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जीने की राह अस्सी

चंद्रप्रभा के माथे पर लगा बिंदिया सा चांद आसमान पर उगा खड़ा था।

रात के शांत और नीरव पलों में कुमार गंधर्व और अंजली पास पास बैठे भिन्न भिन्न दिशाओं में सोच रहे थे। जहां कुमार गंधर्व ने अपनी मंजिल अंजली को पा लिया था वहीं अंजली अब तक अविकार को हासिल करने में कामयाब नहीं हुई थी। कुमार गंधर्व कौन था – उसे अभी तक उत्तर न मिला था।

दो परिवार बरबादी की कगार पर आ खड़े हुए थे। दो में से एक तो डूब गया था। यों अजय अंकल और मानुषी मौसी का अंत आ जाएगा – किसने सोचा था। और अविकार अब दूसरे परिवार को भी डुबोने पर तुला था – एक आश्चर्य ही था।

अंजली के सामने बचपन आ कर खेलने लगा था। वो अविकार से लड़ रही थी। वो जिद पर अड़ी थी कि अविकार ..

“तू इसकी बात माना कर अवि!” मानुषी मौसी ने बीच बचाव किया था। “ये मेरी बहू बनेगी!” वो हंस रही थीं।

“आदमी की हर मुराद पूरी कहां होती है!” अंजली ने आह रिता कर स्वयं से कहा था। “मर गई मानुषी मौसी और उनकी मुराद ..”

“मुरादें कभी नहीं मरती अंजली!” एक आदेश जैसा सुना था अंजली ने। “मानुषी की मुराद अवश्य पूरी होगी!”

अंजली का मन प्राण खिल उठा था। उसे फिर लगा था कि कुमार गंधर्व अविकार ही था!

“आप बहुत अच्छा कीर्तन करते हैं।” अंजली ने चुप्पी तोड़ी थी। “राधे राधे श्याम मिला दे – मुझे बहुत अच्छा लगा ..”

“लेकिन आपने तो आज करुण रस को अमर कर दिया, अंजू!” कहते कहते रुक गया था कुमार गंधर्व। “ओह आई एम सॉरी! अंजली ..” उसने अपनी भूल सुधारी थी।

अंजली को अविकार याद हो आया था। वह भी तो उसे अंजू कह कर ही पुकारता था। और वही उसे छोड़ कर इंग्लैंड चला गया था। अजय अंकल किन्हीं मायनों में पूरे के पूरे अंग्रेज थे। उन्होंने तो अपना सब कुछ कूड़ा लगता था। तभी तो उन्होंने अविकार को सेंट निकोलस लंदन भेजा था ताकि वो ..

“क्या आप संन्यासी हैं? इस उम्र में संन्यास ..?” अंजली ने प्रश्न किया था।

“लेना पड़ा है!” टीस आया था कुमार गंधर्व। “कभी कभी आदमी अवश हो जाता है। मुसीबत की घड़ियों में पहचान भूल जाना – अंजू! ओ सॉरी – अंजली ..”

“आप अंजू कह सकते हैं!” मुसकुरा कर अंजली बोली थी।

“थैंक्स!” कुमार गंधर्व ने आभार व्यक्त किया था।

“मुसीबत की घड़ियों से आपका आशय?”

“बुरा फंस गया हूँ मैं अंजू!” कुमार गंधर्व बता रहा था। “गाइनो – माई गर्ल फ्रेंड ने मुझे फंसा लिया है। पागलखाने पहुँचा दिया। तब गंगू – एक और पागल ने मुझे चेताया कि मैं ..”

“फिर ..?”

“फिर मैं भाग आया और यहां आश्रम में आ कर ..”

“छुपे हो?”

“हां! मैं यहां छुपा हूँ!” माना था कुमार गंधर्व ने। “आई एक ए ग्रैजुएट फ्रॉम सेंट निकोलस लंदन, यू नो!” कुमार गंधर्व चुप हो गया था।

अचानक ही अकेले में और चुपचाप वनस्थली जयपुर और सेंट निकोलस लंदन ने एक दूसरे से हाथ मिलाया था और एकाकार हो गए थे।

“आती तो रहोगी हर हर शनिवार ..?” कुमार गंधर्व ने पूछा था।

“आप के लिए – आप के अनुरोध पर अवश्य आया करूंगी!” अंजली ने वायदा किया था।

अब अंजली ने भी अपना गंतव्य पा लिया था। पापा को देने के लिए उसके पास आज एक अमर संदेश था!

अमरीश दमपत्ती के लिए आज एक नई जीने की राह खुल गई थी।

मेजर कृपाल वर्मा

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