इन गर्म हवा
के थपेड़ों में
मन ठंडक की
चाह नहीं करता
अरे! तुम
गर्म हवा संग
कभी इधर
गईं कभी
उधर गईं
मन तुम्हें
ढूंढता भागता
रहता
शरद ऋतु से
उड़ान भर
तुम उड़ीं
चलीं
तुम उड़ीं
चलीं
दो शरद ऋतु पार
कर माँ
अब इन
लुओँ में
तुम आ
खड़ीं
तुम
आ खड़ीं
खड़ीं तो मेरे
द्वार पर
हो तुम
बस! दिखती
नहीं! दिखती
नहीं
इतनी तपिश
में मुस्कुरा
रहीं तुम
बस! दिखती
नहीं
दिखती नहीं
माँ..!!
तुम्हें खोकर
इन गर्म हवा
के थपेड़ों
में मन अब
ठंडक की चाह
नहीं करता
जानती हूँ
माँ!
मेरे द्वार
पर तुम
यहीं खड़ीं
या वहाँ
खड़ीं
कहीं इस
बार तुम्हें
देखने में
चूक न
कर बैठूँ
इसलिये मैं
इस गर्म
हवा में
तुम्हारा इंतज़ार
करने खड़ी
गर्म हवा के
इन्हीं थपेड़ों
में तुम्हें
ढूंढ़ता
मेरा मन
अब ठंडक
की चाह
नहीं करता।