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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग उनतालीस

Hemchandra Vikramaditya

सिकंदर लोधी अब चार आंखों से देख रहा था!

“दक्खिन तक अब जाना मुनासिब होगा!” उसने अपने विचार को अब बड़ा किया था। “अब हम उलेमा को बता देंगे कि हम खलीफा के कितने बड़े मददगार हैं। अब हमारा परचम पूरे हिंदुस्तान पर फहराएगा!” हंसी बिखर गई थी सिकंदर लोधी के चेहरे पर।

“राजपूतों का खतरा टल गया है!” सिकंदर लोधी ने आराम की सांस ली थी। “आपस में लड़ रहे हैं। राणा सांगा को तो होश ही नहीं है कि उसके आस पास हो क्या रहा है?” हंसी का एक चक्रवात उठा था और दरबार महल पर छा गया था।

“लाहौर में भाई बैठे हैं!” सिकंदर लोधी प्रसन्न था। “मजाल है कि मक्खी भी बचकर हिंदुस्तान में घुस जाए!” उनकी आंखों में चमक थी। “भाई के होते तो उसे फिकर ही नहीं थी और अब वह आराम से हिंदुस्तान को फतह कर सकता था!” उसका पूर्ण और संपूर्ण इरादा था।

अचानक ही सिकंदर लोधी के दिमाग में पूरा का पूरा कालचक्र घूम गया था। महाराजा मान सिंह से हुए युद्ध, जद्दोजहद, दोस्ती दुश्मनी और चाल-चालबाजियां उन्हें सब याद हो आई थीं!

“दोस्ती को लेकर बैठे मान सिंह पर भी जब हमला हुआ था तो वह बुरी तरह से हिल गये थे!” सिकंदर लोधी सोच रहे थे – पंद्रह सौ पांच में बड़ी ही चालाकी से बिल्ली की तरह पैर दबाकर उसने आगरा से कूच किया था और एक ही झटके में गंदरबाल को कब्जा लिया था। जब तक मान सिंह संभला था – धौलपुर को भी उससे झटक लिया था। खुश हुआ था सिकंदर लोधी अपनी जीत पर!

अब सिकंदर लोधी की आंखों के सामने पूरा का पूरा युद्ध स्थल मुआयने के लिए पसर गया था!

कत्लेआम आम हुआ था मंदरायल में और सारी फसलें जला डाली थीं। जितना भी संभव हुआ था – खूब जम कर खून-खराबा हुआ था ताकि ग्वालियर टूट जाये और उनके साथ आ जाये! जुल्म ढाने की इंतहा थी! क्या क्या नहीं किया था अफगानों ने – कितना धन-माल लूटा था .. तुर्कों और मंगोलों ने तो हद ही उड़ा दी थी! बढ़-चढ कर जुल्म ढाये थे उसके सैनिकों ने – यह सोच कर सिकंदर लोधी बहुत प्रसन्न हुआ था!

भोर गढ़ हाथ आने के बाद तो ग्वालियर पर फतह होना वाजिब बन गया था। मान सिंह भाग रहा था – यह सिकंदर लोधी को समझ आ गया था। लेकिन मंदरायल में हुए उस अचानक हमले में मान सिंह ने उन्हें भारी क्षति पहुँचाई थी। सैनिक मरे थे, हाथी घोड़े भी मरे थे और मरा था उनका साहस .. उत्साह और उम्मीदें!

“नाउम्मीद तो मैं भी हो गया था – उस हमले के बाद!” सिकंदर लोधी सोचता है। “महाराजा मान सिंह ने बिलकुल शेर जैसा हमला किया था .. ऐसा हल्ला बोला था कि उसकी सेनाएं भाग खड़ी हुई थीं।

“रुक जाओ कायरों!” सिकंदर लोधी आज भी दुहाई देते मुरीद अफगान की आवाजें सुनने लगता है! उसने पीछे भागते घोड़ों के सामने अपना हाथी अड़ा दिया था। “क्या जवाब दोगे – उलेमा को – ये जिहाद छोड़कर भागने का ..?” वह भागते अफगानों को पूछ रहा था। फिर उसने भागते हुए सैनिकों के सामने घोड़े अड़ा दिये थे। “हिंदुस्तान फतह करने आये हैं – हम!” वह नंगी तलवार घुमा घुमा कर कह रहा था। “जान दे देंगे .. मैदान न छोड़ेंगे!” एक नया फतवा दिया था उसने।

एक भयानक स्थिति से उबार लिया था मुरीद अफगान ने!

“मुझ पर भी तो युद्ध जीतने की जिद सवार थी उन दिनों!” पलट कर सिकंदर लोधी सोचता है। “इतने बड़े नुकसान को भी भुगत कर मैं बना रहा था ग्वालियर के आस-पास!” फिर से एक दृश्य उठ खड़ा होता है – सिकंदर के दिमाग में।

“उदित नगर!” भागते सैनिकों को रोक कर उसने इशारा किया था। “मुझे उदित नगर किला चाहिये!” उसकी मांग थी।

इस मांग के कई फायदे हुए थे। मान सिंह को अंदाज ही न था कि हम उदित नगर की ओर मुड़ जाएंगे! और अब उदित नगर को बचाने के लिए वह भी भागेगा – मेरा अनुमान था। लेकिन वैसा हुआ कहां था?”

महाराजा मान सिंह अब कहां था – अनुमान तक लगाना कठिन हो गया था! और वह कब और कहां हम पर टूट पड़ेगा – यह तक कहना किसी के बस की बात न थी। वह तो आसमान से बिजली की तरह टूटता था और पल-छिन में सब ध्वस्त कर भाग जाता था!

गीदड़ की खाल से शेर निकल कर सामने आ गया था।

“घेरा बंदी!” मैंने फरमान जारी किया था। मैं जानता था कि महाराजा मान सिंह आसानी से काबू आने वाला नहीं था। लेकिन मैं यह चाहता था कि अबकी बार उसके साथ दो दो हाथ हो जाएं! मैं ग्वालियर की खिट-खिट को मिटा ही देना चाहता था। मुझे तो ग्वालियर हर कीमत पर चाहिये था। “नागराज को ले लो! नहर पर चढ़ाई करो! जटवार तक सारे किले अपने कब्जे में कर लो!”

घेराबंदी हुई थी। मुकम्मल काम हुआ था। पूरे तीन साल लगा कर सिकंदर लोधी ने ग्वालियर का हर रास्ता बंद कर दिया था!

“अब आयेगा .. गिड़गिड़ाएगा – शेर और प्राणों की भीख मांगेगा!” मैं प्रसन्न था। “और वो .. उसकी वो नई महारानी मृगनयनी? क्या साथ लाएगा उसे?” मैं मंद मंद मुसकुराया था।

तभी सिकंदर लोधी को अगला घटा दृश्य याद हो आया था!

“रहम की भीख बादशाह सलामत!” सामने गिड़गिड़ाता माहिल खड़ा था। उसकी आंखों में आंसू थे। उसका गला भर आया था। वह थर-थर कांप रहा था। “खाल तक खींच कर देख ली है – किसानों की सेठ साहूकार भी भूखे मर रहे हैं! अब हम सेना के लिए रसद राशन कहां से लाएं मालिक?”

“हुआ क्या ..?” मैंने कड़क स्वर में पूछा था।

“फसलें जला दीं .. माल असबाब लूट लिया .. काम काज ठप है। भुखमरी फैली है जनता में। हुजूर! सैनिकों ने लगातार चार साल से जनता पर जुल्म ढाये हैं .. और ..”

माहिल झूठ नहीं बोल रहा था!

“पहली बार आज घोर निराशा ने आ घेरा था मुझे!” सिकंदर लोधी सोच रहा था। “रसद राशन के लिए अब दिल्ली और आगरा ही उत्तर था लेकिन ये सब तो ..?” दिमाग बौखला गया था। “और अगर मान सिंह को भनक भी लगी तो ..?”

“क्या फिर से हमारी हार होगी?” मैंने अपने पूरे अभिमान के साथ प्रश्न दागा था। “अवश्य!” किसी ने उत्तर दिया था। मैंने आंख उठा कर देखा था – तो मुरीद अफगान सामने खड़ा था। “महामारी फिर लौट आई!” उसने कातर स्वर में कहा था। “लाशों पर लाश पड़ी हैं! पूरा का पूरा लश्कर लाशों में तबदील होता चला जा रहा है ..”

“भागों ..!” मैंने जैसे नारा दिया था। फिर मैंने ही मुड़ कर स्वयं से सवाल पूछा था। “क्या मान सिंह इस बार भी हमारी मदद करेगा?” “नहीं!” उत्तर स्वयं लौटा था। “विश्वासघात का अपराध कर बैठे हो – मित्र के साथ!” एक उलाहना भी साथ चला आया था। मैदान छोड़कर भागने के सिवा और कोई चारा शेष न रहा था!

“तुम मान सिंह को यहीं अटका कर रखना!” मैंने चाल खेली थी। मुरीद अफगान बहुत ही बहादुर सिपहसालार था। यह मुहिम मैंने उसी को सौंपी थी। “हम जब तक आगरा न पहुंच जाएं तुम तब तक इसे यहां से हिलने न देना!”

रात को जटवार पर पड़ाव था। अगले दिन हमें आगरा पहुंच जाना था। ‘जान बची तो लाखों पाये’ का नारा मैं दे चुका था। सुबह सब ठीक ठाक था और मैं हाथी पर बैठा कहीं दूर दिगंत में उड़ती धूल को देख रहा था। ‘तूफान आ रहा था’ मैंने सोचा ही था कि हम पर हमला हो गया था!

“मैंने पहली बार देखा था उसे!” मैं पहली बार तनिक मुसकराया था। “हॉं हॉं! वही थी – मृगनयनी – महाराजा मान सिंह की माशूका! घोड़े पर सवार वायु वेग से दौड़ती आ रही थी। बरछा था हाथ में और देखते देखते उसने मुझपर बरछे से वार किया था! सन्नाता बरछा – मेरे शरीर में गढ़ने वाला ही था कि मैं हौदे में लम्बा लेट गया था। बच ही गया था!”

बेहोशी में .. बे ध्यानी में हमें कत्ल किया जा रहा था .. मारा जा रहा था काटा जा रहा था! मृगनयनी के गूजरों ने, भीलों ने और आदिवासियों ने विचित्र ढंग से नर संहार किया था। बढ़चढ़ कर हमारी जानें लीं थीं। जटवार लाशों से भर गया था। लहूलुहान हुई धरती भी कांप उठी थी!

जैसे कैसे भाग कर हम सबने अपनी जानें बचाई थी।

“बहुत बड़ा नरसंहार हुआ था। धन जन की अपार क्षति हुई थी। खजाना लुट गया था। समझ ही न आया था कि इस ग्वालियर में ऐसा क्या था कि महामारी हर बार हमारे दांत खट्टे कर देती थी और हर बार ही हम ..?”

“लेकिन इस बार नहीं!” सिकंदर लोधी ने स्वयं से कहा था। “इस बार तो न मान सिंह है न मृगनयनी! मैदान खाली है। सारे राजपूत चुप रहेंगे और विक्रमादित्य के बस की बात नहीं है लड़ाई!” हंसा था सिकंदर लोधी। “पूरे नुकसान की भरपाई हो जाएगी इस बार! ग्वालियर का खजाना हाथ लगने के बाद तो ..?”

“हिंदुस्तान हमारा है!” सिकंदर लोधी ने एक नारा जैसा दिया था।

“हेमू पहुंच गये हैं – हुक्म लेने, बादशाह सलामत!” उन्हें बताया गया था।

सिकंदर लोधी का चेहरा गुलाबों सा खिल उठा था!

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