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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग अड़तीस

Hemchandra Vikramaditya

“मैंने सुना है कि आप हाथी को सूंड़ से पकड़ कर बिठा देते हैं?” हेमू का प्रश्न था।

एक अफवाह की तरह यह बात हेमू के पास उड़ कर चली आई थी। गढ़ी कौशल में लोग मुरीद अफगान का नाम एक इज्जत के साथ लेते थे। बड़ा सन्मान था उनका। और तभी किसी ने जिक्र किया था उनके इस पौरुष का!

हेमू का प्रश्न सुनकर मुरीद अफगान कई पलों तक मुसकुराते रहे थे। उनका विगत उनकी आंखों में तैर आया था। एक प्रसन्नता उनके मुख मंडल पर आ बैठी थी।

“सच तो है!” मुरीद अफगान धीमे से बोले थे। “सच है, हेमू!” उन्होंने बात की पुष्टि की थी। “हुआ यूं था कि ..” वो विगत की वीथियों में घूमने लगे थे। “हमारे बादशाह सिकंदर लोधी अपने हाथी आफताब पर चढ़कर बिहार विजय पर निकले थे। ये नए थे पर मैं पुराना था। न जाने कैसे मैंने एक नजर में देखा था कि आफताब इनसे खफा था। और फिर हमला करने से पहले ही उसका मिजाज बिगड़ गया था!

हम घोड़ों पर, हाथियों पर और पैदल – सब साथ साथ मिलकर हमला करने जा रहे थे। मैंने जब आफताब को चिंघाड़ते सुना तो मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे। महावत ने पूरी कोशिश की लेकिन आफताब ने महावत को सूंड़ में लपेट कर मार डाला। अब क्या था – वह तो आजाद था। मैं समझ गया था कि अब सिकंदर लोधी की खैर नहीं थी!

पता नहीं, हेमू! न जाने कैसे मैं घोड़े से छलांग लगा कर आफताब से जा भिड़ा था। सच मानो कि उन दिनों मेरे बदन में अकूत बल था! आफताब ने मुझे छलांग लगाते ही देख लिया था। अब वह मेरी ओर दौड़ा था। उसने मुझे पैर के नीचे डाल कर कुचलने की ठान ली थी। लेकिन मैंने उसके पैर पर पैर जमाकर कुलांच भरी थी और उछल कर उसकी सूंड़ – जो उसने हवा में तान रक्खी थी, पकड़ ली थी। उसने भी मुझे सूंड़ से उठा फेंकने की खूब कोशिश की थी पर मैं लिपटा ही रहा था!

और फिर आफताब ने मुझे जमीन पर ला पटकने की कोशिश की थी तो मैंने जमीन पर पैर जमा कर दोनों हाथों से उसकी सूंड़ को इस तरह मरोड़ा था कि उसकी चीख निकल गई थी। अब मैंने एक और अंटा चढ़ाया था तो वह अगले पैरों पर आ गया था और फिर बेबस हो बैठ गया था!

अब मैं और आफताब एक दूसरे को आंखों में देख रहे थे!

“फिर?” हेमू ने उत्सुकता से पूछा था।

“आफताब ने मेरी गुलामी मान ली थी और मैंने भी अगला अंटा नहीं चढ़ाया था!” मुरीद अफगान ने हंस कर मेरे कंधे पर हाथ रक्खा था। “और मुझे हाथियों को बिठाने की कला आ गई थी।” उन्होंने आहिस्ता से कहा था। “सीधी बात है – जिसे आदमी खुद सीखता है वही कला है बेटे!”

“लेकिन मैंने तो आपसे बहुत कुछ सीखना है!” हेमू का आग्रह था।

“मुझे भी इंतजार था कि मैं अपने सारे हुनर किसी को देकर घर लौटूं!” मुरीद अफगान खुशी से कह रहे थे। “अब तुम आ गये हो!” उन्होंने फिर से हेमू के कंधे को थपथपाया था। “सब तुम्हें ही देकर घर लौटूंगा!” उन्होंने वायदा किया था।

और मुरीद अफगान ने हेमू को साथ लेकर स्वेच्छा से पूरा का पूरा युद्ध कौशल विस्तार से बताया और समझाया था।

“चलो! घोड़े से छलांग मार कर हाथी पर बैठना बताता हूँ!” मुरीद अफगान कह रहे थे। “चला! दौड़ाओ घोड़े को .. और तेज जाने दो!” वह अपने घोड़े पर सवार हो साथ दौड़ रहे थे। “हॉं हॉं! अब मारो छलांग .. ये गया और हाथी पर!” हंस रहे थे मुरीद अफगान। “आया मजा?” वो हेमू को पूछ रहे थे।

“अब हाथी से घोड़े पर कूद कर सवार हो जाते हैं!” उनका अगला प्रोग्राम था। “है न आसान?” उन्होंने अंत में पूछा था।

“चलो! आज हाथी पर दौड़ कर चढ़ना सीखते हैं। बड़ा सीधा काम है। ये लो – हम हाथी के ऊपर! और अब इसकी पूंछ पकड़ कर उतर जाते हैं! ये देखो! सब कितना आसान है!”

“ये हाथी ..?” हेमू ने पूछ लिया था।

“एक गढ़ है! एक किला है! एक चलता फिरता तूफान है! एक मित्र है! एक खिदमतगार है! इतना चतुर है कि तुम्हारी बात बाहर आते ही काम कर डालेगा! डरता नहीं है .. घबराता नहीं है .. और हारता भी नहीं है!” मुरीद अफगान सब कुछ विस्तार से बताते जा रहे थे।

“और कोई खास बात?” हेमू का प्रश्न आया था।

“हॉं! न दोस्ती को भूलता है – न दुश्मनी को!” मुरीद अफगान ने स्पष्ट बता दिया था।

वो दोनों खूब हंसे थे, हंसते ही रहे थे!

“मेरे हाथ खाली हैं, हेमू!” मुरीद अफगान प्रसन्नता पूर्वक कह रहे थे। “अपना सब कुछ तुम्हें दे चुका!” उनका कहना था।

“विदाई समारोह तो रह ही गया जनाब!” बगल से महावत बोला था। “वो शेर का शिकार .. आप ने कई बार वायदा किया है?” महावत महादेव का आग्रह था।

“खतरनाक जानवर है ये शेर मेरे भाई!” घबराते हुए बोले थे मुरीद अफगान। “कई लोग खतरा खा चुके हैं!” उनका कहना था।

“चलते हैं!” हेमू बोल पड़ा था। “आप ही तो कहते हैं कि ..?”

और फिर आफताब पर सवार हो वो लोग शेर के शिकार पर निकल पड़े थे!

यमुना पार करते आफताब को हेमू ने परखा था। बड़ी ही चतुराई से सावधानी से और सोच समझ के साथ उसने यमुना पार की थी। फिर गहरे जंगलों में घुस कर आफताब की चाल चलगत ही बदल गई थी। उसे ज्ञान था कि वो शेर की तलाश में था और वो जानता था कि शेर कितना चालाक, चतुर और अभिमानी जानवर था!

क्या मजाल कि पत्ता भी खड़क जाये – इस अंदाज से आफताब जंगल के पेट में घुसा शेर की तलाश में आगे बढ़ रहा था। चुप्पी थी। कोई न बोल रहा था। कोई न हिल रहा था और कोई भी आंख की पुतली तक न हिला रहा था। क्या पता कब शेर सामने हो? हेमू अधीर होने लगा था।

“शेर!” सामने था शेर। हेमू ने उसे एक अलौकिक भव्यता से सामने बैठा देख लिया था। शेर ने भी हाथी और उन सब को एक साथ देखा था और त्योरियां बदली थीं। चुप्पी थी लेकिन वार्तालाप तो चल रहा था। मूक संवाद बोले जा रहे थे – राजा है मुरीद अफगान ने स्वयं से कहा था। महाराजा मान सिंह बैठे हैं – वह मुसकुराए थे। आ गये सामने – शेर ने भी जैसे हेमू से पूछा था। हो जाएं दो दो हाथ – हेमू ने भी निमंत्रण दे दिया था!

बिना विलंब किये हेमू ने सीधा शेर के सीने में तीर छेद दिया था!

शेर गर्जा था। शेर उछला था। शेर की आंखें मशाल सी जल उठी थीं। शेर का मुंह फटा हुआ था। उसके पंजे खुले हुए थे। उसकी छलांग सीधी हेमू पर थी। तभी महादेव ने भाले से शेर की छाती पर वार किया था। भाला शेर की बगल से निकल गया था। अब शेर हेमू की छाती पर था। हेमू को दूसरा तीर चलाने का मौका नहीं मिला था। अतः उसने तीर कमान फेंक कर शेर के खुले मुंह में हाथ डाल कर दोनों जबड़े पकड़े थे और जोरों से मरोड़ डाले थे। शेर की विवश गुर्राहट सबने सुनी थी। फिर हेमू ने उसे आफताब के नीचे फेंक चलाया था।

आफताब ने भी मौका नहीं छोड़ा था और शेर को तुरंत ही पैर के नीचे डाल कर दबोच दिया था!

“मान गये बेटे!” लंबी उच्छवास छोड़कर मुरीद अफगान ने हेमू की पीठ ठोकी थी। “एक अजेय योद्धा हो!” उनका आशीर्वाद था।

हेमू की बहादुरी की चर्चा गढ़ी कौशल से चलकर दिल्ली तक पहुँच गई थी!

“मेरा जाना तो तय है!” मुरीद अफगान बता रहे थे। “लेकिन जलालुद्दीन के जाने से पहले सैनिक मांग लो जो धौलपुर तक तुम्हारे साथ चलें! हमले के वक्त भी जरूरत होगी तुम्हें !” उनका सुझाव था।

फक से हेमू को कादिर का नाम याद हो आया था। उसकी मांग दिल्ली पहुंच गई थी।

“आप का जाना टल नहीं सकता?” हेमू ने सीधे स्वभाव में प्रश्न किया था।

“नहीं!” मुरीद अफगान का उत्तर था। “कुछ सिकंदर के सताए और भी अफगान परिवार हैं जो हमारे साथ लौट रहे हैं! उन्हीं के साथ जाना है और सब तय है!” उन्होंने बताया था!

हेमू सोच में पड़ गया था। सिकंदर लोधी के अपने लोग उसे छोड़ कर स्वदेश लौट रहे थे। क्यों जा रहे थे वो लोग? क्यों सताया था उन्हें सिकंदर लोधी ने?

“चालाक है सिकंदर!” मुरीद अफगान स्वयं ही बताने लगे थे। “हम लोगों ने इसके लिए जानें दीं। लेकिन इसने हमें कुछ नहीं दिया!” तनिक उदास हो आये थे मुरीद अफगान। “कुछ लोगों से तो जो कमाया था वो भी छीन लिया!”

“आप ..?” हेमू ने डरते डरते पूछा था।

“हाहाहा!” हंसते रहे थे मुरीद अफगान। “इसके बाप को मैंने दुल्हन ला कर दी थी।” वो मुसकुरा रहे थे। “अम्बा ला कर मैंने बहलोल को अमर कर दिया!” वह आसमान पर कुछ देख रहे थे। “इस सिकंदर की जान बचाई – पागल हाथी को रोक कर!” उन्होंने हेमू को गौर से देखा था। “मेरे इन दो अहसानों की सजा – मैं जीवन भर सिपहसालार ही बना रहा!” फिर हंसे थे मुरीद अफगान। “अब खाली हाथ जा रहा हूँ हेमू!” वो दूर देखने लगे थे। “कहीं .. तीसरी कोई गलती हो गई तो .. जान भी जा सकती है।” उनका उलाहना था।

“फिर कभी न लौटेंगे?” जिज्ञासु सा अबोध प्रश्न थ हेमू का।

“क्यों नहीं!” गर्मजोशी से बोले थे मुरीद अफगान। “तुम बादशाह बनो और अगर तुम बुलाओगे तो अवश्य लौटूंगा हेमू!”

जाने से पहले वो लिपट लिपट कर मिले थे हेमू से!

मेजर कृपाल वर्मा

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