बहुत बुरा वक्त था। घाटी में तब अब्दुल्लाओं का राज था। हमारा तो वहॉं रहना मात्र एक औपचारिकता थी। अगर मुसलमानों का कुत्ता भी सड़क दुर्घटना में मर जाता था – तो पुलिस तहकीकात करती और दोश सेना पर लगता था। और फिर दिल्ली से तुरंत ही फोन आता था – अरे भाई बना कर रक्खो इन लोगों से ..
और अब हमारे तीन सैनिकों की लाश हम उठा लाए थे तो ..?
उनके तो घी के दीपक जल रहे थे! ये होली दीवाली थी उनकी। ईद रमजान का मौसम था – हमारा मातम मनाना और हमारी जानें जाना उनके लिए आजादी का आना था!
जी हॉं! हम हर प्रकार से उनके लिए दुश्मन थे। वाे लोग हमें हिन्दुस्तान का मानते थे। हमारी दुआ सलाम भी नहीं लेते थे। हम से हद दर्जे की नफरत करते थे। जबकि हमें आदेश थे कि हम उन लोगों के साथ मेल मिलाप कायम करें। उनका दिल जीतें। उनके साथ हेल-मेल बढ़ाएं। उनकी मदद करें। और उन्हें खुश रक्खें।
मुझे याद है कि मेंढर में जनरल सुरेंद्र सिंह के साथ हम इनके एक समारोह में भाई-चारा स्थापित करने गए थे और इन्हें खुश करने के लिए तोहफे भी साथ ले गए थे। और जब सुरेंद्र सिंह माइक ले कर सद्भावना संदेश देने उठे थे तो गुलाम कादिर – स्थानीय नेता, ने उनके हाथ से माइक छीन लिया था और स्वयं बोलने लगा था – इन लोगों का क्या हक है – हमारे मुल्क में आने का? कश्मीर हिन्दुस्तान का हिस्सा नहीं अलग है! फिर ये लोग क्यों घुस आए हैं? हमारी तमीज, तहजीब और कश्मीरियत हमारी अपनी है – अलग है! हमें आजादी चाहिए .. और इंशा अल्लाह हम आजादी ले कर रहेंगे! – वह कहता रहा था। खूब तालियां बजी थीं। और हम वहां से चुप-चाप बिना इन की चाय पिए निराश उदास चले आए थे!
तनिक सी कहा-सुनी पर भी हमारे खिलाफ दिल्ली तक फोन खड़क जाते थे। हमारी कोई सुनवाई नहीं थी। हम इन्हें खुश करने में लगे थे – और ये पाकिस्तान को खुश करने में लगे थे!
पिकिटों पर हम और पाकिस्तानी सैनिक आमने-सामने डटे थे!
विभाजन रेखा हम दोनों के बीच में लक्ष्मण रेखा थी – जिसका हम दोनों ही उल्लंघन नहीं कर सकते थे। हमारे बीच पानी लेने का चश्मा शामिल था। बीच के खेत खलिहान किसी के नहीं थे। दोनों की निगरानी के नीचे – प्रदेश का चप्पा-चप्पा आता था। छोटी-मोटी कहा-सुनी पर बातचीत होती रहती थी और साथ ही साथ कुछ प्यार और सौहार्द भी चलता ही रहता था!
“आ जाइए वर्मा साहब – रात को मुशायरे में?” कैप्टन अशरफ ने मुझे न्योता दिया था। “बानो बेगम को सुनोगे तो ..”
मेरे मन ने तो निमंत्रण ओट लिया था। बानो बेगम का कलाम उन दिनों मशहूर हो चुका था। लेकिन तभी इतिहास ने मुझे लिखित तख्ती दिखाई थी – आंखें दे कर पाकिस्तान की जेल में जा बैठोगे पृथ्वी राज! और मैं सतर्क हो गया था। कहां जा पाया था मुजरे में?
और फिर अशरफ ने ही एक दिन पाकीजा फिल्म के रिकार्ड की मांग की थी तो मैंने मान ली थी। रिकार्ड लेते वक्त उधर से भी कराची का हल्वा आया था तो मुझे बेहद अच्छा लगा था! लेकिन इस सद्भाव और सौहार्द के केवल हम ही कायल थे – वो नहीं! मौका पाते ही वो हमें मार गिराते थे – और हमारी तो शिकायत भी अकारथ चली जाती थी!
“साहब!” सुबेदार पान सिंह की आवाज भर्राई हुई थी। वह क्या कहना चाहते थे मैं भी जानता था। लेकिन मैं सुन कर भी क्या करता? “हम फायर क्यों नहीं खोल सकते?” उनका प्रश्न था।
मन तो मेरा भी था कि पूरा फायर खोल दें और आज ही इसी पल पूरे पाकिस्तान को तबाहो बर्बाद कर दें लेकिन ..
“फ्लेग मीटिंग की तैयारी करो साहब!” मैंने आदेश दिया था।
कारण – पूरी रात माथा-पच्ची करने के बाद भी मुझे कहा गया था कि मैं उनसे पता करूं कि ये हादसा हुआ कैसे?
हमारी फ्लेग मीटिंग हुई थी। उनका कंपनी कमांडर कैप्टन अशरफ आया था। मैंने तनिक सी राहत महसूस की थी। शायद अशरफ कोई माकूल उत्तर देगा मुझे उम्मीद थी। हालांकि आज का माहोल अलग था लेकिन फिर भी अशरफ मुझे कहीं से बुरा न लगता था!
“हमारे तीन सैनिक ..?” मैंने रुंधे कंठ से जैसे शिकायत की थी अशरफ से।
“वो क्या है, वर्मा साहब!” अशरफ की आवाज में एक अलग खनक थी आज। “लड़कों से गलती से ट्रिगर दब गया!” अशरफ का उत्तर था – जिस में कोई माफी नामा शामिल न था। उसके चेहरे पर अलग से एक नूर धरा था – जो मेरी आंखों में खटक गया था।
“यार ये भी कोई बात हुई ..?” मैं उखड़ आया था। “कल को हमारा भी गलती से ट्रिगर दब गया तो?” मैंने उसे प्रश्न पूछ लिया था।
“वो तो नहीं होगा वर्मा साहब!” मुसकराया था – अशरफ। “आप तो खस्सी गवरमेंट के मुलाजिम हो! दिल्ली से पूछना होगा आपको तो ..?” वह हंस पड़ा था।
और अशरफ के साथ आई उसकी पूरी प्लाटून खूब हंसी थी!
हम सब चुप थे। हम सब क्रोधित थे। हम सब लाचार थे। हमारे हाथ पैर बंधे हुए थे। और उस दिन पाकिस्तान ने खुल कर हिन्दुस्तान का मखौल उड़ाया था! मेरे कंधे पर स्टेन गन लटकी थी। उस में पूरी बत्तीस गोलियां भरी थीं। और मेरा निशाना भी अचूक था – मैं यह जानता था। लेकिन हाथ न उठाने की अपनी मजबूरी को शायद उस दिन पहली बार मैंने महसूस किया था!
खून के घूंट पी कर हम सब आहत मन लिए लौट आए थे!
“कहते हैं – गलती से ट्रिगर दब गया!” जनरल सुरेंद्र सिंह को मैं बता रहा था। पूरे डिवीजन के अफसर जमा थे। मामला गंभीर था। सब के चेहरों पर तनाव था। “और जब मैंने कहा कि ..” मैंने ठहर कर अपनी जमात को घूरा था। “अगर हम से भी गलती से ट्रिगर दब गया तो?” मैं चुप था। एक सन्नाटा भरा था कांफ्रेंस रूम में। एक जिज्ञासा थी – उनके उत्तर को जानने की। “आप तो खस्सी गवरमेंट के मुलाजिम हैं वर्मा साहब! आपसे नहीं होगा!” कैप्टन अशरफ ने कहा है। “दिल्ली से पूछना होगा आपको – उनका मत है!” मैं बौखला गया था। “और सर! अगर कल को मेरे ही सैनिकों ने मुझे गोली मार दी तो ..?”
हवा गरम हो गई थी। घाटी में तनाव भर आया था। चारों ओर चर्चा थी। हमें रोश था – पर उन्हें खुशी थी। जैसे उन्हें आज ही आजादी मिल गई थी – ऐसा माहोल बन आया था।
और एक हम थे कि अभी तक तीन सैनिकों की लाशों पर बैठे थे! मेरी आंखों के सामने से नाइक वीरभान, लांसनाइक सत्यवीर और सिपाही अमन राम के चेहरे गुजर रहे थे और पूछ रहे थे – हम फायर क्यों नहीं खोल सकते साहब जी?
“सर हम फायर क्यों नहीं खोल सकते?” मैं गर्जा था। मैं बौरा गया था।
“गो अहैड वर्मा!” जनरल सुरेंद्र सिंह ने कहा था और उठ गये थे!
पुरवा का झोंका कहीं से भाग कर मुझे छू गया था!
शाम घिर आई थी। सूरज अस्ताचल में चला जा रहा था। पंछी घोंसलों में लौट रहे थे। तनिक सा अंधेरा होने को था। और मैं दूर बीन लगा कर देख रहा था कि वो लोग चश्मे पर मरे पड़े सैनिकों की लाशें गिन रहे थे। सात तक तो मैंने भी गिना था फिर मुड़ कर तालियां बजाते अपने सैनिकों को देखा था। रात को पलटन में जश्न भी मना था – मुझे याद है!
लेकिन घाटी में उस दिन मातम मना था!
“पापा! हमारे वर्मा सर बहुत जीवट वाले हैं!” कैप्टन धर ने अपनी ससुराल जम्मू में बैठे अपने ससुर साहब जस्टिस भट्ट साहब को बताने लगे थे। “इन्होंने ..”
“एक बात बताऊं वर्मा साहब!” जस्टिस भट्ट साहब कहने लगे थे। “शायद आप नहीं जानते कि हमारे संबंध मुसलमानों से कितने गहरे हैं?” उन्होंने मुझे उलाहना जैसा दिया था। “दे आर एनी डे बेटर दैन सीक्स! उनका कहना था।
जो बाद में उनके साथ हुआ उसका तो उनको भान तक न था! और सच भी था कि किसी को विश्वास ही न था कि कश्मीर से कभी तीन सौ सत्तर हट जाएगी और पैंतीस ए भी जाएगी! कहीं गहरे में हर कोई मान बैठा था कि ये लोग आजादी पा जाएंगे और एक दिन हम लोग अपना बदना-बोइया उठा कर चलते बनेंगे! लेकिन हमें तो तब तक खड़े रहना था जब तक ..
और हम अब तक खड़े रहे जब तक तीन सौ सत्तर और पैंतीस ए उठ न गए!
एक आश्चर्य ही हुआ है .. अनहोनी घटी है .. और वो हुआ है जो कभी असंभव लगता था!
आज मुझे भी अपना सीना छप्पन इंच का हुआ लगता है – मैं आपसे सच कहता हूँ!

