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हेमचंद्र विक्रमादित्य भाग एक सौ पंद्रह

Hemchandra Vikramaditya

घोड़े पर सवार केसर घुप्प अंधेरे के गर्भ में डूबी चुपचाप खुली आंखों से सामने घटते दृश्य को सांस साधे देख रही थी।

केसर की आंखों में आंसू न थे – बल्कि ज्वालामुखी जल रहे थे। यू सफलता के सारे सोपान चढ़ने के बाद सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का इतना दर्दनाक अंत आएगा क्या कोई अंदाजा भी लगा सकता था? एक आदर्श और अनूठा शासक, एक महानतम शूरवीर और दूरदर्शी, एक कुशल प्रशासक और सृजन कर्ता हेमू – हेमचंद्र विक्रमादित्य सब कुछ प्राप्त करने के बाद सब कुछ गंवा बैठेगा यह कौन जानता था?

“ओह! सा-ज-न!” टीस उठी थी केसर के अंतर्मन में। “तुम तो साथ साथ जाने के वायदे कर बैठे थे? हमारे सपने ..” रोना तो चाहती थी केसर लेकिन ये रोने का वक्त न था – वह जानती थी।

दिल्ली एक अजीबोगरीब कोलाहल में डूबी थी। दिल्ली को चहुं ओर से मुगल सैनिकों ने घेरा हुआ था। दिल्ली दरवाजे पर एक अलग प्रकार की हलचल थी। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का धड़ पहुंच गया था। अब उसे बारूद भर कर चौराहे पर लटकाना था और संदेश भेजना था – सनद रहे कि कोई हिन्दू कभी जुर्रत न करे हिन्दुस्तान का सम्राट बनने की वरना तो ..

पूरे हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की आंखों में बेबसी के आंसू लटक रहे थे।

“मैं साजन के साथ सती होना चाहती हूँ भइया!” घुसपुस आवाज में केसर ने महान सिंह से आग्रह किया था। “इजाजत है?” केसर का प्रस्ताव था। “मैं साजन के धड़ को लेकर अब भागी और आप ..?

“डर एक ही है केसर!” महान सिंह गंभीर था। “अगर तुम पकड़ी गई तो?” वह कई पलों तक चुप रहा था। “रही सही इज्जत भी लुट जाएगी बहना!” दरक गया था महान सिंह। “कदम कदम पर पहरा बिठा दिया है जालिमों ने!” सूचना दी थी महान सिंह ने। “मौका है निकल लेते हैं। फिर शायद ..” महान सिंह का प्रस्ताव था।

बैरम खां को जैसे अपने आका बाबर के सारे कायदे कानून और हुक्म हुकूक याद थे। अत: वह बाबर की तरह ही फरमान जारी कर रहा था।

“हिन्दुओं का कत्लेआम करो और इनके सर काट काट कर मीनारें बनाओ! अफगान सैनिकों के लिए भरती खोल दो! लूटपाट, हत्या, आगजनी और अनाचारों की इंतहा ला दो! खाली पेट पड़े खजानों को धन से नाक तक भर दो!” बैरम खां की आवाज बुलंद थी। कल तक जो काबुल भागने की तैयारी कर रहा था वही बैरम खां आज हिन्दुस्तान को तबाहो-बर्बाद करने के आदेश दे रहा था।

“पीर मोहम्मद!” बैरम खां ने एक नाम पुकारा था। “तुम नसीरउल मुल्क हो और तुम्हारा जिम्मा होगा अलवर, देवती, देवती मछारी और हेमू के तमाम ठिकानों को नष्ट-नाबूद कर देना। सब को इस्लाम कबूल कराओ और जो इनकार करे उसका सर कलम कर दो।” लगा था जैसे बैरम खां कुछ भूली बातें याद कर रहा था। “और हां! हां हां हमें महारानी केसर लाकर दो!” बैरम खां की आवाज में गुरूर था। “हमें यह औरत हर कीमत पर चाहिए, पीर मोहम्मद!”

“जो हुक्म सरदार!” पीर मोहम्मद ने जुहार बजाई थी। उसकी बाछें खिल गई थीं।

चौदह साल के अकबर की आंखों के सामने एक अजूबा घट रहा था। आश्चर्य ही था कि सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का किया धरा सब अब उसके खाते में जुड़ता चला जा रहा था। एक संपूर्ण और सुरक्षित साम्राज्य अकबर के पास आ गया था ओर अब आगे के आदेश मांग रहा था। कोई था जो पूछ रहा था – मेरे आका, मेरे बादशाह और क्या मर्जी है आपकी?

“लुट क्यों गया हिन्दुओं का आया साम्राज्य?” अकबर ने प्रश्न पूछ लिया था। “हेमू ने तो इसे हासिल कर लिया था। हेमू तो योद्धा था, पराक्रमी था फिर ..?”

“जिसके प्रारब्ध में लिखा होता है मैं उसी के पास पहुंच जाता हूँ मेरे बादशाह!” उत्तर आया था। “अल्लाह सबसे बड़े ईमानदार हैं – आदमी नहीं!” साम्राज्य ने गूढ़ रहस्य को समझाने का प्रयत्न किया था।

हिन्दू राष्ट्र के यों अचानक आ गये अंत पर पूरे भारतवर्ष में एक मूक शोक मनाया गया था। लोगों का अनुमान था कि कोई अशुभ आकर बैठ गया था उनकी पावन धरती पर जो जल्लादों, हत्यारों, लुटेरों और दानवों का साथ दे रहा था। अच्छाई-सच्चाई हर बार हार जाती थी और जुल्म हर बार जीत जाता था। अब कौन बचा था जो इस जुल्म के खिलाफ लड़ता?

“हम लड़ेंगे जरूर भइया!” केसर के आदेश थे। “साजन ने हाजी खान के सुपुर्द सेना तैनात की थी ताकि जरूरत पड़ने पर मुगलों का मुकाबला कर सकें! ओर हम ..”

केसर का हुक्म महान सिंह के लिए युद्ध करने की चेतावनी थी।

नया सूरज उदय हुआ था और अब डुबने के लिए क्षितिज पर आ बैठा था।

शोकाकुल लोगों को सूचना मिली थी कि केसर ने मुगलों से मुकाबले के लिए मोर्चा खोल दिया है और आह्वान किया है कि हर हिन्दू जान पर खेल कर उसका साथ दे। केसर का आग्रह आग की लपटों की तरह पूरे आकाश पर छा गया था और केसर का साथ देने के लिए काफिले उठ खड़े हुए थे।

“हमारा मोर्चा मेवात पर जमेगा खां साहब!” केसर का आदेश था।

हाजी खान सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का सर्वश्रेष्ठ सेनापति था जिसे सम्राट ने पानीपत के युद्ध में जाने से पहले अलवर, रेवाड़ी ओर मेवात की हिफाजत के लिए तैनात किया था। हाजी खान के पास पूर्ण प्रशिक्षित सेना थी और एक से बड़ा एक शूरवीर था जो अनेकानेक युद्ध लड़ चुका था और अजेय था। केसर के आह्वान पर पूरे प्रांत के लोग लड़ने मरने के लिए लाम बंध हो चुके थे।

पीर मोहम्मद मेवात की ओर मुकाबले के लिए एक विशाल सेना लेकर चल पड़ा था। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य की मौत के बाद मुगलों के होंसले बुलंद थे। लेकिन वो जानते तो थे कि मुकाबला मौत के साथ होना था।

दोनों ओर की सेनाएं आक्रमण के लिए आमने-सामने खड़ी थीं और किसी पल भी युद्ध आरंभ हो जाना था। तभी हाजी खान अफगानों की सेना को लेकर पीर मोहम्मद की मुगलों की सेना से जा मिला था।

केसर के होश उड़ गये थे।

“निकल लेते हैं भइया!” केसर का आदेश था। “दिखा दी ना मुसलमानों ने अपनी औकात!” केसर ने टीस कर कहा था। “ये सगे तो अपने बाप के भी नहीं होते।” केसर को अचानक ही शेख सामी अपने अब्बा का कत्ल करता कादिर याद हो आया था।

महान सिंह ने मुड़ कर नहीं देखा था। अपने घुड़सवारों के साथ दोनों फरार हो गए थे।

“गई कहां वो औरत?” अपना सर पीट रहा था पीर मोहम्मद – नसीर उल मुल्क।

“अब मेरी तो जान मांग लेगा – बैरम खां!” वह रोने रोने को था।

पीर मोहम्मद और हाजी खान दोनों ने मिल कर पूरे प्रांत को लूटा था, आगजनी की थी, हत्याएं की थीं, औरतों के साथ अत्याचार किए थे ओर धर्म परिवर्तन तलवार के जोर पर किया था। अलवर, मेवात और रेवाड़ी तक के इलाके में जमकर कहर बरपा था।

सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का स्थापित किया तोपों का कारखाना मुगलों के हाथ लगा था और सोने के सिक्के और ढलाई करने वाला संस्थान भी उन्होंने ले लिया था। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के नाम पर चलने वाले सोने के सिक्के अब ढो ढ़ो कर दिल्ली ले जाए जा रहे थे। हिन्दू राष्ट्र की नींव जिसे सम्राट ने बड़े जतन से रक्खा था मुगलों ने उसे उठा कर फेंक दिया था।

“इस्लाम कबूल है ..?” नंगी तलवार गर्दन पर ताने एक मुगल सैनिक गुरु गुरुलाल से पूछ रहा था। गुरुलाल गढ़ी ध्वस्त हो चुकी थी। सारे विद्वानों के सर कलम कर दिए गए थे। और जो फारसी के विद्वान थे वो दिल्ली चले गए थे। गुरु गुरुलाल भी जानते थे कि उनका अंत समय आ चुका था। सम्राट हेम चंद्र की मौत उनकी मौत थी वह जानते थे।

“नहीं!” गुरुलाल संयत स्वर में बोले थे। “काट दो मेरा भी सर भाई! मैंने अब जी कर करना भी क्या है?” उनका आग्रह था।

“इस्लाम कबूल है?” यही प्रश्न राय पूरनदास के सामने आया था और नंगी तलवार लिए मुगल सैनिक सर पर खड़ा था।

“अब अस्सी साल की उम्र में मुसलमान बन कर क्या करूंगा मेरे भाई!” हंस कर कहा था राय साहब ने। “मैं वल्लभ संप्रदाय का वैष्णव हूँ और मैं वैष्णव ही मरूंगा! काट दो मेरा सर!” उनका आग्रह था।

पूरे प्रांत में नर संहार की पराकाष्ठा पार हो गई थी।

काशी में एक नया सूर्योदय हुआ था। हनुमान घाट पर लोगों की भीड़ जुटी थी। कोई महारानी थी जो सोलहों श्रंगार किए गंगा में जल समाधि लेने जा रही थी।

“कौन सती हैं ये?” लोगों ने जब पूछा था तो महान सिंह ने बताया था कि वो सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य की महारानी केसर थीं!

महान सिंह ने महसूसा था कि सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का वक्त अब पीछे छूट गया था और वह भी घर लौट आया था।

मेजर कृपाल वर्मा
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