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हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग अठारह

Hemchandra Vikramaditya

हमारी शादी होनी थी। मैं चौकी पर आ बैठा था!

मंडप की शान और सजावट देखकर मेरा मन प्राण खिल उठा था। लगा था कि केसर का परिवार बड़े मन से कन्यादान कर रहा था। इस शादी को एक उत्सव की तरह मनाया जा रहा था। मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता था कि केसर की ढाणी जैसे बीहड़ में कोई स्वर्ग जैसा शहर भी बसाया जा सकता था?

मंत्रोच्चार आरम्भ हुआ था तो मैंने मुड़कर उन दो मनीषियों को देखा था जो हमारा विवाह संपन्न कराने में जुटे थे। मेरे गुरु गुरु लाल आसनासीन थे। उन के बोले मंत्र तो मैं समझ रहा था पर केसर पक्ष के प्यारेलाल शास्त्री का स्वर भी मुझे बेहद कर्ण प्रिय और सुलझा हुआ लगा था। दोनों थे विद्वान और महान! यह हमारा सौभाग्य ही था कि ये दो विभूतियां हमारा विवाह समारोह संपन्न करा रहे थे!

केसर को लाया गया था। मैंने उसे आते देखा था। शादी के जोड़े में सजी-वजी केसर बेहद आकर्षक लग रही थी। मैंने महसूस किया था कि संभल-संभल कर कदम बढ़ाती केसर वो केसर तो नहीं थी जो जंग सा घमंड भरती थी और अल्लम-खललम कमीज के बाजू लटकाती भेड़ों को टिटकारी देती और कुत्तों को गरियाती चलती थी – एक तूफान की तरह। कौन थी ये केसर?

“बहुत सभ्य बनते हो?” लगा था – मैं केसर की आवाज सुन रहा था। पास पड़ी चौकी पर बैठते वक्त केसर का मुझे टहोका लगा था। “दिल्ली क्या गये तुम तो बादशाह बन गये!” लगा जैसे केसर मेरी खिल्ली उड़ा रही थी।

मैं अब खबरदार हो कर बैठ गया था। वह भी बैठ गयी थी। दोनों मनीषी वेद मंत्र पढ़ने लगे थे। एक शादी का सारा सरोकार शुरू हो गया था। फिर हम सात फेरे ले रहे थे। मैंने तब महसूस किया था कि केसर का कद काठ बहुत संभल गया था। वह तो मेरे बराबर की थी। उसका बदन कोई लुंज-पुंज न था बल्कि मेरे जैसा ही स्वस्थ और सावधान था! किसी माने में हम दोनों बराबरी पर थे!

लेकिन ..? लेकिन .. जब घूंघट से चांद दिल्ली की शाम पर उतरेगा तो उसे नीलोफर दिखाई देगी? नीलोफर का हुस्न .. नीलोफर की अदाकारी .. नीलोफर के संवाद और सभ्यता कहीं इस चांद की जान न ले ले – तभी था?

मैंने एक बारगी परमात्मा को याद किया था और केसर के लिए फतह की कामना की थी। मैंने कामना की थी कि मेरी केसर दिल्ली की महारानी बने और मेरी केसर केकयी की तरह मेरे साथ जंग लड़े और .. और हां हम मिल कर हिंदू राष्ट्र की स्थापना करें और हम दोनों मिल कर देश में घुस आये इन आक्रमणकारियों का खात्मा कर दें!

मुझे अचानक कादिर का स्थान लेती केसर भली लगी थी, प्रिय लगी थी, आदरणीय लगी थी और लगा था – युग लौटेगा अवश्य! अब आंखें पसार कर मैंने अपने गुरु जी को देखा था! अभी तक तो उनका हर कथन सत्य हुआ था और शायद भविष्य में भी?

“अब से तुम दोनों पति-पत्नी हुए!” उन दोनों महापुरुषों ने समवेत स्वर में घोषणा की थी। “परमात्मा तुम दोनों को चिरायु प्रदान करें!” उनका आशीर्वाद था।

अचानक ही ढोलक पर थाप पड़ी थी ओर जमा रमणियों ने हमारे लिए स्वागत गीत गाना प्रारम्भ कर दिया था। मधुर संगीत ने मेरा मन मोह लिया था। गीतों की मनुहार बरसात की फुहारों की तरह मेरी ओर आती लग रहीं थीं। मैं अभिभूत हो गया था!

“चलिए! कुछ रस्में पूरी करते हैं!” एक सुघड़ महिला ने हम दोनों को अपने साथ ले लिया था। “ये लीजिए! खोलिए ना!” वह कहती रही थी। पर मैं था कि एक पल भी केसर से जुदा न हो पा रहा था। किसी तरह मैं केसर का दीदार कर लेना चाहता था। पर वो थी कि अभी भी घूंघट में बंद थी एक पहेली की तरह!

भांति-भांति के नेग-चार करते-करते खूब हास-परिहास रहा था। मेरा मन फूला न समा रहा था। मेरी कोई सगी साली तो न थी पर वहां जुड़ी सालियों की एक अलग बारात थी। उन्होंने मेरी नाक में दम कर दिया था। जीजा जी की एक रट थी जो वो लगा रही थीं। वो मुझे भांति-भांति के प्रलोभन दे कर ठग रही थीं .. हरा रही थीं और मैं था कि केसर के साथ होती उस जंग में हारता ही चला गया था।

लगा – केसर मेरी हार का कारण जानती थी! घूंघट में छुपे छुपे चुपचाप ही हंसती केसर की चोरी भी मैंने पकड़ ली थी! अंत में उन लोगों ने मुझे बहुत कुछ देकर ही विदा किया था!

एक विजेता की तरह मैं मंडप से बाहर आया था!

रात ढल चुकी थी पर अभी भोर होने में बहुत देर थी। लेकिन मैं थकान से चूर-चूर हुआ अब उबासियां लेने लगा था। जैसे जीवन का उत्कृष्ट पल पीछे छूट गया था और अब मैं फिर से एक नए बियाबान में आ गया था – मुझे महसूस हुआ था!

लेकिन नहीं! मैं तो एक इंद्र लोक से चलकर दूसरे चंद्र लोक में चला आया था!

चांदनी रात खनक रही थी। बजते चिकाड़े की धुन ने मेरे हारे थके मन को जगा दिया था। चांदनी में नहाया धोया सरोवर किसी अलौकिक कल्पना का कारण बना खड़ा था। बीचो-बीच में बने मंच पर दो गायक ढोला-मारू का राग सुना रहे थे। दोनों दिव्य लग रहे थे .. जम रहे थे! जो नायक था – उसकी बड़ी-बड़ी झब्बेदार काली मूंछों का तेहा अलग था और उसकी धारदार आवाज श्रोताओं को सम्मोहित किये थी!

“तुम्हारे बिन मैं जी न पाऊंगा मेरी प्रीत!” वह ढोला का संवाद बोल रहा था। कितना असरदार था ये संवाद – मैं सुन कर दंग रह गया था। जैसे साक्षात ढोला ही हम सबके सामने आ खड़ा हुआ था और अपनी प्रेमिका को अपने अजस्र प्रेम का प्रमाण दे रहा था।

“कहती हो तो मैं तुम्हें ले भागूं?” वह अपनी प्रेयसी से पूछ रहा था।

अब उसका दूसरा साथी हरकत में आ गया था और उसने मारू का पक्ष संभाला था।

“चलो! भागते हैं प्रियवर!” मारू का स्वीकार था।

चित्रवत बैठे श्रोताओं की जैसे नींद खुली थी। मारू के स्वीकार को सुनकर सब चौंके थे और एक बारगी पागलों की तरह तालियां बजाने लगे थे .. दो अमर प्रेमियों को आशीर्वाद देने लगे थे और उनके चिर मिलन की कामनाएं कर उठे थे!

और .. और वो बड़ी झबरीली मूंछों वाला नायक अपने उस साथी को साथ लेकर भाग रहा था! ढोला-मारू अब दर्शकों के सामने कल्पित ऊंट पर बैठे भागे जा रहे थे! फिर से तालियां बजने लगी थीं और उनका प्रसंग पूरा हो गया था!

मैं खड़ा-खड़ा सोच रहा था – केसर को सराह रहा था और उसके साथ संवाद भी बोल रहा था। चांदनी फीकी पड़ रही थी। दिन निकलने को था। लेकिन मैं उस गुजरती रात के साथ ही जी लेना चाहता था .. और मैं न चाहता था कि वो दृश्य समाप्त हो जाए! लेकिन .. लेकिन मेरा वश था कितना? सूरज ने तो निकलना ही था!

मैं गहरी नींद में सो कर उठा था। अचानक ही मुझे मंच पर ढोला-मारू गाते उन दो आदमियों की जोड़ी नजर आई थी। न जाने क्यों मुझे लगा था कि मैं और कादिर उस मंच पर आकर अपना वजीर और बादशाह का नाटक खेलने लगे थे। हमारी जोड़ी भारत विजय करने के लिए जंग कर रही थी। मोर्चे मार रही थी और हमें कोई रोक न पा रहा था ..

लेकिन न जाने क्यों अचानक ही एक प्रश्न चिन्ह आकर मेरे सामने खड़ा हो गया था! और कमाल ये था कि कादिर ही वह प्रश्न चिन्ह था!

“कुंवर सा!” एक युवक ने मेरा ध्यान बांटा था। “हम क्या .. दिल्ली आपकी सेवा में ..?” वह मुझे पूछ रहा था।

मैंने उस युवक को गौर से देखा था। विकट सामर्थ्य का धनी लगा था वह। मैंने फिर उसे पास बिठा लिया था। मैंने उसे पूछा था तो पाया था कि वह अच्छा घुड़सवार था और तलवार के हाथ भी निकालता था। न जाने क्यों मेरा मन द्रवित हो उठा था और मैंने उसे दिल्ली आने का निमंत्रण दे दिया था।

दो दिन बारात केसर की ढाणी में रुकी थी।

विदा का वक्त आ गया था। गुरु जी ने ही छेता निकाला था। केसर को सात दिन हमारे यहां रहने के बाद वापस केसर की ढाणी आना था। अब मैं गुरु जी से लड़ना चाहता था। मैं उनसे कहना चाहता था कि अब शादी होने के बाद ..?

“जरूरी है!” गुरु जी स्वयं ही बताने लगे थे। “केसर को मौका मिलेगा कि .. तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के बारे अपने घर आकर बताए! वो हंस गये थे।

दहेज में धन-माल और जेवर-जवाहरात के अलावा पांच हाथी और पंद्रह ऊंट भी मिले थे। एक शोर था केसर की शादी का। शेख शामी तो इस शोर को सुनकर दहला गये थे। उन्हें एक बार फिर एहसास हुआ था कि हिन्दुस्तान का धन-माल तो अभी भी हिन्दुओं के पास ही था! मुसलमान तो रीती-थोती तेग बजाते ही फिर रहे थे। अभी भी हिन्दुओं का कुछ न बिगाड़ पाये थे – हमलावर!

“तू तो महाराजा बन गया रे?” कादिर कह रहा था। मैंने कादिर के बुझे-बुझे चेहरे को पढ़ा था। वह न जाने किस निराशा में डुबा था। “हमें तो साले बिहारियों ने लूट लिया!” वह अपनी शादी का जिक्र करने लगा था। “मानेगा हेमू! सालों ने कच्चे सरसों के तेल में बासी गोश्त भून-भून कर हमें खिलाया था! इत्ते कमीने हैं कि ..” उसके मुंह का जायका बिगड़ा हुआ था। “यह दावत!” वह तनिक सहज हुआ था। “खुदा कसम जन्नत है तेरी ससुराल!”

और सजे-बजे हाथी पर केसर के साथ बैठा मैं आज भिन्न प्रकार से प्रसन्न था! कारण – मैंने अपने अभीष्ट केसर को पा लिया था!

“तू तो महाराजा बन गया रे!” मैं फिर से कादिर की आवाजें सुन कर सतर्क हो गया था!

कादिर – न जाने क्यों एक कांटे की तरह मेरे मन में जा चुभा था!

मेजर कृपाल वर्मा
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