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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग बीस

Hemchandra Vikramaditya

शयन कक्ष का दरवाजा बोल पड़ा था! धाड़, धाड़, धाड़! कोई था – जो दरवाजे को जोरों से पीटे जा रहा था।

मैं हड़बड़ा कर पलंग से उठा था। मैंने लपक कर दरवाजा खोला था। मैं अब पार्वती के सामने खड़ा था। वह मुझे अपलक घूर रही थी। उसकी प्रश्नवाचक निगाहों के उत्तर मेरे पास नहीं थे। फिर वह कमरे में एक तूफान की तरह भर आई थी। केसर पलंग से उठ कर नीचे खड़ी थी – सजी-बजी – ज्यों की त्यों!

पार्वती ने अब मुझे और केसर को एक साथ एक निगाह से देखा था, परखा था और अनुमान लगाया था। उसकी त्योरियां तनिक चढ़ आई थीं!

“क्या हुआ ..?” पार्वती का प्रश्न हम दोनों के लिए था।

प्रश्न का पीछा करते हुए हम दोनों ने अब एक-दूसरे को देखा था। जैसे हम फिर से एक-दूसरे को पहचान लेना चाहते थे – जान लेना चाहते थे और पार्वती को बता देना चाहते थे कि आखिर हुआ क्या था! लेकिन बताते तो क्या बताते? हुआ तो कुछ था ही नहीं! पत्ता तक न हिला था। दो परछाइयां थीं – जो बैठी-बैठी बतियाती रही थीं – सारी रात!

“क्या हुआ ..?” पार्वती ने न कुछ समझते हुए हमें फिर से पूछा था।

अब क्या बताते हम? कैसे बताते हम कि – हम दोनों समूची रात लगा कर क्या करते रहे थे? आश्चर्य की ही बात थी कि हम दोनों अपने पूर्ण परिधानों में सजे-बजे पार्वती के सामने साबुत खड़े थे – अनछुए से, कोरे कागज से – असंपृक्त दो पति-पत्नी थे हम जो शायद गुनहगार थे वक्त के? हमने शायद एक धारणा का उल्लंघन किया था और समाज के आम चलन का पालन नहीं किया था। पार्वती ने अब मुझे घेरना चाहा था लेकिन मैं था कि सारे प्रश्न वहीं छोड़ बाहर भाग आया था।

“केसर जाने!” मैंने अपने आप से कहा था और हंसता मुस्कराता बाहर की रौनक में आ खो गया था।

मैंने बाहर आने से पहले केसर को नजरें भर कर देख लिया था। अब मैं आश्वस्त था। मैंने हवा से बातें की थीं और सूचना दी थी कि मेरी केसर बेजोड़ सुंदरी है। फिर सूरज ने मुझे पूछा था तो मैंने कहा था – तुम्हारा जैसा तेज है उसका! और उसके बाद चहचहाते-चहकते पंछियों के प्रश्न थे। मैं कहता रहा था – तुमसे अच्छा कंठ है केसर का। उसकी मुक्त हंसी का मुकाबला नहीं है! जब हंसती है तो मोती बिखर जाते हैं। उसका वो शांत और वाचाल नयनाभिराम एक साथ कई-कई बातें कह जाता है और जब वह बोलती है तो ..

“केसर जिंदा बाद!” मैं जैसे नारे लगाना चाहता था।

“ओ -बे ..? कैसे ..!” मुझे अचानक कादिर ने आकर पकड़ लिया था। “क्या हुआ ..?” उसने भी मुझे ज्यों का त्यों सजा-बजा देख प्रश्न पूछा था। जैसे मैं केसर से जंग करके लौटा हूँ – उसका शक था। उसका शक था कि ..

मैं क्या बताता कादिर को? क्यों बताता उसे कुछ? मैं और केसर अब एक अलग इकाई थे – एक जान थे, एक प्राण थे और पति-पत्नी थे!

“हिन्दुओं की ये बातें मेरी तो समझ में ही नहीं आती यार!” कादिर कोसने लगा था। “न जाने क्यों .. औरतों को देवियां मानते हैं और दुर्गा और न जाने क्या-क्या कहते हैं? अबे! औरत का मतलब है ..” उसने मुझे फिर से देखा था। “पहली रात ..?” उसका प्रश्न था जिसका उत्तर उसे पाना था। लेकिन मैं शांत था – समुंदर की तरह! “अबे! मैंने पहली रात नीलोफर को फाड़-फाड़ कर खाया था! चीखें मारती रही थी वो और मैं लगा ही रहा था! कसम खुदा की हेमू अगर सवेरा ना हो गया होता तो .. उस रात मैं ..”

मैं कहीं गुम था। कादिर का कहा जैसे मैंने सुना ही ना था!

पहली रात और उस पहली रात में हुई हमारी उपलब्धियां, प्राप्तियां और वो प्रगाढ़ परिचय एक नहीं अनेकानेक जन्म-जन्मान्तराों तक जीने के लिए पर्याप्त था!

दिन में .. पूरे दिन को लगाकर मैंने कई बार कोशिश की थी कि किसी तरह केसर का दीदार हो जाए। एक निगाह भर कर उसे फिर से देख लूँ! पर क्या मजाल कि कोई मुझे वहां तक जाने दे! केसर – जैसे कोई तीर्थ थी और हर कोई जैसे उसके दर्शन करने को लालायित था। शोर था केसर की सुंदरता का और शोर था हमारी शादी का!

“अशरफ बेगम ने बुलाया है।” मुझे सूचना मिली थी।

अचानक ही अशरफ बेगम का पुर नूर चेहरा मेरी ऑंखों के आगे आ कर ठहर गया था। एक बंद किताब का नाम था – अशरफ बेगम! और जो मुझे अलग से लाढ़ मिलता था उनसे वह तो था ही बेजोड़! मेरा मन उन से मिलने को फड़क उठा था। मेरा पुराना डर मौत पा गया था और अब मैं आजाद था। बेफिक्र था और उल्लसित भी। कारण – केसर ही थी!

“बुलाया था आपने!” कहते हुए मैंने अशरफ बेगम के पैर छूए थे।

“हॉं! याद किया था!” उन्होंने मुझे पास बैठने को कहा था। “मन था .. बहुत मन था कि दिल्ली जाने से पहले तुम से मन की दो बातें कर लूँ!” वह तनिक मुस्कराई थीं। उन्होंने अपनी स्नेहपूर्ण निगाहों से मुझे निहारा था। “न जाने क्यों .. मैं तुमसे बड़ा स्नेह करती हूँ हेमू!” वह कहने लगी थीं। “यहॉं .. तुम्हारी शादी में शरीक होना अच्छा लगा मुझे! मुझे लगा – मैं अपने पीहर में लौटी हूँ – एक अंतराल के बाद .. एक युग के बाद!” उनका कंठ रुंधने लगा था। था कोई गम जो ऊपर उठकर आ गया था!

“क्यों .. क्यों ..? ये आंसू क्यों लौटे बूआ?” मैंने आज पहली बार उन्हें बूआ कहा था। “ये घर आपका है .. और ..”

“मैं जानती हूँ रे!” उनकी रुलाई रुकी न थी। “लेकिन .. लेकिन हेमू! जब से ये शेख शामी मुझे मेरे मायके से उठा लाए थे तब से मैंने अपने घर का मुंह नहीं देखा है!” वह जारो कतार हो-हो कर रोने लगी थीं। “मैं हिन्दू थी और अब मुसलमान हूँ। मेरा क्या दोश बेटे?” उनका उलाहना था। “कोई माई का लाल आगे नहीं आया जो शेख शामी का रास्ता रोक कर खड़ा हो जाता! डरे हुए लोग .. नपुंसक .. ये हिन्दू ..!”

“धीरज धरो, बूआ!” मैंने उन्हें सांत्वना दी थी। “वक्त आने पर सब ठीक हो जाएगा!” मैंने संकेत दिया था उन्हें।

ऑंखें उठा कर अशरफ बेगम ने मुझे देखा था और आशीर्वाद दिया था!

“बहुत खूबसूरत है केसर!” वह बताने लगी थीं। “मैंने अपनी उम्र में इतनी सुंदर औरत नहीं देखी हेमू!” उनका कहना था। “देख! तू मुसलमानों के बीच रह रहा है!” उनका एक इशारा था – उस खतरे की ओर जो मेरे दिमाग में हर पल खटकता रहता था। “होश हवास संभाल कर चलना बेटे! उनकी चेतावनी थी।

“मैं सचेत हूँ, बूआ!” मैंने उन्हें संक्षेप में सही सूचना दे दी थी।

“देख! बहू ने मुझे क्या-क्या दिया है!” अशरफ बेगम मुझे मिला दान-दहेज दिखाती रही थीं। “आज मेरी रूह जिंदा हो गई है रे!” वो गदगद कंठ से बोली थीं। “आज मुझे लगा है .. अपने मायके से विदा हो रही हूँ ..। मैं .. मैं वो सम्मान पा रही हूँ जो हमारी बहन-बेटियां पाती है!” उनकी ऑंखें फिर आंसुओं से भर आईं थी। “केसर – मेरी बहू है रे देख – तू ..”

“नहीं बूआ! मैं आप दोनों के बीच नहीं आऊँगा!” मैंने वायदा किया था और चला आया था। लेकिन अशरफ बेगम की आवाजें मेरा पीछा करती रही थीं – हिन्दू .. कायर हिन्दू .. नपुंसक हिंदू जिन्होंने मुझे बचाया नहीं .. और ..

वक्त बलवान होता है – मैंने उस दिन मान लिया था!

सिकंदर लोधी का फरमान चल रहा था – सियासत फल-फूल रही थी और हिन्दुओं का संक्रमण काल चल रहा था। हम अपने ही देश में अपनी ही जमीन पर जीने तक के लिए स्वतंत्र न थे! सिक्का सिकंदर लोधी का ही चल रहा था!

“दुलहन को देख कर मैं तो दंग रह गई कुंवर जी!” नीलोफर मेरे सामने आ कर खड़ी थी। “भाई हम तो कहेंगे कि आप किस्मत वाले हैं जो इतनी खूबसूरत बीबी पा गये हैं! अरे, कोई महारानी भी क्या होगी जो हमारी केसर नहीं है?” उसका कहना था। “खूब निभेगी मेरी तो इनके साथ दिल्ली में!” वो प्रसन्न थी। “मुझे तो माला-माल कर दिया है दुलहन ने।” वह बताने लगी थी। “देखो तो कुंवर जी क्या-क्या दिया है ..?”

“आप का हक बनता है, बेगम साहिबा!” मैंने यूँ ही कहा था। “उस कादिर के बच्चे को मैं कुछ नहीं मिलने दूँगा!” मैंने मजाक किया था।

“अरे, नहीं उसे भी खूब मिला है! ये देखो, ये मैं दिल्ली ले जा रही हूँ!” नीलोफर बता रही थी।

“क्यों ..? कादिर नहीं जा रहा है!” मैंने पूछा था।

“नहीं! वो आपके साथ लौटेगा!” नीलोफर ने मुझे बताया था।

मैं अचानक ही एक सनका खा गया था!

मेजर कृपाल वर्मा

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