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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग तिरासी

Hemchandra Vikramaditya

रेगिस्तान की सारी जिल्लतें किल्लतें झेलता, भूख प्यास से जूझता और शेर खान के खतरे से भयभीत हुआ हुमायू अपने दल के साथ किसी तरह भक्कर पहुंचने में समर्थ हो गया था।

“हम आपका राज्य लेना नहीं चाहते। हमें चंद दिनों के लिए शरण चाहिए। इसके उपरांत हम गुजरात चले जाएंगे। आप आएं और हमें प्रणाम करें ..” हुमायू ने भक्कर के शाह हुसैन मिर्जा को संदेश पहुंचाया था।

संदेश के उत्तर में शाह हुसैन मिर्जा की ओर से कुछ रसद राशन और जरूरत की चीजें पहुंची थीं लेकिन वह स्वयं प्रणाम करने हाजिर नहीं हुआ था। हुमायू ने इंतजार किया था। हुमायू जानता था कि वो मुसीबत जदा इंसान था और उसकी मदद करने खुदा के खिलाफ कौन आता?

दूसरी बार संदेश भेजने के बाद भी जब कोई उत्तर न आया था और न ही शाह हुसैन मिर्जा हाजिर हुए थे तो हुमायू ने भीतर की खबर मंगवाई थी।

“कामरान मिर्जा के बेटे से इनकी बेटी का रिश्ता पक्का हुआ है।” भीतर की खबर थी। “वो नहीं चाहते कि मिर्जा कामरान को नाराज करें।”

भाई का दुश्मन भाई था और इस काटे का कोई इलाज भी नहीं था।

“मिर्जा हुंडल शायद कांधार जा रहे हैं ..” हुमायू को खबर मिली थी। लेकिन पता करने पर बताया गया था कि वो मॉं साहब के दर्शन लाभ के लिए उन्हीं के पास पधार रहे थे। हुमायू एक बारगी हरा हो आया था। मिर्जा हुंडल का आगमन किसी वीराने में आई बहार से कम न था।

“ये कौन हैं भाई ..?” अचानक हुमायू ने निगाहें उठा कर मिर्जा हुंडल से पूछा था।

हुमायू एक किशोरी को ललचाई निगाहों से निहारते ही जा रहे थे। हुस्न ऐसा कि जालिम परास्त ही किये दे रहा था उन्हें। वह नजरे भी न हटा पा रहे थे .. और ..

“ये हैं तो मिर बाबी दोस्त की बेटी पर में इन्हें बहन के रिश्ते में मानता हूँ। एक बच्ची की तरह हमने इन्हें ..” मिर्जा हुंडल बताते रहे थे लेकिन हुमायू कुछ और ही सुनते रहे थे।

“ये नगमा तो हमें दे दो तुम हुंडल।” बादशाह हुमायू की फरियाद थी। “हम तो दिल दे बैठे।” उनका इजहार था। “इन्हें हमारे पास भेजो।” आदेश दिया था उन्होंने।

हमीदा बानो बेगम तब कुल सोलह साल की थीं और शहंशाह हुमायू चौतीस साल के पार थे।

“मेरा उनका कुछ नहीं बनता। मैं उनके पास नहीं जाऊंगी।” हमीदा बानो बेगम ने साफ साफ कहा था। “मैं किसी शहंशाह से शादी नहीं करूंगी।” उनका ऐलान था। “मैं शादी करूंगी उस शख्स से जिसकी कमीज का कॉलर मैं छू सकूं क कि शहंशाह से जिसका जिरह बख्तर छूने में भी मुझे डर लगे।”

दिल टूट रहा था बादशाह हुमायू का – ये हर कोई जान गया था।

“हर कीमत पर हमने हमीदा बानो बेगम को हासिल करना है।” हुमायू ने भी खुले शब्दों में कह दिया था। अब मिर्जा हुंडल मुसीबत में आ गये थे। क्या करें क्या न करें – वह समझ ही न पा रहे थे। वो शहंशाह हुमायू की फरियाद दिलदार बेगम के पास लेकर पहुंच गये थे।

“शहंशाह से निकाह करने में तुम्हें क्या उज्र है, री बानो?” दिलदार बेगम ने हमीदा को बुला कर पूछा था।

“मैं किसी राजा से शादी नहीं करना चाहती।” बानो ने सीधा सीधा उत्तर दिया था।

“तो किसी रंक से शादी बना कर उस का क्या क्या खोंसेगी, कमबख्त!” दिलदार बेगम अप्रसन्न थीं। “अरी, बद जात! एक शहंशाह तेरा हाथ मांग रहा है और तू अभागी .. करमजली ..” दिलदार बेगम अपने आप पर काबू न कर पा रही थीं।

अब क्या करतीं हमीदा बानो बेगम?

दो लाख की मेहर देकर हुमायू ने हमीदा बानो बेगम से निकाह कर लिया था।

जिंदगी का रंग बदला था, जीने का ढंग बदला था और एक बहार जैसी हुमायू के जीवन में लौट आई थी। जहां वो मरणासन्न से थे अब प्राणवान हो उठे थे। अब वो फिर से जीना चाहते थे, लड़ना चाहते थे, और चाहते थे कि हरा देंगे हर एक को। अब खुदा उन पर मेहरबान था और अब हमीदा बानो बेगम के आने के बाद तो वो एक जन्नत को फिर से जीने लगे थे।

“भक्कर में शाह हुसैन मिर्जा ने शरण दी है।” शेर शाह सूरी के पास सूचना पहुंची थी। “हुमायू ने शादी भी की है। हुमायू दल बल से फिर लौटेगा और ..”

शेर शाह सूरी के दिमाग में बैठा पुराना डर एक बारगी नया हो कर उठ बैठा था। उसे अचानक ही बाबर का चेहरा दिखाई दिया था। उसने तुरंत ही इस डर की दवा खोजने के लिए पंडित हेम चंद्र को बुला भेजा था।

“ये सांप – हुमायू कैसे मरेगा पंडित जी?” शेर शाह का सीधा प्रश्न था। “वो तो शादी रचा रहा है .. सेना इकट्ठी कर रहा है .. और ..”

“चोट खाया सांप और अधमरा दुश्मन दोनों ही खतरनाक होते हैं।” हंस कर कहा था पंडित जी ने। “लेकिन आप चिंता न करें! करते हैं इनका इलाज भी।” पंडित जी ने आश्वासन दिया था।

कालपी के युद्ध में जब हुमायू के भाइयों – हुंडल और असगरी ने मिल कर शेर शाह सूरी के बेटे कुतुब खान को मार डाला था तो उसके कान खड़े हो गये थे। जैसे शेर शाह नींद त्याग कर खड़ा हो गया था और अब अपने साम्राज्य को भरपूर निगाहों में भर कर देख रहा था।

“इन मुगलों का सर पहले काटना है, पंडित जी!” शेर शाह जैसे शपथ ले रहा था। “मैं चाहता हूँ कि एक बार इन्हें खंगाल कर हिन्दुस्तान से खदेड़ बाहर करूं?”

“उत्तम विचार है।” पंडित हेम चंद्र ने भी हामी भरी थी। “हमें सर्व प्रथम मुगलों से अपनी सुरक्षा करनी है फिर साम्राज्य का विस्तार और उसके बाद विकास और सुधार पर ध्यान देना होगा।” राय थी पंडित हेम चंद्र की। “निकलते हैं ..” उनका इशारा था।

और शेर शाह सूरी अपनी सेना लेकर अपने दुश्मनों के दांत कीलने निकला था। कश्मीर लाख कोशिशों के बाद परास्त न हुआ था और मिर्जा हैदर रास्ता रोक कर खड़ा हो गया था। गख्खरों से भी युद्ध करने के बाद भी वो मुगलों के ही बने रहे थे। झेलम शहर से दस कोस दूर पर शेर शाह नगर की स्थापना की थी और पचास हजार सैनिक उसकी सुरक्षा में तैनात किये थे। खैबर और बोलन दर्रों पर भी अंकुश लगाया ताकि मुगलों का दखल खत्म हो जाए।

“सुलतान खिजिर खान महमूद बंगाल के स्वतंत्र मालिक बन बैठे हैं!” शेर शाह सूरी के पास ये खबर पंजाब में ही पहुंच गई थी।

एक बारगी घबरा गया था सुलतान शेर शाह सूरी। पूरे हिन्दुस्तान में जैसे एक उबाल आ गया था। बाबर और हुमायू के जाने के बाद भी मुगलों ओर अफगानों का मन नहीं बन रहा था कि वो शेर शाह सूरी को अपना सुलतान मान लें! हर कोई अब अलग हो जाना चाहता था और हर कोई चाहता था कि वो ही हड़प ले हिन्दुस्तान को।

“अब क्या करें?” शेर शाह ने पंडित हेम चंद्र से प्रश्न पूछा था।

“चलते हैं!” सुझाव था पंडित हेम चंद्र का। “बंगाल एक बड़ा नासूर बन जाएगा .. अगर ..”

“लेकिन करें क्या?”

“इस बार कुछ ऐसा करते हैं कि बंगाल हमेशा हमारे हाथ बना रहे! ये दूर का मामला है! अत: हमें चाहिये कि बंगाल में कोई ऐसा उपचार .. जो ..”

शेर शाह सूरी की समझ में बात समा गई थी।

सुलतान खिजिर खान महमूद को कैद में डाल कर शेर शाह सूरी ने अब पंडित हेम चंद्र की ओर देखा था!

“सारे बंगाल को अब सरकारों में बांट देते हैं।” पंडित जी का सुझाव था। “सरकार को हमारा एक सैनिक सिकधर चलाएगा। सरकारों और सिकधरों के सर पर एक अमीरे बंगाल होंगे जो सीधे दिल्ली के नीचे होंगे। यहां कोई सुलतान नहीं होगा!” पंडित जी ने युक्ति बताई थी। “और हम बंगाल को सीधा दिल्ली से सड़क के रास्ते जोड़ेंगे जो आगे काबुल ओर कांधार तक जाएगी। इसे हम शेर शाह सूरी मार्ग के नाम से पुकारेंगे।”

“फायदा ..?” सुलतान ने पूछा था।

“सल्तनत की सुरक्षा!” उत्तर था पंडित जी का। “हमारी सेनाओं के आने जानें में कोई कठिनाई नहीं होगी और हमारा विकास और प्रशासन विराट होता चला जाएगा! और शेर शाह सूरी का नाम .. उसका काम .. उसका यश और उसका ..”

यह एक सुंदर सपना था जिसे पंडित जी ने शेर शाह सूरी को मुफ्त में बेच दिया था।

बंगाल से लौटते ही पता चला था कि मालवा में बहादुर शाह के मरते ही कादिर खान स्वतंत्र सुलतान बना बैठा है। वह दिल्ली के अधीन नहीं रहना चाहता था।

और खबरें ये भी आ रही थीं कि हुमायू अब मारवाड़ के माल देव से मिलकर दिल्ली पर हमला करेगा और ..

बिना किसी निर्णय के शेर शाह सूरी ने अपना रुख मोड़ा था और ग्वालियर तथा सारंगपुर पर कब्जा कर मालवा की ओर बढ़ा था। कादिर खान भाग खड़ा हुआ था। शेर शाह सूरी ने मांडू, उज्जैन और रणथम्भोर के किलों को कब्जे में ले लिया था।

मालवा और गुजरात में स्थाई शांति बनाने और शेर शाह सूरी की सल्तनत की मान्यता बढ़ाने के तहत पंडित हेम चंद्र ने वहां के हिन्दू शासक राय पूरन मल से स्वयं शेर शाह सूरी का समझौता कराया था। दोनों ओर से एक दूसरे के वफादार रहने के कॉल करार हुए थे। शेर शाह सूरी ने कुरान पर हाथ रख कर पूरन मल को वचन दिया था कि वो हिन्दुओं के साथ बराबरी का सुलूक करेगा। रायसेन और चंदेरी अब दिल्ली सल्तनत के वफादारों की गिनती में आ गये थे।

हेमू ने पहली बार अपनी पीठ थपथपाई थी। अफगान और राजपूतों के बीच यह पहली महत्वपूर्ण संधि थी।

शेर शाह सूरी को भी लगा था कि हिन्दुस्तान पर शासन करने के लिए पंडित हेम चंद्र के बताए सभी उपाय और उपचार कारगर थे।

आज पहली बार शेर शाह सूरी को खुला आसमान नजर आया था।

मेजर कृपाल वर्मा
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