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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग एक सौ नौ

Hemchandra Vikramaditya

इस्लाम की पांच सल्तनतों का जुल्म सहते सहते उदास, निराश और परास्त भारत में पहली बार पुरवाया सासाराम से उठकर चारों ओर फैलने लगा था।

देश को एक उसांस आई थी। एक सर कटने का भय जाता रहा था। लूटपाट थम गई थी। कत्लेआम रुक गए थे। बहन बेटियां घर से बाहर आने लगी थीं। जनमानस की उम्मीद जागी थी कि शायद राम राज्य लौटेगा। शायद सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य भारत के उद्धार उत्थान के लिए ही अवतरित हुआ था और अब इस देश का संकट हमेशा के लिए जाता रहेगा।

सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य के आगमन के बाद से सासाराम में एक अलग उत्साह दिखाई देने लगा था। बिहार के लोगों को अपने पराक्रमी राज पुरुष याद आने लगे थे और उनके पुरातन का विपुल वैभव नूतन का परिधान ओढ़ कर एक नाम पा गया था – सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य!

देश दुनिया और मित्र शत्रु सबकी आंखें अब सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य पर केंद्रित थीं।

एक भिन्न प्रकार की चलाचली से सासाराम और उसका आस पास भरा था।

लगे विशाल राजनीतिक परिसर में ज्ञान गोष्ठियां हो रही थीं। शाम को सामूहिक सभाएं होती थीं। और फिर देर रात तक तन्ना शास्त्री की गायकी की सभाएं चलती थीं और कलाकृति अपने अलौकिक नृत्य से सर्व साधारण का मनोरंजन करती थी।

ज्ञान गोष्ठियों में पांच प्रमुख गोष्ठियां थीं। पहली गोष्ठी के प्रभारी थे गुरु गुरुलाल और उनकी सहायक थीं महारानी केसर। इनका दायित्व साम्राज्य में धर्म संस्कार स्थापना की शिक्षा और वेदों का उत्थान शामिल था। हिन्दू राष्ट्र के लिए इन्हें एक सांस्कृतिक आधार तैयार करना था।

दूसरी ज्ञान गोष्ठी के प्रमुख थे चूड़ामन शास्त्री। इनके साथ सहायक थे जुझार सिंह। इनका उद्देश्य था पूरे भारत में उन हिन्दुओं को जो किसी लालच वश या भय के कारण मुसलमान बन गये थे उन्हें पुन: हिन्दू बनाना। उन सब के लिए राज्य ने सुविधाओं और सहूलियतों का ऐलान किया था और राज काज में लौटने वाले लोगों के लिए इनाम इकरार भी घोषित किए थे।

तीसरी ज्ञान गोष्ठी राजा टोडरमल के हक में थी। उनकी एक अलग सभा थी। उनका उद्देश्य – राज्य में खुशहाली, संपन्नता और आत्मनिर्भरता कायम करना था। राज्य के साथ जनमानस का लेन देन और देश और जनता की साझेदारी सभी शामिल थे। राजा टोडरमल को दोनों पक्षों का हित देखना था ओर एक समर्थ प्रणाली कायम करनी थी। इसमें प्राकृतिक आपदाओं तक की तैयारी भी शामिल थी।

चौथी और बेहद महत्वपूर्ण ज्ञान गोष्ठी राजा महेश दास के अंतर्गत स्थापित की गई थी। इनके साथ स्वयं सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य थे। इस गोष्ठी का उद्देश्य था – राज्य की रक्षा और सुरक्षा। अब तक यह विदित हो चुका था कि इतने बड़े साम्राज्य की रक्षा के लिए जब तक एक कारगर प्रणाली न बनेगी और एक पूर्ण प्रशिक्षित सेना का गठन न होगा तब तक हिन्दू राष्ट्र की संभावना अधूरी ही रहेगी। सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य नहीं चाहते थे कि रोहतास नगर जैसा उदाहरण देश की सीमाओं पर घटे और पूरी सुरक्षा सकते में आ जाए। वो चाहते थे कि एक ऐसी व्यवस्था कायम हो जहां देश की सेनाएं और सेनापति पूर्ण समर्पित भाव से देश की सेवा करें और व्यक्तिगत स्वार्थों से पहले राष्ट्र हित की चिंता करें।

पाँचवीं ज्ञान गोष्ठी तन्ना शास्त्री के अधीन थी। इस गोष्ठी का एकमात्र उद्देश्य था – शास्त्रीय संगीत, कला और आमोद प्रमोद के संसाधनों का विकास। गोष्ठी को आदेश थे कि कला को जनता तक पहुंचाएं और जनता में अपनी संस्कृति के विकास के लिए एक मन: स्थिति का निर्माण करें जहां हम और हमारी राष्ट्रीय विचारधारा हम सब के बीच में बहे।

शाम को होने वाली सामूहिक सभाओं में इन पांच ज्ञान गोष्ठियों के लिए निर्णय और बनाने चलाने के प्रस्तावों की विवेचना होती थी और फिर सर्वसम्मति से प्रस्तावों को मंजूरी मिलती थी।

फिर शाम को आरम्भ होता था रंग रंगीली तन्ना शास्त्री की महफिल का जहां कलाकृति का नृत्य पूरे दिन की दुर्घष श्रम की थकान हर लेता था और शास्त्री जी का श्रेष्ठ गायन सारे सभासदों को आनंदातिरेक से अभिभूत कर देता था।

कभी जब महारानी केसर भी तन्ना शास्त्री के अनुरोध पर गाती थीं तब सभा में चार चांद लग जाते थे।

“जो केवल अपने लिए लड़ता है वही सबसे पहले हारता है!” सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य राजा महेश दास की गोष्ठी में अपने सिपहसालारों को दीक्षित कर रहे थे। “और जो राष्ट्र के लिए लड़ता है वह कभी नहीं हारता।” सम्राट ने हाथ उठा कर एक अमर सत्य को उजागर किया था। “वह तो हारकर भी नहीं हारता और इतिहास उसे एक धरोहर मान कर संचित कर लेता है ताकि आने वाली पीढ़ियां उससे प्रेरणा लेती रहें।”

इस विचार का अनुमोदन हुआ था, स्वागत हुआ था और प्रशंसा भी हुई थी।

“हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए हमें एक समर्थ सेना चाहिए, एक विशाल सेना चाहिए और एक ऐसी सेना चाहिए जिसके मात्र नाम से ही शत्रु के पसीने छूट जाएं।” सम्राट ने आंख उठा कर अपने सेनापतियों को देखा था। “आप से ज्यादा आप का नाम लड़ता है, आपका पराक्रम लड़ता है ओर लड़ता है आपका खौफ। कल की ही बात है कि बाबर का खौफ जिस कदर तारी था – दुश्मन के दिलो-दिमाग पर उतना ही भारी था। मात्र बाबर के आने की सूचना ही ..” हंसने लगे थे सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य। “आपने क्या और कैसा बनना है – स्वयं से पूछें और हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करें।”

तालियां बजा कर सभी सेनापतियों ने सम्राट का सम्मान किया था।

“मेरा मन है राजा साहब कि दिल्ली के स्थान पर हम फिर से इंद्रप्रस्थ बसाएं।” राजा टोडरमल की गोष्ठी में सम्राट अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। “एक ऐसा इंद्रप्रस्थ जो अद्वितीय हो।”

“मेरा भी यही मन है सम्राट।” राजा टोडरमल ने भी उनके साथ सहमति जताई थी। “और मैं तलाश में हूँ ऐसे विश्वकर्मा की जो आपके विचार को मूर्त रूप में खड़ा कर दे।”

“और इस पुराने दिल्ली शहर का क्या करेंगे?” सम्राट पूछ रहे थे। “ये जो पांच इस्लाम सल्तनतों की गुलामी की मोहर की तरह खड़ी मीनारें, मजारें और अनगिनत मकबरे जो दिल्ली के चप्पे चप्पे पर उठ खड़े हुए हैं ..?”

“मेरा तो मन नहीं है सम्राट कि हम इन्हें सुरक्षित रक्खें।” राजा टोडरमल ने अपनी राय व्यक्त की थी। “हमारी बदनामी के सिवा ये और हैं भी क्या? एक आक्रमणकारी ने हमें हराया और हमारी छाती पर अपना नाम लिख दिया। अब हमें ..”

“यह निर्णय भी आपने करना है।” कहते हुए सम्राट चले गए थे।

शाम की सभा में आज एक अलग तरह का उल्लास भरा था।

नया इंद्रप्रस्थ बनेगा – ये एक महत्वपूर्ण सूचना थी। राजा टोडरमल की शख्सियत के सब कायल थे। देश से गुलामी के प्रतीकों को हटा कर अपनी कामयाबी के किले बनाते चले जाना – एक दिशा थी जिधर जाने के लिए सभी उपस्थित लोग सहमत हुए खड़े थे।

राज्याभिषेक का समय गुरु गुरुलाल ने निकाला था ओर उसपर उनकी धर्म सभा ने मुहर लगा दी थी। अब सबको इंतजार था कि गुरु जी घोषणा करें और पूरे भारत देश में संदेश दें कि उनका सम्राट कौन घड़ी में सिंहासन पर विराजमान होगा।

“आदरणीय मुझे आदेश हुए हैं कि मैं आप सब को सूचित कर दूं कि हमारे महा-महिम सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य कब सिंहासन पर आरूढ़ होंगे और राज्याभिषेक का उत्सव कैसे मनाया जाएगा!” चूड़ामन शास्त्री बोल रहे थे। अचानक एक परम शांति का आगमन हुआ था और हर कोई इच्छुक हो उठा कि .. “कार्तिक मास की तिथि सात वर्ष छप्पन – समय प्रभात की वेला आठ बजे का सूझा है” चूड़ामन शास्त्री ने घोषणा की थी। “ये राज्याभिषेक का उत्सव सात दिन तक चलेगा। आगंतुकों की सूची तैयार है। हमने पूरे देश से अपने शुभचिंतक बुलाए हैं जो हमारे हिन्दू राष्ट्र के अभिन्न अंग होंगे।”

तालियां बजी थीं। चूड़ामन शास्त्री का मुख मंडल दमक रहा था।

“सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य के लिए सिंहासन की व्यवस्था अभी अस्थाई रूप से की जाएगी।” सेनापति जुझार सिंह बताने लगे थे। “उनके स्थाई सिंहासन का निर्माण दक्खिन के कर्म कार गुट्टप्पन करेंगे। चंदन का बना होगा सिंहासन और ..”

लोगों ने फिर से तालियां बजा कर स्वागत किया था।

सभासदों के सामने ही नहीं पूरे आसपास के सामने एक नया स्वर्ण काल उठा खड़ा हुआ था। हिमालय ने स्वयं आकर जैसे सम्राट को आशीर्वाद दिया था और गंगा ने अपनी छांव छोड़ी थी। दसों दिशाएं अवगुंजित हुई थीं और पूरा देश सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य की जय जयकार से गूंज उठा था।

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना और नए भारत का सुख स्वप्न पूरी फिजा पर छा गया था।

गुरु गुरुलाल ने सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य को बांहों में भर कर आशीर्वाद दिया था।

मेजर कृपाल वर्मा

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