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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग इक्यावन

Hemchandra Vikramaditya

केसर का आगमन एक घटना थी जिसे देखने नर नारियों के हुजूम जुड़ गये थे!

और कमाल ये था कि पार्वती ने केसर को सात तालों के भीतर बंद कर दिया था। हेमू ठगा सा पार्वती के चालाक चेहरे को देखता ही रहा था।

“ये कोई बादल गढ़ नहीं है!” पार्वती ने हेमू को फटकार दिया था। “जो हमला करोगे और हथिया लोगे?” वह हंस रही थी। “मानते हैं राजा हो गये हो! लेकिन सेंध नहीं?” उसने खबरदार किया था। “नेग तो लुंगी!” उसने मुंह मटका कर कहा था। “और मुंह खोलकर मांगूंगी।” चेतावनी भी दी थी पार्वती ने।

“मालकिन से ले न!” हेमू ने घुड़क कर कहा था। “मजदूर से क्या मांगती है?” उसका प्रश्न था।

हर किसी को हेमू का उत्तर बेहद पसंद आया था और केसर तो बिफर बिफर कर हंसी थी। बहन के सामने समर्पण करता ये भाई उसे बेहद पसंद आया था।

लेकिन पार्वती ने केसर और हेमू को सारी सामाजिक रस्मों के पूर्ण करने हेतु पूरे दिन व्यस्त रक्खा था। पथवारी से लेकर भूमिया पूजन तक हुआ था और घूरे से लेकर कुआं तक पुजा था। फिर दोनों के सात फेरे पीपल देवता के साथ हुए थे और फिर ग्राम देवता को प्रसन्न करने के लिए गांव की परिक्रमा भी की थी।

“मार के धर देगी?” हेमू पसीने पसीने हो गया था तो बोला था।

“बहू मुफ्त मिलती है क्या?” पार्वती ने भी मुंह मरोड़ कर उत्तर दिया था।

उल्लास और उमंग ने पूरे गांव को गोद ले लिया था।

लेकिन हेमू का मन अब प्यासे पपीहे की तरह केसर को टेर रहा था। उसका संयम टूटने लगा था। अब वह चाह रहा था कि केसर उसे मिल जाये। अब कोई आये ही नहीं उन के बीच और पार्वती उन्हें साथ साथ छोड़कर चली जाए! लेकिन उन के बीच आ बैठा महान सिंह हेमू को दुश्मन से भी ज्यादा खटक रहा था। वह बैठा रहा था और केसर भी कपड़े बदलने चली गई थी!

चाह कर भी हेमू पास बैठे महान सिंह से बोला नहीं था।

“साला पाजी!” वह मन ही मन महान सिंह को कोसने लगा था। “अरे घर में कौन चौकीदारी?” उसका प्रश्न था। “भगाता हूँ साले को!” इरादा बना लिया था हेमू ने।

तभी हेमू को केसर की खनकती हंसी सुनाई दी थी। वहीं आस पास ही बिखर गई थी – वो हंसी। हेमू ने चौंक कर आस पास को परखा था। कहीं कुछ न था। केसर अभी कपड़े बदल कर आई कहां थी। लेकिन फिर उसने केसर की चूड़ियों को खनकते सुना था। हैरान था हेमू और इधर उधर देखने लगा था। सोच रहा था – पागल तो नहीं हो गये – कांत।

और फिर केसर की हंसी .. और फिर चूड़ियों की खनक और फिर महान सिंह की मूँछें – उसके हाथों में आ धरी थीं और उसके गाल पर उगा काला तिल भी गायब था और वह न जाने कैसे केसर हो गया था – जिसने अपनी गोरी गोरी बांहें हेमू के गले में डाल दी थीं।

“माफी मिले आप सा!” केसर हेमू से विनय कर रही थी।

“ये नाटक क्यों केसर?” हेमू की आवाज अब एक शासक की आवाज थी।

“दिल्ली जाना है न आप सा?” केसर का तर्क था। “मुझे पता है कि तुम्हारे मुसलमान मित्र नहीं हैं! अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए?” कहकर केसर ने हेमू को परखा था। “औरत के पास लाज के सिवा होता क्या है – साजन?” उसका प्रश्न था। “और ये मुसलमान यहां औरतों की लाज लूटने ही तो आये हैं?” केसर को जैसे पूरा इतिहास याद था और हेमू हैरान था!

केसर कहां बदली थी – हेमू सोच रहा था। लाज लूटने वाले भेड़ियों को परास्त करने की उसकी तैयारी मुकम्मल थी। जो पास आयेगा – मरेगा ही!

“महान सिंह नहीं तुम महान हो, मेरी प्रिये!” हेमू ने केसर को बांहों में ले लिया था।

“और आप सा – मेरे महाराजा आप तो ..” केसर की आवाज मधुर थी।

स्वेच्छा से ही दो आत्माएं मिल बैठी थीं – आज!

रथ में बैठ कर हेमू और केसर गुरु लाल गढ़ी जा रहे थे!

गुरु लाल गढ़ी में भीड़ भाड़ भरी थी। देश विदेश से विचारक, विद्वान और दार्शनिक पधारे थे। खुरासान से भी तीन लोग आये थे और उन तीनों का अलग अलग काम था। एक थे जिनको आयुर्वेद का संस्कृत से फारसी में हुआ रूपांतर देखना और समझना था। दूसरे सिकंदर लोधी की लिखी नौ हजार आयतों को संस्कृत में रूपांतर करने की मुहिम चलाने वाले थे और तीसरे भारतीय हिन्दुओं को साथ लेकर चलने की सोच पर प्रकाश डालने वाले थे।

सिकंदर लोधी के किये सुधारों की विस्तृत चर्चा होनी थी तो इब्राहीम लोधी को एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने के लिए दुआएं देनी थीं!

“मिलिए हेमू से!” गुरु जी ने परिचय कराया था। “गौना करके गांव आये हैं!” उन्होंने सूचना दी थी। “मैंने सोचा क्यों न इन्हें भी ..”

“अच्छा किया आपने!” समवेत स्वर में बोले थे एकत्रित मेहमान। “बड़ा नाम हुआ है इनका!” एक आवाज आई थी। “भाई! हैं भी ये काबिले तारीफ!”

“उम्र दराज करे अल्लाह!” एक बूढ़े उलेमा बोले थे। “बेटे! तुम जैसे होनहार के हाथ आ जाये हिन्दुस्तान तो चार चांद लग जाएंगे!” उन्होंने दुआ दी थी।

इब्राहिम लोधी के साम्राज्य को पूरे हिन्दुस्तान में कायम करने के अलावा इन लोगों का और कोई उद्देश्य न था। हिन्दुओं के लिए तो अब एक नया जाल तैयार किया जाने लगा था – जहां उन्हें फंसा कर अंततः हलाल कर दिया जाये!

“धुआं को नहीं बुझाना तो आग को है!” उलेमाओं ने फतवा जैसा दिया था। अर्थ था कि हिन्दू संस्कृति को समूल नष्ट कर दिया जाये और देश को इस्लाम के नाम पर लिख दिया जाये!

ग्वालियर की रियासत हाथ लगने के बाद इब्राहिम लोधी का तेवर कई गुना बढ़ गया था।

शाम तक की गहमागहमी के बाद हेमू का रथ लौट रहा था लेकिन उसमें अकेली केसर ही बैठी थी। हेमू गुरु गुरु लाल के साथ कहीं गहरे गर्भ गृह में जा बैठे थे। उन दोनों की मंत्रणा हवा ने भी नहीं सुननी थी!

“दो बड़े बड़े युद्ध तुमने जीते!” गुरु जी कह रहे थे। “क्या मिला तुम्हें?” उनका प्रश्न था।

हेमू चुप था। उत्तर तो उसे आता था पर गुरु जी से कहना और कैसे कहना एक समस्या थी। फिर उसने अब तक का किया धरा सब कुछ गुरु जी के सामने रख देने का निर्णय किया था और वह झरने की तरह बह निकला था।

“आप देखेंगे कि मैंने अपने आप को आजमाने के लिए युद्ध किये न कि कुछ पाने के लिए!”

“कुछ शर्तें तो होंगी ही?” गुरु जी ने हेमू को कुरेदा था।

“हॉं थीं!” हेमू ने स्वीकारा था। “मैंने बादशाह से बदले में विक्रम जीत के प्राण दान की भीख मांगी थी।” हेमू ने गुरु जी के चेहरे को पढ़ा था। “न जाने क्यों .. मुझे ..”

“महान काम किया है – तुमने हेमू!” हंसे थे गुरु जी। “मैं यही तो जानना चाहता था कि – विक्रम जीत सिंह को इब्राहिम लोधी जैसे नृशंस शासक ने जागीर अता की और ..?”

“मेरा अनुमान था कि आगे चलकर हम कहीं ..”

“सही सोच है हेमू! एक अच्छे शासक का सही सोच है।” गुरु जी प्रसन्न थे। “लेकिन क्या इब्राहिम लोधी ..?”

“ये बात तो आजम खान लोधी के मुंह से आ चुकी है!” हेमू ने बताया था। “उसने भरे दरबार में ऐलान जैसा किया था कि ये हेमू तुम्हें एक दिन कान पकड़ कर हिन्दुस्तान से बाहर निकाल देगा .. हम सब को भगाएगा .. और .. तुम ..”

“और तुमने?” गुरु जी गंभीर थे।

“मैं तो चुप ही रहा! बोला ही नहीं था! हॉं! शेरवानी को जिंदा छोड़ने की अपनी मूर्खता पर मुझे रोष जरूर था!”

“ठीक हुआ!” गुरु जी आहिस्ता से बोले थे। “इन्हें लड़ने दो आपस में। तुम किसी को भी मत मारना! ग्रह कलह खा जाएगी इब्राहिम को तो कौन बुरा है?” गुरु जी का अनुमान था। “जलाल की हत्या भी नहीं हुई – ये भी अच्छा ही हुआ!” वह हंस रहे थे। “भाई से भाई लड़ता है तो परिणाम ही अलग आते हैं।”

“अब मैं सोच रहा हूँ कि ..” हेमू किसी सोच में जा उलझा था।

“कुछ मत सोचो!” गुरु जी ने आदेश दिये थे। “गौना हो गया है! बहू को दिल्ली ले जा रहे हो। मिलो जुलो – आराम करो! होता है उसे होने दो! ऑंखें खुली रखना ताकि कुछ अनदेखा न घट जाये!” गुरु जी के अंतिम वाक्य थे। “राणा सांगा आ रहा है!” गुरु जी ने बताया था। “तुम ..”

“ये राजपूत ..?” हेमू ने पूछ ही लिया था।

“हमारा साथ कभी न देंगे!” गुरु जी ने दो टूक कहा था। “इनकी निगाहें पैरों की ओर देखती हैं – हिन्दुस्तान की ओर नहीं!” उनका कथन था।

रात के एकांत में हेमू चुपचाप घर चला आया था!

मेजर कृपाल वर्मा

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