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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग उन्नीस

Hemchandra Vikramaditya

मैं डरा हुआ था। सच्चाई का सामना करने से पहले मेरी घिग्गी बंधी हुई थी।

लेकिन पार्वती – मेरी बहिन ने मुझे झांसा देकर केसर के शयन कक्ष में जोरों से धकेला था और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया था!

किस्मत का खेल था। मुझे केसर का होना ही था। मुझे केसर से अब आमने सामने होना ही था। पहले की तरह – ऊंट पर चढ़ कर आये ढोला की तरह नहीं अब तो मुझे उसका पुरुष प्रियतम बनकर उसके जीवन में प्रवेश पाना था! मुझे उसे पाना था और उसे मुझे पाना था! अब हमारे बीच ना कोई फासला रहा था और ना कोई व्याधा व्यवधान था। मैं केसर के शयन कक्ष में अकेला खड़ा था और स्वतंत्र था केसर से ..

लेकिन कैसे? मेरी तो सांस उखड़ने लगी थी। मुझे वही डर सताने लगा था कि अगर केसर का घूंघट उठा .. और .. केसर ..?

सारा गुड़ गोबर हो जाना था आज।

लेकिन पति- पत्नी तो हम थे और वह तो गुरु जी के ही कर कमलों से संपन्न हो चुका था। जीवन भर के लिए अब मुझे केसर को अपनी धर्म पत्नी मानकर चलना था। ये केसर अब मेरा अभीष्ट थी और थी मेरा दीन ईमान लेकिन ..

मैं शयन कक्ष के चक्कर काटने लगा था। मैं अपने जोधपुरी जूतों की ही चर्र-मर्र सुन रहा था। शयन कक्ष निःशब्द बना हुआ था। केसर पलंग के बीचीे-बीच सजी-बजी बैठी थी। मैंने चोर निगाहों से उसे कई बार देखा था। उसने जड़ाऊ जेवर पहने थे। उसका परिधान परियों जैसा था। वह एक अडिग भव्यता के साथ पलंग पर मेरी पत्नी बनी बैठी थी। अब मैं क्या करता ..?

“घूंघट उठाओ ना कुंवर जी?” न जाने कैसे मैं केसर की ढाणी से आती अपनी सालियों की अनगिनत आवाजें सुनने लगा था। उनकी खन-खन करती हंसी ने मुझे उत्साहित किया था। मुझे अचानक ही सरोवर के बीचो-बीच से उठते मारू के संवाद सुनाई देने लगे थे, “मैं तेरी जीवनी .. तू मेरा सिंगार रे!”

हिम्मत बटोर कर अब मैं केसर के सामने आ खड़ा हुआ था!

केसर हिली थी। उसकी चूड़ियां खनक कर रह गईं थीं। शयन कक्ष में फिर से निशब्दता भर आई थी। फिर अनायास ही मेरे हाथ केसर के लम्बे घूंघट से जा लड़े थे। आहिस्ता-आहिस्ता मैंने उस घूंघट को उठाया था। डरते-डरते मैं अपने प्रणय संसार में प्रवेश पाने चल पड़ा था। केसर शांत थी। लेकिन .. शायद कहीं वह भी इस घड़ी के घट जाने के लिए आतुर थी, इच्छुक थी और इंतजार में थी।

केसर का मुख मंडल उजागर होते ही मेरी आंखों में एक अजेय रूप लावण्य की प्रभा प्रवेश पा गई थी!

“नहीं-नहीं!” मैं कांप उठा था। “धोखा! फरेब!” मैं पुकार कर कहना चाहता था। “ये .. ये तो कोई सम्राट कन्या है! कोई और है केसर नहीं!” अब मैं अपलक उस सामने ठहर गये चेहरे को देख रहा था। केसर पलकें बंद किये थी। उसके होंठों पर एक प्रेमाकुल हंसी बिखरी हुई थी!

और फिर केसर ने अपनी सीपी सी सुघड़ आंखें खोल दी थीं!

हे भगवान! कैसी विचित्र, मोहक और मदभरी आंखें थीं केसर की! मैं न हिला था .. न मैं डुला था – जड़वत उसके सामने खड़ा ही रहा था! अब केसर उठी थी। आहिस्ता से – एक महारानी की भव्यता के साथ वह उठकर खड़ी हुई थी। मैंने दो कदम पीछे धरे थे। अब हम आमने सामने थे। केसर झुकी थी। शायद वह मेरे पैर छूना चाहती थी। लेकिन मैंने उसे बीच में ही रोक कर बाँहों में भर लिया था।

“तुम्हारा स्थान – मेरे हृदय में है, प्रिये!” मैंने कहा था और केसर को अपनी बलिष्ठ बांहों में समेट लिया था!

न जाने कब तक .. और क्यों हम दोनों आलिंगन बद्ध खड़े रहे थे – एक-दूजे को पाते-पतियाते हम दोनों मन प्राण से आज पति-पत्नी बन गये थे!

“मेरे संसार में, मेरी सल्तनत में और मेरे सौभाग्य में तुम्हारा स्वागत है प्रिये!” मैंने बड़े ही धीमे से हौले से और फुसफुसाते हुए कहा था – ताकि केसर ही सुने मेरा संवाद, दीवारें नहीं!

“मैं .. म-मैं आपकी हुई मेरे मन प्राण!” केसर बोली थी। उसकी आवाज भी बहुत धीमी थी। पर सच में ही मैंने इस आवाज को पहचान लिया था। ये आवाज मेरे पास न जाने कब से बैठी थी। न जाने कब से मुझे इंतजार था – इसे सुनने का!

“आओ!” मैंने केसर से पलंग पर बैठने का अनुरोध किया था। “बैठो!” मैंने बड़े ही लाढ़ के साथ केसर को आदेश दिया था।

केसर हिली थी तो एक साथ उसके पहने जेवर बोल उठे थे, चमक उठे थे और दमक उठे थे! अनायास ही अब मैं केसर के उस सजे-बजे सौंदर्य को देख रहा था जिसको न जाने कब से मैं निहारना चाहता था। फिर एक बार मैंने पाया था कि केसर मेरे बराबर ही नपती थी और उसका स्वस्थ और पुष्ट शरीर किसी वीरांगना का सा लगता था।

पलंग के सिरहाने की ओर मेरे बैठने का स्थान छोड़कर केसर बैठी थी। मैं अभी भी खड़ा-खड़ा उसे अपलक देख रहा था, प्रसन्न हो रहा था, पागल होने को था और .. और हां उसे छूने की तैयारियां कर रहा था – एक बार फिर!

“तुम .. के-स-र! मेरा मतलब कि .. तुम बड़ी कब हुईं?” मैं यह प्रश्न पूछना चाहता था – पर शब्द मेरे गले में अटके थे।

केसर को मेरी दशा पर दया हो आई थी। उसने मेरे मनोभाव ताड़ लिये थे। एक हंसी केसर के मुख मंडल पर तैर आई थी। न जाने कैसी और कितनी भव्य थी वो छटा जिसे देख कर मैं अभिभूत हो गया था। मुझे डर लग रहा था कि कहीं मैं केसर को छू कर मैली न कर दूं। मैं तो उसे ताउम्र इसी तरह देखने को तैयार था!

“बैठिये!” केसर ने अपनी ओर से आग्रह किया था। ये मेरे लिये – एक पुरुष प्रियतम के लिये एक प्रेयसी का आह्वान था, आमंत्रण था, निमंत्रण था और मुझे यह स्वीकार भी था पर मैं था कि बैठने से पहले ही अपना प्रश्न हल कर लेना चाहता था!

“तब .. जब .. हम मिले थे .. केसर?” मैंने हिम्मत बटोरकर कहना आरम्भ किया था। “तब तो तुम ..” मैंने फिर से चोरी से केसर के केश विन्यास को परखा था। तब के वो रूखे-सूखे बिखरे बाल और उसका अस्त-व्यस्त हुलिया मुझे कहीं दिखाई न दिया था।

आज तो केसर के काले बाल घटाओ से सघन और सबल थे! मेरे मन प्राण पर न जाने कैसे उसकी बनी बैंणी मुझ पर झुक आई थी और उसमें जड़े गुलाब मुझे किन्हीं अनाम महकारों से भरने लगे थे। और केसर का वो लावण्य, चेहरे पर बिखरा तेज और आंखों में उभर आये आमंत्रण अलौकिक लग रहे थे।

“वो .. वो वाली केसर?” मेरा कंठ रुंध गया था। “मतलब कि .. तब .. जब हम मिले थे – वो केसर ..?” मैं मर मर कर कह पाया था और अब केसर से एक उत्तर पा जाना चाहता था। “वो केसर तो ..?” मैं तनिक मुस्कराया था। मेरा मतलब उस लड़ाकू केसर से था जिसने सोटा मार कर मेरी टांग ..

“भेड़ चराती है!” केसर बोल पड़ी थी। उसकी खनकती हंसी ने मेरा उत्साह मोड़ दिया था।

“क्या ..?” मैं चौंक पड़ा था!

क्या अर्थ था इस उपहास का .. इस उत्तर का और इस बात का? वह केसर भेड़ चराती थी तो यह केसर कौन थी?

“वो सोटा मैंने संभाल कर रक्खा है!” केसर हंसी थी, जोरों से हंसी थी! “साथ लेकर आई हूँ!” उसने मुझे सूचना दी थी। “मैं जानती थी कि ये प्रश्न अवश्य पूछेंगे आप!” अब उस ने मुझे अपांग देखा था। “तब हम बच्चे थे कुंवर जी!” केसर ने बड़े ही दुलार के साथ कहा था। “समझ कहां थी ..?” वह फिर हंसी थी। “मैं तो तब पगली थी .. प्यार-व्यार के माने मुझे तब कहां आते थे? वो तो जब आप मिले तो न जाने क्यों ..?” चुप हो गई थी केसर।

मुझे मेरे तमाम प्रश्नों के उत्तर उसने पकड़ा दिये थे!

अब मैं पलंग पर आ बैठा था। अब मैंने फिर से नए भाव से केसर का स्पर्श किया था। उसकी रची उंगलियों से कई पलों तक खेलता रहा था – मैं! मेरी दृष्टि केसर के रचे-बसे पैरों पर पड़ी थी। हे भगवान! कितने सुंदर पैर थे केसर के? मैं फिर से अविश्वास करने को था कि ये वही पैर न थे जो नंगे उन बलुहे विस्तारों पर भागते फिरते थे और ..

“और क्या-क्या पूछेंगे ..?” केसर हंसने लगी थी!

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