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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग चौबीस

Hemchandra Vikramaditya

सात दिन ससुराल में अपने साजन के साथ रह-सह कर केसर अपने पीहर जा रही थी।

हेमू चुप था। उसे केसर के साथ गुजारा समय जहॉं बेजोड़ लग रहा था वहीं इतना कम और छोटा भी लगा था कि विछोह का डंक उसे गहरे घाव दिये जा रहा था। उसका मन तो न जाने कैसे केसर के पल्लू से जा बंधा था। और ..

“मैं कैसे जीऊंगा केसर?” हेमू ने जाने के लिए सजी बजी खड़ी केसर के पीछे खड़े होकर कहा था। केसर के घने काले केशों से आती सुगंध उसे बावला बनाए दे रही थी। “सज गये रथ-पालकी .. और अब तुम ..” उसने आह भरी थी। “रो रही हो ..?” हेमू ने केसर को बाँहों में समेटा था।

लेकिन केसर की ऑंखें तो आग सी दहक रही थीं!

हेमू सकते में आ गया था। क्या था – जो केसर के दिमाग में चल रहा था? उसे लगा था कि केसर का वही क्रोध – वही जाना पहचाना क्रोध था जब सोटा मार कर उसने टांग तोड़ी थी। जरूर कुछ गलत-सलत घटा था – जिसने केसर को ..

“क्या हुआ प्रिये!” हेमू ने डरते-डरते पूछा था।

“का-दि-र ..!” अक्षरों को चबाते हुए केसर बोली थी। उसकी दांती भिच गई थी। “मैंने उसकी पीठ देख ली थी और उसे जाते देखा था!” केसर बता रही थी। “घरातियों में आ मिला था – कमीना! छल से .. चुपके से .. आड़ से उसने ..” केसर का क्रोध अब पिघलने लगा था।

“यही डर था मुझे!” एक लम्बी आह भरी थी हेमू ने। “मैं उसके दिल्ली न जाने का सबब समझ गया था। लेकिन .. ये सांप ..?” हेमू गर्जा था। फिर वह अंत: पुर में गया था और नंगी तलवार हाथ में लेकर लौटा था।

“ये क्या ..?” कांपते कंठ से केसर ने पूछा था।

“टुकड़े-टुकड़े कर देता हूँ कमीने के!” हेमू की आवाज में दर्प था। “एक न एक दिन तो मुझे .. इसे ..” हेमू कह रहा था। “आज ही सही अभी ..”

“नहीं, साजन!” केसर ने उसका रास्ता रोका था। “अभी समय ठीक नहीं!” उसने हेमू को वर्जा था। “जगह ठीक नहीं!” वह बोली थी। “शेख शामी जा रोएगा – अपने आका सिकंदर लोधी के सामने और वहां से लश्कर लेकर चढ़ाई कर देगा!”

“कर दे! मैं डरता नहीं हूँ केसर!” हेमू तड़का था। “एक न एक दिन मुझे तो ..”

“उस दिन को आने तो दो!” केसर तनिक हँस गई थी। “तब मैं भी तुम्हारे साथ ही लड़ रही होऊंगी!” उसकी आवाज में मधुरता थी। “महाराजा हेम चंद्र विक्रमादित्य जब हिन्दू राष्ट्र का झंडा लेकर इन राक्षसों का संहार कर रहे होंगे तब उनकी महारानी भी ..”

“ओह केसर!” हेमू के स्वर आद्र हो आये थे। “ओ प्रिये!” उसने प्रेम पूर्वक केसर को पुकारा था। “तुमने .. तुमने .. यह स्वप्न कब देख लिया, प्रिये?”

“जिस दिन .. तुम्हारी टांग तोड़ी थी उसी दिन ..” हँस पड़ी थी केसर।

“अरे, नहीं! तब तो तुम भेड़ चराती थीं!”

“जब हाथ में सोटा होता है समझ भी तभी आती है!” केसर कहती रही थी। “इस कुत्ते को मैं ही मारूंगी, साजन!” केसर ने शपथ ली थी। “तुम मत हाथ डालना इस पर। खेल बिगड़ जाएगा!” उसने हेमू को चेताया था।

हेमू ने मुड़कर केसर को देखा था। वह हैरान था। केसर की समझ-बूझ और सपनों को सुन कर उसे एक अजीब से हर्ष का एहसास हुआ लगा था। उसे लगा था कि जो केसर की ऑंखों में उसने अभी-अभी पढ़ा था – वह अवश्य ही सच होने वाला था।

“एक साल .. केसर ..?” हेमू फिर से टीसा था।

“अब आई, साजन!” केसर ने चुटकी बजाई थी और हेमू को हँसा दिया था।

“जादूगर हो ..!” हेमू ने प्रसन्न होकर कहा था।

“बहेलिए हो!” मुड़कर केसर ने उत्तर दिया था। “फांस लिया – जंगल की हिरनी को!” उसने भी उलाहना दिया था। “मस्त घूमती थी! ऐसा तीर मारा तुमने .. कि ..?”

अब दोनों आलिंगन बद्ध थे। दोनों मिल-मिल कर बिछुड़ रहे थे। दोनों एक दूसरे के लिए समर्पित थे। दोनों अगाध प्रेमी थे। दोनों की रूहें मिल चुकी थीं और अब वो दोनों एकाकार हो चुके थे।

“इंतजार रहेगा!” जाते जाते हेमू बोला था।

“जरूर लौटूंगी साजन!” वायदा किया था केसर ने।

केसर की विदाई के जाते काफिले को अनवरत देखती हेमू की ऑंखें थक गई थीं। ऑंखों से ओझल हो गये उन रथ-बहलियों को बिसार उसकी निराश उदास निगाहें लौट आई थीं। वह मुड़ा था। लेकिन ये क्या? उसकी पीठ पीछे ही खड़ा कादिर हंस रहा था। किसी उल्लास से उसका मन प्राण लबालब भरा था। वह हेमू को अपांग देख रहा था और मुस्करा रहा था।

“दिल्ली चलने की तैयारी ..?” कादिर ने हेमू से पूछा था।

“लेकिन ..?” हेमू कुछ समझ न पाया था। उसे यह कादिर का कोई नया स्वांग लगा था। “जल्दी क्या है?”

“है! जल्दी है!” कादिर ने चुस्ती के साथ कहा था। “अब्बा का पैगाम आया है!” उसने सूचना दी थी। “सिकंदर लोधी ग्वालियर पर आक्रमण करेगा!” कादिर कह रहा था। “भर्ती खोल दी है। हिन्दुओं को बड़ी संख्या में भर्ती किया जा रहा है!”

“क्यों ..?” हेमू प्रश्न चिन्ह लगाता ही चला जा रहा था।

“इसलिए कि .. लड़ाई राजपूतों से है! ये ग्वालियर के तौमर मुसलमानों के काबू आते कब हैं!” कादिर ने तनिक निराश होते हुए कहा था। “नया मंत्र फूंका है सिकंदर लोधी ने।” कादिर ने ऑंखें नचाई थीं। “तू तो सुबेदार बनेगा!” उसने घोषणा की थी।

“और तू ..?” हेमू ने तुरंत पूछा था।

कादिर चुप बना रहा था। वह अपने लिए कुछ और ही ओहदा तलाशता रहा था। जैसे वो चाहता रहा था कि उसे तो अब्बा कहीं न कहीं वहॉं फिट करेंगे जहॉं वह सिकंदर लोधी के बहुत करीब पहुँच जाए और फिर ..

केसर को देखने के बाद कादिर अब बादशाह बनने की जल्दी में था!

“चलकर देखते हैं!” कादिर जोरों से हँसा था। “जो भी हो! तू तो हमेशा ही मेरे साथ रहेगा न?” कादिर ने उसे पूछा था।

“क्यों नहीं, यार!” हेमू भी हँस गया था। “मैं तो हूँ ही तेरा!” उसने वायदा किया था।

“ठीक उत्तर दिया साजन!” अचानक जैसे हेमू ने केसर की आवाज सुनी हो, ऐसा लगा था उसे!

हेमू कुछ समझ नहीं पा रहा था। कादिर की सूचना और सुझाव उसे कुछ अपुष्ट सूचनाओं जैसे लग रहे थे। उसने एकबारगी दिल्ली जाने के लिए तैयार खड़े कादिर को देखा था। वह उसे अब शकिया निगाहों से देखने लगा था।

“ये अचानक आक्रमण क्यों?” हेमू ने प्रश्न किया था। “और वो भी ग्वालियर पर?”

“मान सिंह मर गया है न!” दो टूक उत्तर था कादिर का। “खूब खून पिये इस राजा मान सिंह ने!” कादिर उसे कोसने लगा था। “जीते जी काबू कब आया?” वह बता रहा था। “और अब तो सब आसान है!”

“वो कैसे..?”

“उसका बेटा विक्रमादित्य तो बेकार है!” कादिर ने भौंहें सिकोड़ कर बताया था। “लड़ाई के नाम से तो उसकी पिंडलियां कांपती हैं!” हंस रहा था कादिर। “अब तो हमारी जंग .. उस गुजरी रानी मृग नयनी से होगी प्यारे!” कादिर मजाक करने लगा था। “कहते हैं – बहुत ही खूबसूरत रानी है! राजा मान सिंह के साथ लड़ती थी। माशूका है उसकी!” कादिर ने मुड़ कर हेमू को देखा था। उसकी ऑंखों में परिहास जैसा कुछ था। “गुजरी महल अलग से बनवाया है उसके लिए! बाकी रानियों से अलग रहती है। और पर्दा भी नहीं करती प्यारे!” कादिर बताता ही जा रहा था।

“तुम्हें ये सब खबर कहॉं से लगी रे?” हेमू ने फिर से पूछ लिया था।

“अबे यार!” कादिर तनिक लापरवाही से बोला था। “सभी जानते हैं – ये सब तो!” वह कह रहा था। “तू अपनी बात छोड़!” उसने हेमू के कंधे पर धौल जमाई थी। “तू तो ..?” कादिर व्यंग कर रहा था। “नौ रानियां थीं मान सिंह की!” वह हँस रहा था।

“जंग हुई तो ..?” हेमू ने बात का रूख मोड़ना चाहा था।

“तो हम सब जीत लाएंगे!” कादिर फिर से प्रसन्न हो आया था। “मैं तो गुजरी महल में ही जा कर रुकूंगा!” वह फिर से मजाक कर रहा था। “देखें तो उसे ..?” उसका मन उछल-कूद सी कर रहा था।

न जाने क्यों हेमू का हृदय एक हिकारत से भर आया था।

तमाम मुसलमान और मुसलमान शासकों का एक ही शौक था। लूट-पाट करना, हिन्दुओं की औरतें उठाना, हरम बनाना, बच्चे पैदा करना और जुल्म ढाना! उनकी कानी ऑंखें भारत के वैभव पर टिकी थी। ये सब कुछ लूट कर ले जाना चाहते थे। और जो यहॉं बसना चाहते थे वो सब कादिर जैसे ही थे जो पराया माल अपने नाम लिखवा लेना चाहते थे!

अचानक ही गुजरी रानी मृगनयनी के बारे सोचते ही उसे केसर का बेजोड़ हुस्न याद हो आया था। और याद हो आया था कि कादिर ने उसे चोरी से छुपकर देख लिया था! और वह जानता था कि .. कादिर ..

कब डस ले क्या पता – हेमू ने आह रिता कर पूछा था।

मेजर कृपाल वर्मा

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