जाती है, राह भूल जाती है और संकट गहरा जाते हैं तभी आदमी को परमेश्वर की याद आती है। सच्चा न्याय तो परमेश्वर ही करते हैं शायद! आदमी की बनाई न्याय प्रक्रिया तो मिथ्या है। आश्चर्य हो रहा था अमरीश को कि किस तरह उन्हें बेगुनाह होते हुए भी गुनहगार सिद्ध कर दिया गया था।

“अब देखता हूँ कि ईश्वर भी कितने न्याय प्रिय हैं!” अमरीश ने लंबी उच्छवास छोड़ कर कहा था।

आज एक नए रास्ते पर चल पड़े थे अमरीश – जिस पर वो कभी जाना चाहते ही न थे।

जीने की राहें भी बदलती रहती हैं!

मेजर कृपाल वर्मा

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