सुबह की फ्लाइट से माइक मास्काे पहुँचा था। सबसे पहला काम उसने किया था – अपना नया नाम राेज ग्रांट रखा लिया था। इस अभियान के लिए ये उसका नया अवतार था।
पहली बार उसने मास्काे शहर काे देखा था। उसे याद हाे आया था कि कभी मास्काे साेवियत संघ की राजधानी थी। साेवियत संघ जब टूटा था ताे पूरी दुरी दुनिया में एक अर्राटा हुआ था। एक मिथ थी जाे मर गई थी। और ये अपराध कहते हैं कि अमरीका ने किया था।
और आज अमेरिका के टूटने का नम्बर भी आ गया था। जालिम का जन्म शायद इसलिए हुआ था कि वाे फिर से दुनिया का तख्ता पलट दे।
दुनिया और देशाें में हाेती उथल-पुथल रुकती नहीं है। इसी रूस में 1917 में खूनी क्रांति हुई थी। गरीबी से तंग आ कर लाेगाें ने अमीराें का कत्ल कर डाला था। चीन में भी वही हुआ था। हां, भारत में खून खराबा नहीं हुआ था। लेकिन विभाजन ताे हुआ था। लाेगाें की जानें गई थीं, धन माल भी लुटा था और अमेरिका? काेई अछूता नहीं बचा था। दाे विश्व युद्ध लड़ने के बाद अब तीसरे की तैयारी थी।
इस बीमारी की जड़ कहां है?
“जल तरंग में जा कर देखाे।” माइक काे स्वयं से ही उत्तर मिला था।
सहसा माइक काे याद आया था कि उसे जल तरंग जा कर अपना पास भी ताे बनवाना था। बिना पास के अधिवेशन में प्रवेश नहीं था – उसने पता कर लिया था।
जल तरंग एक नई बस्ती जैसा बसा संस्थान था, जहाँ एक भिन्न प्रकार की गहमा-गहमी थी। अलग ही एक उमंग थी, जाे लाेगाें के चेहराें पर दर्ज थी। उनकी बात-चीत में भी अलग उल्लास था। पूछ-ताछ पर भी काेई प्रतिबंध नहीं था। नए सूर्याेदय के आगमन पर सभी नमस्कार करने काे तैयार थे। जालिम ही था जिसे अब उदय हाेना था – माइक का अनुमान था।
“आप ..?” माइक के मुंह खाेलते ही उस पर प्रश्नाें की बाैछार हुई थी।
माइक भी इस जंग के लिए तैयार था। उसने साथ लाया एलबम दिखाया था। उसने अपना नया नाम राेज ग्रांट बताया था और उसने बताया था कि वाे गरीबाें का मसीहा और अमीराें का काल था। वाे किसी भी प्रकार से थर्ड वर्ल्ड की मुसीबताें का अंत ला देना चाहता था। उसे गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और अभावाें से लड़ता दुनिया का आधा आदमी अजीज था।
माइक के परिचय ने एक नई खुशी की लहर काे जन्म दिया था। जैसे उनका काेई हिमायती वहां आ पहुँचा हाे, उन्हें ऐसा अहसास हुआ था। माइक के आगत-स्वागत में अब शीश झुके थे, आदर और आऒजी मिली थी, और आनन-फानन में उसका प्रवेश पत्र भी मिल गया था।
पुरानी दुनिया काे नए मालिक के स्वागत के लिए इकट्ठा हाेते देख माइक की हंसी छूट गई थी। लाेग एक और नया प्रयाेग देखना चाहते थे। उन्हें जालिम के साेने के सिक्के चाहिए थे। उन्हें नए मालिक से पूरी-पूरी उम्मीद थी कि वाे सब के दुख दर्द मिटा देगा। उसके राज में सर्व सुख हाेगा और साेने की हुंडियाें की बरसात हाेगी।
पंछी दाना देख रहे थे पर फंदे की ऒर उनका ध्यान नहीं था।
जालिम ने पहले ही जगत काे ग्यारह हिस्साें में बांटा था। उसका एक बेटा, या एक बेटी, एक-एक हिस्से का स्वामी बनेगा – ये भी तय था। परिवार वाद में देने का विधान ताे लिखा ही नहीं हाेता। पूंजीवाद फिर भी बहुत कुछ लेता-देता है। समाजवाद भी कुछ रू-रिआयत कर देता है। जनतंत्र में भी सब बांट खाते हैं। लेकिन परिवारवाद ताे ..
“नहीं-नहीं। जालिम का परिवारवाद ताे न आए ताे ही अच्छा है।” माइक ने अपना निर्णय दिया था।
माइक ने पता किया था ताे निश्चय किया था कि उसे ब्लाडी बाेस्टक तक का सफर ट्रेन से ही करना हाेगा। पूरे रूस काे नाप कर ट्रेन ने ब्लाडी बाेस्टक पहुंचना था। माइक काे इस बीच सब कुछ देखना और समझना था।
दुनिया सतरंगी है – माइक ने विहंस कर महसूस किया था। अलग-अलग प्रदेश, अलग-अलग लाेग, अलग-अलग रंग रूप, भाषा, आचार-विचार और रीति-रिवाज और परम्पराएं सब के सब अनेक हाेते हुए भी एक थे। और भारत में कहा जाने वाला वसुधैव कुटम्बकम ही शायद सच था। बंटवारे बना कर रहना ताे व्यर्थ था। और इस मतांतर के कारण ही भेद-भाव पैदा हाेते थे और युद्ध लड़े जाते थे।
और जालिम जैसे खलनायक ताे जन्म लेते ही रहते थे। और इन्हें जीत कर भी लड़ाई का अंत ताे नहीं आता था। माइक ने अब सर राॅजर्स का आदेश ही मान लिया था।
बरनी लखनऊ पहुंच गया था।
अली बाबा बाग में बने परी लोक ने बरनी को खुश कर दिया था। बगीचे में लगे दशहरी आम के पेड़ों पर बौर फूटा था। बौर की खुशबू ने सारे आस पास में महकारें भरे दी थीं। बरनी के लिए ये एक नया और अनमोल अनुभव था। वह बड़ी देर तक बगीचे में टहलता रहा था और उस महकते आस पास का आनंद उठाता रहा था।
“आप फिल्म मन्टो बना रहे हैं न?” बरनी से एक अपरिचित आदमी ने प्रश्न पूछा था तो वह बमक पड़ा था।
“और आप मंसूर अली ..?” बरनी ताड़ गया था कि ये आदमी मंसूर अली ही हो सकता था।
“जी-जी। खूब पहचाना आपने।” हंसते हुए मंसूर अली बोला था। “क्या है कि मेरी वाइफ माने कि बिंदा को फिल्मों का बड़ा शौक है। और मन्टो की तो वो फैन है। उसने पीएचडी भी मन्टो पर ही किया था। हाहाहा .. आप हैरान रह जाएंगे जनाब ..?”
“मौमी।” बरनी ने अपना फरजी नाम बताया था।
“हां तो मौमी साहब। आज शाम की दावत बिंदा की हवेली पर।” मंसूर अली ने निमंत्रण दिया था। “निराश न करें प्लीज।” उसने प्रार्थना की थी।
“नहीं-नहीं। हम जरूर आएंगे।” बरनी मान गया था।
“मैं गाड़ी भेज दूंगा। आप को कोई तकलीफ न होगी।” मंसूर अली ने वायदा किया था।
मंसूर अली के जाने के बाद बरनी बड़ी देर तक मन्टो के बारे ही सोचता रहा था। उसे खुशी थी कि लैरी ने बड़ा ही सही नाम चुना था।
बिंदा की हवेली नई पुरानी दो तहजीबों का संगम जैसा था।
पुरानी नवाबी की ठसक अभी तक लखनऊ की हर पुरानी हवेली की चौखट पर बैठी थी। लेकिन भीतर का सारा का सारा हालचाल अंग्रेजी था। पुराने जर्जर हुए शरीर में जैसे नई आत्मा आ कर बैठ गई हो – ऐसा लगा था बरनी को। भारत बदल गया था – अब बरनी मान गया था।
“बिंदा। माई वाइफ।” मंसूर अली ने बरनी का परिचय कराया था।
सामने खड़ी बिंदा को देख बरनी बेहोश होने को था।
जो उसने सुना था वह आज सामने था। बिंदा हर मायनों में असाधारण थी। बरनी ने तो कभी कल्पना ही न की थी कि उसकी मुलाकात आज उसके अभीष्ट से हो जाएगी। बिंदा तो बिलकुल वही थी जिसकी बरनी को तलाश थी।
“आप मन्टो पर फिल्म बना रहे हैं यह जान कर मैं ..” बिंदा ने जब जुबान खोली थी तो बरनी को सुखद पुरवइया चलता दिख गया था। “मैं मन्टो की फैन हूँ। मैंने पीएचडी भी मन्टो पर की है।” बिंदा ने बताया था। “काश! वो पाकिस्तान न जाते तो यहां लोग उनकी आरती उतारते।” बिंदा ने विहंस कर बताया था।
बिंदा की हंसी ने फिर एक बार बरनी के होश उड़ा दिए थे।
बिंदा की सी हंसी, बिंदा की तहजीब और तमीज, बिंदा की असरदार आवाज और उर्दू का उच्चारण बरनी को भा गया था। बिंदा का चंचल नयनाभिराम तो था भी गजब। आंखों से किसी को बोलते बरनी ने पहली बार देखा था।
“सोफी शुड पिक अप ऐवरी इंच ऑफ बिंदा।” बरनी ने निश्चय किया था। “आइडियल।” उसने मन में सोचा था। “पागल हो जाएगा साला जालिम रजिया का जलवा देख कर।” बरनी का मानना था।
“वो कब आ रही हैं – आप की एक्ट्रेस?” बिंदा पूछना न भूली थी।
“ऐनी डे।” बरनी ने यूं ही कह दिया था। “आप ने देखे नहीं इन लोगों के नखरे।” बरनी ने शिकायत की थी। “मिलाएंगे आप से।” बरनी ने वायदा किया था।
“आई विल बी ग्रेटफुल।” बिंदा ने जान मान कर संवाद को अंग्रेजी में बोला था। वह बरनी को हुक तोड़ कर जाने देना न चाहती थी।
लौटते हुए बरनी बेहद प्रसन्न था। करोड़ों का काम कौड़ियों में हो गया था।
“बिन मांगे भी मुराद मिल जाती है – कभी-कभी।” कह कर बरनी खूब हंसा था।
बिंदा का हुस्न भी बरनी की आंखों में उतर आया था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड