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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग छप्पन

Hemchandra Vikramaditya

हेमू मारवाड़ जा रहा था – ये दिल्ली और आगरा में हर कोई जान गया था और हेमू मारवाड़ आ रहा था – ये भी चित्तौड़गढ़ का बच्चा बच्चा जान गया था।

किस लिए हेमू मारवाड़ जा रहा था – केवल कयास लगा रहे थे लोग!

“मुझे क्यों कांटों में घसीट रहे हो सुलतान!” मुरीद अफगान पूछ रहा था। “मैंने क्या करना है मेवाड़ जा कर?” उसका प्रश्न था।

“ये तो काम ही आपका है!” हेमू हंसा था। “सुलतान से इजाजत है! राणा की भेंट के लिए ..?”

“हुक्म ..?”

“अनुभवी हैं आप!” हेमू का कहना था। “जितना भी मुनासिब समझो ..” वह स्वयं भी नहीं जानता था कि राणा की क्या मांग हो सकती थी।

केसर आज अलग तरह से उत्साहित थी।

आगरा जाते वक्त जो डर उसे लगा था – वह चित्तौड़गढ़ जाते न लग रहा था। उसने राजपूतों की वीर गाथाएं सुनी थी। उसने सुना था कि राजपूत बहिन बेटियों की लाज नहीं लूटते थे। वो तो हिन्दू महिलाओं के रक्षक थे और वहां की रणबांकुरी रानियां, उनके जौहर और उनके त्याग बलिदानों की कहानियां केसर को याद थीं।

“चित्तौड़गढ़ चलकर क्या करना है?” विचार मग्न बैठे हेमू को केसर ने जगा सा दिया था।

हेमू ने नई निगाहों से केसर को देखा था। उसे लगा था कि वह अपनी महारानी के साथ एक महा अभियान पर निकला था – जिसका अर्थ था हिन्दू राष्ट्र! कितनी दूर की एक संभावना थी लेकिन कितनी पास खड़ी थी? आज तो हेमू उसे छूकर भी देख सकता था!

“ऊंट को सूई के नकुए से निकाल कर दिखाना है!” तनिक विमुग्ध भाव से कहा था हेमू ने। “माने – महारानी कि राजनीति के दाव पेंच लगा कर असंभव को संभव बना देना है!” वह हंस रहा था।

“मुझे क्यों बहका रहे हो?” केसर ने रूठते हुए पूछा था।

“नहीं केसर!” गंभीर था हेमू। “राजनीति किसी भी संग्राम से बड़ा संग्राम है! मात्र एक किये निर्णय से कभी कभी तबाहियां आ जाती हैं तो कभी बस्तियां बसती चली जाती हैं! कभी चमन उजड़ जाते हैं – तो कभी शहर बस जाते हैं!”

“फिर आप क्या करने जा रहे हैं?”

“मैं तो हमेशा बसाने की ही सोचता हूँ केसर!” हेमू सहज हो आया था। “उजाड़ने में मेरा मन कांपता है! बरबादी मुझे बुरी लगती है प्रिये!” हेमू चुप हो गया था।

केसर ने निगाहें घुमा कर देखा था। शायद चित्तौड़गढ़ ही आ रहा था। उसे लगा था जैसे वह लौट कर केसर की ढाणी पहुंचने वाली थी। उसने अपनी मिट्टी को पहचान लिया था। ये वही पवित्र मिट्टी थी जिसमें उसका जन्म हुआ था। उसे साफ साफ दिखाई दे रहा था कि दिल्ली की मिट्टी ही दूषित हो चुकी थी – जबकि राजपूताने की मिट्टी ..

चित्तौड़गढ़ में हेमू का खूब आगत स्वागत हुआ था।

चित्तौड़गढ़ की भव्यता के दर्शन कर हेमू और केसर दोनों ही दंग रह गये थे! न जाने किसने बसाया होगा ये स्वर्ग – वो दोनों अंदाजा लगाते रहे थे और न जाने कौन सी गंधर्वों की संस्कृति के उपासक थे ये लोग वह दोनों जान लेना चाहते थे!

केसर रनिवासों में चली गई थी और हेमू अकेला शाही आवास पर ठहर गया था। मुरीद अफगान के लिए अलग व्यवस्था थी!

राणा जी के दरबारी शाम को हेमू से मिलने आवास पर आये थे। एक अजब सी गहमागहमी थी। बेहद गुप्त और दबे ढके इरादों के साथ सबने हाथ मिलाए थे। भुजाएं फैला फैला कर उन्होंने आगत स्वागत भी किया था लेकिन बिलगाओ की नीयत छुपी नहीं थी!

“लोधी तो लड़ेगा?” एक ऐसा प्रश्न था जो हेमू के सामने उत्तर पाने खड़ा ही रहा था।

लेकिन हेमू भी वार बचा ही गया था और उसने कोई उत्तर न दिया था।

“शहजादे सुरक्षित तो हैं?” हेमू ने मतलब की बात की थी। “उनसे मुलाकात ..?”

“हो न पाएगी!” सूखा उत्तर था। साफ बात थी। “महाराणा ही कुछ बता पाएंगे!” उनका सुझाव भी सीधा ही था।

बातें बेहद औपचारिकता में हुई थीं। दोनों पक्षों में से किसी ने भी कोई इरादा जाहिर न किया था। राजपूतों को लगा था कि उम्र में छोटा हेमू अनुभव में उनसे कही बहुत बड़ा था!

केसर का जोरदार स्वागत हुआ था। रनिवासों में जैसे दिल्ली से आई एक रौनक घुस गई थी। महाराणा की उन्नीसों रानियां केसर के इर्द गिर्द घूम घूम कर उसकी आंखों से आरती उतार रही थीं। फिर बातों बातों में ही उन्होंने जान लिया था कि केसर तो उन्हीं के कुल की थी। वो तो उनकी बेटी थी। और फिर हेमू भी तो उनके दामाद थे – ये भी अब निश्चित हो गया था!

“ये तो पदमावत है?” एक शोर सा मच गया था रनिवासों में। “सच! देखो आप सीसा!” उरवशी बता रही थी। “मिला लो पदमावत से! वही आंखें हैं .. वही मुख मंडल और वही हंसी हैं!”

बात कहीं सबको सच लगी थी। केसर का सौन्दर्य सर चढ़ कर बोल रहा था।

लेकिन केसर की समझ में कुछ न आ रहा था। ये पदमावत कौन थी – वह तो जानती ही नहीं थी। लेकिन जब उसने पदमावत का चित्र देखा था तो वह दंग रह गई थी। वास्तव में ही पदमावत ..

“और ये देखो केसर!” उरवशी बता रही थी। “यहां जौहर में जान दी थी रानियों ने और पदमावती ने ..”

“मैं .. मैं कुछ समझी नहीं दीदी!” केसर ने पूछा था।

“पगली .. तू ही तो थी पदमावत! आग में कूद कर तूने ही तो जान दी थी। तेरे पीछे ही तो जंग हुई थी .. खिलजी से .. और ..”

केसर के होश हवास उड़ गये थे।

हेमू को भी नींद नहीं आ रही थी। चित्तौड़गढ़ को देख हेमू को इब्राहिम लोधी का लालची चेहरा याद हो आया था। किस तरह उसने ग्वालियर को गड़प कर लिया था और किसी अफगान को कौड़ी भी न दी थी और अब जलाल को हलाल करने पर तुला था! अगर किसी तरह वह राणा को हराने में कामयाब हो गया तो .. चित्तौड़गढ़ .. प्राप्त कर हिन्दुस्तान को तो ले ही लेगा!

और राणा ने राजपूताना लेने के बाद अब गुजरात, मालवा, ग्वालियर और बिहार बंगाल तक जाने का इरादा बना बैठे थे। सारे राजे महाराजों को संगठित कर एक नई प्रथा प्रणाली कायम करने वाले थे जहां धर्म जैसी कोई मजबूरी सत्ता के सामने न हो .. और ..

दोनों विचारधाराओं और उनके प्रवर्तक हेमू की आंखों के सामने बहुत देर तक खड़े रहे थे। उसे लग नहीं रहा था कि इन दोनों में से कोई भी पार पर पहुंचेगा! व्यक्तिगत स्वार्थ सत्ता को शक्ति विहीन बना देता है! राणा सांगा की उन्नीस रानियां और सिसोदिया वंश का विस्तार कितना बड़ा हो सकता था भला? और इब्राहिम लोधी कब तक साम्राज्य में साझा नहीं करेगा? मरते वक्त का सिकंदर लोधी का चेहरा हेमू की आंखों के सामने था। बेशुमार पीड़ा के पारावार सिकंदर लोधी को किस तरह काटते बांटते रहे थे – वह भूला कहां था?

“तुम्हें क्या चाहिये?” आज हेमू ने हेमू से प्रश्न पूछा था। “तुम किस लिए इस भाग दौड़ में शामिल हो?”

हेमू चुप था। उत्तर तो था – पर वह देना न चाहता था। संभव और असंभव के बीच में उलटा लटका था उसका उत्तर! इतिहास के पन्ने कुरेदकर हेमू चाहता था कि अपना जैसा कोई मंसूबा खोज ले और उसका हुआ अंजाम भी पढ़ ले। लेकिन सबका सब गड्ड-मड्ड हो गया लगा था।

“हिन्दू राष्ट्र!” कुछ था जो स्वतः: ही उसके सम्मुख आकर खड़ा हो गया था। अब वह इसे छू लेना चाहता था। ग्रहण कर लेना चाहता था और चाहता था कि इसे अभी सात तालों के भीतर बंद करके रख ले! “एक राष्ट्र – जो विक्रमादित्य का था .. जो राम का था .. जो युधिष्ठिर का था और जो ..”

हेमू देख रहा था – अनेकानेक चित्तौड़गढ़, ग्वालियर, दिल्ली, आगरा .. कन्याकुमारी और ..! कैसे कैसे विस्तार थे – जिनमें विभिन्न प्रकार के रंग भरे थे .. लोग रह रहे थे .. संस्कृतियां पनप रही थीं और सब कुछ बड़ी ही शालीनता से प्रवहमान था!

परमात्मा के बनाए ब्रह्मांड की तरह ही वहां सब कुछ निरासक्त था, नियोजित था और गतिमान था!

मेजर कृपाल वर्मा

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