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रजिया भाग 55

रज़िया, Razia

सोफी ने पानी भरती मां सा को चुपके से, दबे पांव पास आ कर बाँहों में भर लिया था।

मां सा को बमकते, चिल्लाते और ललकारते सभी नीमो की ढाणी के लोगों ने देखा था। सब ठठा कर हंस रहे थे। अचानक ही राहुल को सामने आया देख मां सा की समझ में खेल आ गया था। वह अपने शरारती बेटे को खूब पहचानती थी। और सोफी ..

“सच में आज मेरी आंख लहक रही थी। तीन बार मुझे हिचकिया आई थीं। सोचती रही – कौन आएगा? मैं तो सोच ही नहीं पाई कि तुम दोनों ..”

“मेरी भी आंख लहकी थी मां .. कि ..” राहुल हंस रहा था।

“तू तो आज मार खाएगा।” टूट के पड़ी थी मां सा राहुल पर। “तू बता तो सकता था कि ..”

“हवाई जहाज में ऊपर लटका था मां सा।” राहुल मस्ती के मूड में था। “आप तो जानती हैं कि ..”

“हमेशा कुछ ऐसा करता है कि मैं ..” मां सा प्रेम में विभोर थीं। “अब अमरीका जा कर भी नहीं सुधरा तो मैं क्या करूं?” उन्होंने सोफी को देख उलाहना दिया था।

नीमो की ढाणी में जैसे बहार लौटी हो – सभी नर नारी देखने चले आए थे।

“शादी कर ली ..?” लोग बारी-बारी पूछ रहे थे।

“बिन ब्याही को संग ले के थोड़ा भागे-फिरेगा?” लोग स्वयं ही उत्तर दे रहे थे।

सोफी और राहुल ने लोगों के प्रश्नों के उत्तर में मात्र एक दूसरे को देखा भर था। दोनों के बीच में आ खड़े हुए जालिम को वो दोनों ही देख पा रहे थे। लोग नहीं।

“पहले मैं जाऊंगा, तुम नहीं।” राहुल ने सोफी के पहले जाने पर टांग अड़ा दी थी। “मैं जब बुलाऊं, तुम तब आना लखनऊ।” राहुल ने आदेश दिए थे।

“राहुल! आई एम नॉट योर पर्सनल प्रोपर्टी।” सोफी भी भिड़ गई थी। “मुझे बुलाया है, मैं जाऊंगी।”

“लेकिन मैं बिन बुलाए जाऊंगा।” राहुल की जिद थी। “मैं बुलाऊं तब आना तुम। इस लखनऊ को मैं ज्यादा जानता हूँ, सोफी।”

राहुल अकेला ही लखनऊ चला गया था।

मां सा के साथ अकेली रह गई सोफी को एक भिन्न प्रकार की प्रसन्नता हुई थी। वो राहुल की आभारी हो गई थी।

दो औरतों को एक साथ रहने का एकांत मिल जाए तो समझो कि भक्त भगवान से आ मिला। एक औरत दूसरी औरत का मर्म पहचानती है। दोनों का सच्चा सहेला हो जाता है। दोनों के बीच कोई कैसा भी भेदभाव नहीं रहता। सहोदरों जैसा स्नेह उनके बीच हर पल डोलता रहता है।

“जब तक शादी नहीं करोगी, प्रेम रंग नहीं चढ़ेगा।” मां सा सोफी को समझा रही थीं। “शादी के बाद ही औरत का काया कल्प होता है सोफी। मैं मायके से चल कर ससुराल तक पहुंची थी तो बिलकुल ही बदल गई थी। अब मैं बाबुल की न रह कर साजन की हो गई थी। मैं एक पूर्ण और परिपक्व औरत बन गई थी।” मां सा अपना अनुभव बताती रही थीं।

“मैं तो अपने डैडी की बेटी हूँ मां सा।” सोफी ने तनिक लजाते हुए कहा था। “मेरी मां हम दोनों को अकेला छोड़ चली गई थी। फिर डैडी जंग लड़ने चले गए तो मैं निपट अकेली रह गई।” सोफी की आवाज डूबने लगी थी।

बिन मां की बेटी थी – सोफी, आज मां सा ने पहली बार पहचाना था।

सोफी अपने डैडी की बेटी थी तो राहुल भी अपनी मां का बेटा था। राहुल ने तो अपने बप्पा का मुंह तक नहीं देखा। अगर राहुल पेट में न होता तो वो भी सती हो जाती – अवश्य ही उनके साथ ही स्वाहा हो जाती। संतान को अगर मां बाप दोनों का प्यार न मिले तो वो प्यासे ही रहते हैं, जब तक कि उन्हें जीवन साथी नहीं मिल जाता।

राहुल और सोफी दोनों ही प्यासे थे।

“मां सा!” सोफी मां सा के सर पर आ कर खड़ी हो गई थी। “मैं आज आपकी गोद में बैठ कर देखूंगी।” सोफी की मांग थी।

सिहर उठी थीं – मां सा। वो सोफी की मांग का महत्व जानती थीं।

“क्यों री ..?” मां सा ने तनिक प्रसन्न होते हुए पूछा था।

“मैंने मां की गोद का कभी आनंद लिया ही नहीं, इसलिए ..”

मां सा हैरान थीं। क्या कहीं ऐसी मांएँ भी होती हैं जहां उनके बच्चे उनकी गोद में बैठने के लिए तरस जाते हैं?

बरनी राहुल काे आया देख नाराज था।

उसका मन था कि राहुल काे फटकारे और भगा दे। उसे राहुल बिलकुल पसंद नहीं था। साेफी के साथ जाे राहुल का हेल-मेल था – बरनी उसे बिलकुल पसंद नहीं करता था। राहुल काे वाे दाे काैड़ी का आदमी कहता था। लेकिन सर राॅजर्स ने न जाने क्याें उसे सर पर बिठाया हुआ था।

“साेफी कहाँ है?” बरनी की आवाज में राेष था।

“मुझे क्या पता।” राहुल ने भी उसी तरह का रूखा सूखा उत्तर दिया था।

बरनी पहले से ही राेष में था। अब बरनी भीतर से भी उबाल खा गया था। बरनी चाहता था कि राहुल काे काॅलर से पकड़े और ..

“लव अफेयर जासूसी के लिए जहर हाेता है।” बरनी ने राहुल पर ताैहमत लगाई थी।

“लव अफेयर जासूस की जेब में पड़ी हर ताले की कुंजी हाेती है।” राहुल ने कहा था और वह हंस गया था।

क्या करे बरनी, कुछ समझ न आ रहा था। उस हलीम-शलीम राहुल काे वह किसी तरह भी उठा कर फेंक नहीं सकता था।

“मेरी गलती क्या है?” बरनी ने चिल्लाते हुए राहुल से पूछा था।

“यू आर प्लेइंग राैंग फुट फर्स्ट।” राहुल ने सीधा उत्तर दिया था।

“कैसे?”

“साेफी – जाे हमारा सबसे अहम कार्ड है, तुम उसे सबसे पहले फेंक रहे हाे।” राहुल ने गलती बताई थी। “साेफी गई ताे सब बह जाएगा।”

“मंसूर अली ..”

“कितना जानते हाे तुम मंसूर अली काे?”

बरनी चुप था। राहुल की बात में दम था।

“तुम्हारे हाथ में दाे साॅफ्ट कार्ड भी ताे हैं। मैं और मूडी। पहले साॅफ्ट कार्ड खेलाे। अंत में ट्रंप कार्ड साेफी काे उजागर करना।”

“मैं .. मैं ..।” बरनी अभी भी नाराज था। वह राहुल जैसे अदना आदमी की सलाह पर काम न करना चाहता था। “तुम .. तुम ..” बरनी कुछ कह न पा रहा था। “तुम ही संभालाे सब।” अंत में वाे बाेला था। “मैं ताे चला।”

राहुल विचिलित न था। वह जानता था कि ये माेर्चा बरनी के बस में फतह करना न था। यहाँ लैरी काे ही हाेना चाहिए था।

शाम काे मंसूर अली, अली बाबा बाग में बिंदा के साथ घूमने आया था। उसे उम्मीद थी कि आज नई ऐक्ट्रेस लखनऊ पहुंचनी थी। बिंदा भी प्रसन्न थी। वह भी नई ऐक्ट्रेस से मिलना चाहती थी। मन्टाे के बारे में नई ऐक्ट्रेस से चर्चा करने का उसका मन था।

“आप की वाे ऐक्ट्रेस आनी थी। आई ..?” मंसूर अली ने राहुल से प्रश्न पूछा था।

“नहीं।” राहुल ने चलता-फिरता उत्तर दिया था।

“और वाे बरनी साहब?”

“चले गए।”

“क्याें? क्या हुआ?”

“पैसा।” राहुल ने सहज उत्तर दिया था। “फाइनेंस का बंदाे हाेना है। ऐक्ट्रेस काे मुंह माँगा चाहिए। ये लाेग बड़ी नखरे वाली हाेती हैं जनाब।” राहुल ने मंसूर अली काे खेल समझाया था।

“अगर पैसे की बात न बनी ताे?”

“ताे जिसके साथ बात बनेगी वाे आएगी।” राहुल मुसकुराया था। “आप क्याें टेंशन ले रहे हैं?” राहुल पूछ बैठा था।

“नहीं-नहीं। मेरा ताे कुछ नहीं है भाई। हमारी बेगम साहिबा ऐक्ट्रेस से मिलना चाहती थीं।”

“मिला देंगे।” राहुल ने वायदा किया था। “उन्हें आने ताे दाे।” वह हंस पड़ा था।

मंसूर अली बिंदा बेगम के साथ आज की शाम खाली हाथ लाैट गए थे।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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