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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग उनचास

Hemchandra Vikramaditya

हेमू को गांव में घुसने से पहले ही वहां का नजारा समझ आ गया था।

अपार भीड़ थी – जैसे कोई उत्सव मनाने आई थी – गांव में भरी थी। हेमू के दौड़ते घोड़ों की टापों की आवाजें सुनते ही लोग अल्हाद से भर आये थे। सात सवारों के साथ दौड़ता आता उन्हें अपना हेमू किसी अवतार से कम न लगा था।

“प्रणाम बाबू जी!” घोड़े से कूद हेमू ने इंतजार में सूखते अपने बाबूजी के चरण स्पर्श कर सम्मान दिया था।

बाबू जी कुछ नहीं बोल पाये थे। उनका गला रुंध गया था। आंखें खुशी के आंसुओं से लबालब भरी थीं। उन्होंने बांहें पसार अपने हेमू को आगोश में ले लिया था। बहुत देर तक वो उसे लाढ़ लड़ाते रहे थे, उसके बदन के पुरुष सौष्ठव को सराहते रहे थे और सूंघते रहे थे अपने बेटे के बदन से रिसते पुरुषार्थ को, साहस और सामर्थ्य को जो वह आज अर्जित कर के लौटा था!

जमा लोगों ने बाप बेटे के इस अद्भुत मिलन को अलौकिक आंखों से देखा था। किसी को राम वनवास से आये लगे थे तो किसी को कन्हैया द्वारका से लौटे लगे थे! इतना सुपात्र बेटा पाने की लालसा जैसे हर मन में उग आई थी और हर मॉं हेमू जैसा लाल जनने के लिए लालायित थी।

“हे..मू!” मॉं अब हेमू की बांहों में भरी सुबक रही थी। “जुग बीता है रे तू अब लौटा है?” उलाहना दे रही थी मॉं!

“साल ही तो गया है री ..” हेमू हंसा था। “ठीक समय पर लौट आया हूँ!” उसने मीठी मीठी आवाज में मॉं का मन गुदगुदाया था। “बनाए हैं न लड्डू ..?” उसने चुहल के साथ पूछा था।

मॉं ने आंखें पसार कर हेमू को देखा था। “बड़ा हो गया है कान्हा – उसने महसूसा था। एक समर्थ पुरुष की भूमिका में अपने बेटे को देख मॉं का मन फूला न समा रहा था। ‘नजर न लग जाये’ उसके लाल को सोच मॉं ने चुपके से हेमू के माथे पर बाए हाथ की उंगली उठा कर काला टीका लगा दिया था!

जिसने भी देखा था वही हंस पड़ा था! जाती रही नजर – मॉं ने मान लिया था!

“तुम्हें लड़ाई में डर नहीं लगता?” बहिन पार्वती पूछ रही थी। उसकी आंखों में अजीब आश्चर्य उगा था।

“खूब लगता है!” हेमू ने हामी भरी थी।

“तो फिर क्यों लड़ता है?” उसका प्रश्न था।

“जान बचानी कि नहीं?” हेमू ने अबोध सा एक उत्तर दिया था जिसे पार्वती ने मान लिया था। और फिर वह अपने महावीर भाई को स्नेहिल आंखों से देखती रही थी। “लाया है कुछ मेरे लिए?” उसने सहजता से पूछा था।

“लेने जाऊंगा न कल ..?” हेमू कह कर हंस पड़ा था।

माहिल ने गांव को एक शाही पड़ाव में तबदील कर दिया था।

और उस अपार भीड़ की आंख बचा कर हेमू खिसका था – पैदल, चुपचाप और लाल गढ़ी पहुंच गया था। उसने चुपके से गुरु जी के घर का दरवाजा खटखटाया था। दरवाजा तनिक सा खुला था और हेमू के अंदर जाते ही बंद हो गया था।

“मैं .. मैं .. क्षमा चाहूंगा गुरु जी ..” चरण स्पर्श के बाद हेमू कहने लगा था।

“मैं सब जानता हूँ बेटे!” गुरु जी ने स्नेहिल स्वर में कहा था। “जासूस तो दो दिन पहले ही पहुंच गये हैं!” वह मुस्कराए थे। “मुझे तो डर था कि तुम कहीं सीधे न चले जाओ।” उनका संदेह था।

“मैं भी अब सीख रहा हूँ – सत्ता की ये बारीकियां, गुरु जी!” हंसा था हेमू। “बड़ा ही खतरनाक खेल है!” उसने आश्चर्य से कहा था। “तनिक सी चुक हुई नहीं कि गई जान!” उसने गुरु जी को देखा था। “आप ने ..?”

“हाथ पर हाथ रख कर बैठा भी तो नहीं जा सकता हेमू!” गुरु जी की आवाज में एक दर्प था। “संस्कृति, सभ्यता, धर्म और देश सब गंवा बैठेंगे, बेटे!” वह गंभीर थे। “लेकिन .. अब .. आज मुझे उम्मीद बंधी है, हेमू कि हम कामयाब होंगे – अवश्य और पा लेंगे अपना अभीष्ट!” उन्होंने हेमू को अपांग देखा था। लगा था – वह किसी सम्राट से मिल रहे हैं! हेमू का रूप स्वरूप उनके सपनों के सम्राट से मेल खा गया था।

“तुम्हें चले जाना चाहिये हेमू!” गुरु जी का आदेश था। “गौनावली को बुलाऊंगा तो बातें होगी!” उनका इरादा साफ था। “लेकिन हॉं! तुमने जो बेजोड़ सफलता प्राप्त की है – मैं ..मैं” बहुत भावुक हो आये थे गुरु जी।

“सब आपकी देन है – आपकी भावना और कामना का प्रतिफल है! मैं हूँ – कौन?” हेमू ने गुरु जी को आगोश में समेट लिया था। “मैं आपका ही पैदा किया अवतार हूँ!” उसने सहर्ष स्वीकारा था।

और फिर चोरों की तरह चुपके से हेमू घर लौट आया था।

अब एक बड़ा काफिला घोड़ों पर रवाना हो रहा था।

यह सब माहिल की मेहरबानी से संभव हुआ था। हाथी थे, घोड़े थे, ऊंट थे और चार घोड़ों वाला रथ था। इसमें हेमू बैठा था ओर केसर भी इसी में बैठकर विदा होनी थी। एक शान बान के साथ गौना करने जाता ये काफिला लोगों के लिए नया था। लेकिन न जाने कैसे ये तय सा हो गया था कि हेमू इस शान बान को पाने का सही पात्र था। हेमू की युद्ध विजय की कीर्ति ने उसे हर मन का बादशाह बना दिया था।

अकेला रथ में बैठा हेमू अनमना हो उठा था। उसके और केसर के बीच अभी भी बैठी मजबूरी उसे चिढ़ा रही थी। दो दो युद्ध फतह करने वाला महावीर आज सामाजिक नियमों का दास बना बैठा था। वह घोड़ा दौड़ा कर केसर से यूं ही जाकर नहीं मिल सकता था। अचानक हेमू को केसर के साथ हुई अपनी पहली मुलाकात याद हो आई थी। मात्र याद कर कि केसर ने कैसे उसे सोटे से टांग में मारा था – वह हंस पड़ा था!

“बड़ी बेरहम है!” हेमू ने जैसे स्वयं से कहा था और फिर मुस्करा दिया था।

“कादिर साथ नहीं है!” अचानक हेमू को याद आया था। कई पलों तक वह कादिर के किरदार को समझने का प्रयत्न करता रहा था। “अच्छा हुआ!” उसने स्वयं से कहा था।” न आया तो ठीक हुआ!” उसने कहीं कादिर की नीयत पर उंगली धरी थी। “ये मुसलमान – औरतों के लिहाज से ..?” उसने विचार को काट दिया था।

हिन्दू अभी भी मालामाल थे। हिन्दुओं के पास वैभव था, व्यवसाय था, मान मर्यादाएं थीं और पतिव्रता औरतें थीं – जो मुसलमानों को खाये जा रहा था! किस तरह इब्राहिम लोधी ने पूरे पूरे ग्वालियर राज्य को हड़प लिया – आश्चर्य ही था!

हवा ने ही सूचना दी थी हेमू को कि वो केसर की ढाणी पहुंचने वाले थे!

उसने रथ का पर्दा उठा दिया था। सामने एक समूचा दृश्य आकर ठहर गया था। हेमू को लगा था कि वह किसी दूसरे स्वर्ग में आ पहुंचा है। आसमान पर दौड़ते भागते बादल थे। दूर क्षितिज पर ठहरा झील का दृश्य था। भेड़ों के रेवड़ थे। ऊंटों के झुंड थे और वही काले ऊंचे खतरनाक कुत्ते थे जो भेड़ों की रखवाली में तैनात होते थे!

हेमू अतिरिक्त रूप से रोमांचित हो आया था। उसकी आंखें केसर को तलाशने लगी थीं।

न जाने कैसा आत्मीय रिश्ता था – जो केसर की सांसों के साथ कायम हो गया था – हेमू सोचे जा रहा था। मात्र इस परिदृश्य में आने के बाद ही उसकी रूह जाग सी जाती थी। वह अनायास ही रोमांचित हो आता था। अचानक ही प्रेम प्रीत के पवित्र धारे उसके मन प्राण के आर पार बहने लगते थे।

आगत स्वागत भी बड़ा ही जोरदार हुआ था।

हेमू को देखने, उससे मिलने और संबंध बनाने की गरज से अनेकानेक लोग एकत्र हुए थे। हेमू की ख्याति जैसे हवा में उड़ उड़ कर हर मानव मन पर जा बैठी थी। लोग जानना चाहते थे कि इस हेमू नाम के युवक ने इतना चमत्कार कैसे कर दिखाया था?

“बादल गढ़ को आपने कैसे फतह किया बेटा?” एक बड़े बुजुर्ग सवाल पूछ रहे थे। “मैं तैनात रहा हूँ बादल गढ़ की लड़ाइयों में।” वह विहंस कर बता रहे थे। “किसी माई के लाल की क्या जुर्रत जो ..” उसने आसमान पर घिरे बादलों को देखा था। “लेकिन .. आप सा ने ..?”

“आप सा का आशीर्वाद मेरे साथ था!” हेमू ने हंसते हुए उत्तर दिया था।

हेमू का दिया उत्तर लोगों को बहुत पसंद आया था। सारे बुजुर्ग वार भी हंस पड़े थे। अचानक ही हेमू के लिए एक आदर वहां अवतरित होता हुआ लगा था।

“होनहार हैं!” लोगों ने प्रशंसा करते हुए हेमू को शुभ कामनाएं दी थीं।

झील के आसपास और किनारों के साथ साथ आगंतुकों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी। हेमू के ठहरने के लिए एक खास छोटा झोंपड़ा तैयार किया गया था। यहां से पूरी केसर की ढाणी का दृश्य दिखाई देता था। हेमू प्रसन्न था – बेहद प्रसन्न!

शाम ढलते ही झील रोशनी में नहा झिलमिला उठी थी!

ढोला मारू की प्रेम कथा का आयोजन था। गवैयों को सुनने के लिए नर नारियों के हुजूम इकट्ठे हो आये थे। मंडली कुंडली के कालिया की थी। वह बहुत नाम कमा गया था। ढोला और मारू के बोले प्रेम संवाद बहुत प्रचलित हो चुके थे। और सारंगी पर बजता मधुर संगीत तो लोगों के मनों के आर पार हो जाता था। हेमू को भी कालिया की यह मंडली बेजोड़ लगी थी।

समूची रात ढोला मारू के प्रेम की कथा कही जाती रही थी और समूची भीड़ आत्म विभोर होकर कलाकारों के संवाद सुनती रही थी।

हेमू भी समूची रात सोया नहीं था!

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