“अंगूठी बरामद हुई है। हुर्रे ..!” रस्टी शोर मचा रहा है। “लैट्स सैलीब्रेट भाई!” वह कूद फांद जैसा कुछ कर रहा है। “अवर फर्स्ट सक्सैस!” वह प्रसन्न हो कर कहता है। “भाई! मैं तो कहूंगा कि इट्स ए ग्रेट-ग्रेट गुड लक। अब तो हम अंधकार में ही डोल रहे थे।” वह मुड़ कर हम सब को घूरता है।
“राष्ट्रपति आज पहली बार नाश्ता करेंगे।” बरनी भी बहुत प्रसन्न है। “बॉस की भी जान में जान आई है – अब आ कर! बेचारा दिन गिनने लगा था।” वह व्यंग करता है। “क्या साली नौकरी है, यार।” वह हंसता है। “जुर्म वो करें – उसकी सजा हम भुगतें।” वह मुंह बिचकाता है।
मैं भी प्रसन्न हूँ। बरामद हुई अंगूठी न जाने कैसे दौड़ कर मेरे जहन में आ बैठी है। मैं उस अंगूठी को छू-छू कर देखती हूँ। फिर मानसिक तौर पर मैं उसका चित्र बनाती हूँ। उसे शकिया नजरों से घूर कुछ पूछ लेना चाहती हूँ।
“अंगूठी हीरे की है।” लैरी अपनी जानकारी दे रहा है। “बेश कीमती है।” वह आश्चर्य में आंखें नचाता है। “किसी स्त्री ने उसे दी होगी, और जरूर ही ये इंगेजमैंट रिंग होगी।” अब वह मुझे घूर रहा है। मैं खबरदार हो जाती हूँ। “जरूर ही कोई प्रेम प्रीत का लफड़ा होगा।” वह हंस जाता है।
और मैं दौड़ कर जानी ग्रिप से जा लिपटती हूँ। मैं उसकी लाश को अब छू-छू कर देखती हूँ। मैं देख लेना चाहती हूँ कि कहां-कहां, कब-कब और कैसे उस प्रस्तावित स्त्री ने जानी ग्रिप को घाव दिए होंगे। कैसे मारा होगा उसे? कितना तड़पाया होगा उसे? क्यों .. और क्यों तड़पाया होगा उसने जानी ग्रिप को?
क्यों होता है ऐसा? प्रेमी भी एक दूसरे के दुश्मन कैसे बन जाते हैं?
फिर न जाने क्यों जानी ग्रिप का चेहरा मेरी आंखों के सामने नाचने लगता है।
वो लालची चेहरा जिसे मैंने फ्रांस में देखा था मेरे पास आ कर बोलने लगता है। जानी ग्रिप की कमजोरी थी – कोई भी सुंदर लड़की। मुझे देख कर भी तो उसकी लार टपकी थी। मुझे भी तो फंसा रहा था – अपने जाल में। क्या होता – दो चार गीत गा कर? कैसे हो जाता सारे देश और समाज का ऐका? नॉनसेंस ..! गुमराह करता था लड़कियों को ये आदमी। अपनी एक इमेज बना कर वह ..
“स्त्री और जालिम?” एक विचार मेरे दिमाग में कौंध जाता है। “सुंदर लड़की और जालिम?” मैं फिर इस विचार को दोहराती हूँ। लेकिन मेरा दिमाग बमक जाता है।
“हो ही नहीं सकता ..!” मैं सरे आम कह देती हूँ। “जालिम और इस स्त्री का कोई कनैक्शन हो ही नहीं सकता। हम व्यर्थ में मोद मना रहे हैं, बरनी साहब।” मैं सपाट स्वर में एक साथ सब कुछ कह गई हूँ।
अब सब मेरी ओर देख रहे हैं। मुझे ही घूर रहे हैं। मैं नई जो हूँ। सब से कम उम्र की एक अधेड़ लड़की हूँ। अभी भी सब मुझे अबोध ही मानते हैं। मैं अभी भी कहीं से बहुत कच्ची हूँ। बॉस भी यह सब जानते हैं।
“ये सब भ्रामक है। मिसलीडिंग ऐवीडेंस है।” मैं अपने मत की घोषणा कर ही देती हूँ।
रस्टी मेरी बगल में आ कर खड़ा हो गया है। वह मंद-मंद मुसकुरा रहा है।
“बैठता है जी .. यह सबूत बिलकुल सही बैठता है।” वह सधे स्वर में कहता है। “तुम क्या सोचती हो – जालिम जंग में अकेला है?” वह मेरी आंखों में झांकता है। “असंभव!” वह हाथ फेंक कर अपने मत की पुष्टि करता है। ” सत्ता चलाने के लिए सत्ते पंजे तो चाहिए ही। कोई छोटा मोटा क्रिमिनल ही क्यों न सही बिना पैरों के तो वह भी नहीं चलता।” वह मुझे अब घूरता है। “अकेले चने ने कब भांड़ फोड़ा है – बताओ?” वह मेरे सामने तन कर खड़ा हो जाता है।
“फिर मैं अकेली इस भांडे को फोड़ने का प्रयत्न क्यों कर रही हूँ?” प्रश्न मेरे दिमाग में घूम जाता है। जालिम की तो टीम है, उसका तो तंत्र है और उसका तो वैभव है। हां-हां। जरूर ही होगा उसका वैभव। वैभव बनाने की होड़ ही तो आदमी को अंधे रास्तों पर ले जाती है। क्योंकि उसे तो सब कुछ चाहिए, अपने लिए चाहिए और अपनी ही शर्तों पर चाहिए।
“जानी ग्रिप इसी खेल में तो मरा।” अचानक मैं एक अपराध पर उंगली धरती हूँ। “औरत ही सही – उसे तो चाहिए थी। और वह भी उसकी अपनी शर्तों पर। अब औरत कोई अंगूठी तो नहीं, जो बेजुबान हो, हृदय हीन हो और जिसे पहन कर भूल जाया जाए?” मैं जानी ग्रिप को एक गुनहगार साबित कर देती हूँ।
“तुम्हारा चहेता रॉबर्ट भी तो यही कोशिश करता है?” मेरा मन आज बिदक कर मेरे ही सामने आ खड़ा हुआ है। मेरा ही प्रेमी रॉबर्ट अब तर्क के तराजू पर तुलने के लिए तैयार हो गया है। “वह भी तो तुम्हें – सोफिया रीड अपने लिए सुरक्षित कर लेना चाहता है?” यह बात भी स्पष्ट है।
मैं इसी बात को आज कान से पकड़ कर अपने पास बिठा लेती हूँ।
मैं – सोफिया रीड किसी और की जायदाद बन कर नहीं जीना चाहती हूँ। मैं तो चाहती हूँ कि अपनी एक अलग से छवि बना लूं। मैं सोफिया रीड के नाम से ही जानी जाने वाली अलग औरत बनना चाहती हूँ। जिसका कोई अपना ही विगत हो और अपना ही कोई वजूद हो।
तुम रूस क्यों नहीं चली जाती, सोफी?” बरनी ने मेरे सामने सुझाव रक्खा है। “बॉस ने कहा है तो कोई न कोई तो जाएगा ही।” वह सूचना जाहिर करता है। “कहो तो मैं तुम्हारा नाम प्रपोज कर दूं?” वह मुझसे मेरी राय पूछता है।
मैं अब उल्लसित हूँ। मैं रूस जाने के लिए अचानक ही आतुर हो उठी हूँ। मुझे तो जालिम के पीछे जाने की न जाने क्यों जल्दी है। मैं तो चाहती हूँ कि इस जालिम के मसले को पल छिन में सुलझा लूं और अपनी जीत के नगाड़े बजा कर – सोफिया रीड जिंदाबाद के नारे लगवा दूं।
लेकिन सपने इतनी जल्दी साकार कब होते हैं – यह तो मैं भी जानती हूँ।
“करना क्या होगा, सर?” मैं पलट कर बरनी से प्रश्न पूछती हूँ।
बरनी मुझे घूरता है। जैसे वह मुझे नाप रहा हो। मैं अभी अनाड़ी तो हूँ ही। बिलकुल नई हूँ। शायद रूस गई भी तो यह मेरी पहली ही असाइनमैंट होगी। मैं चाहती भी हूँ कि इस तरह के असाइनमैंट पर जाना आरंभ कर दूं। आदमी काम करते-करते ही तो सीखता है।
“अंगूठी ..!” बरनी बोला है। “एक ही क्लू तो है हमारे पास।” वह मुझे फिर से घूरता है। “कन्फर्म करना होगा कि क्या कहीं किसी भी रूप में उस अंगूठी से जालिम का नाम जुड़ा है? और अगर जुड़ा है तो रूस में वह कहां है? और अगर है तो ..?”
मेरे दिमाग में भी एक साथ कई विचार घूम जाते हैं। जालिम एक न रह कर अब अचानक ही अनेक बन जाता है। किसी केंकड1े की तरह मुझे जालिम का शरीर तंतुओं से बना लगता है। जालिम की जड़ें, जालिम के हाथ, जालिम के पैर और जालिम की आंखें, मुझे अलग-अलग नजर आने लगती हैं।
“लेकिन उसका दिमाग कहां है?” मैं अपने आप से ही प्रश्न पूछती हूँ। “मुझे तो सबसे पहले जालिम का दिमाग ढूंढना होगा।” मैं अपने आप को जरूरी काम सोंपती हूं। “क्या जालिम का दिमाग रूस में होगा?” मैं प्रश्न अपने आप से कर बैठती हूँ।
“यह तो बहुत छोटा काम है, सर।” लैरी ने बरनी को घूरा है। “चींटी को मारने के लिए बंदूक की क्या जरूरत है?” वह जोरों से हंस पड़ता है। “मूडी को भेज देते हैं।” वह सुझाव सामने रख देता है।
मैं लैरी को देखती ही रह जाती हूँ।