“मानस!” मग्गू ने कठिनाई से नाम ले कर अपने इकलौते बेटे को पुकारा था। घोर निराशा ने उसे चहुं ओर से घेर लिया था।
फिर मग्गू को एहसास हुआ था कि मानस तो लंदन में था। वो तो अपनी फिल्म बना रहा था। उसे चुनावों से कोई लगाव न था। वह बीमार था – उसे तो इस बात की खबर तक न थी।
“बबलू!” फिर मग्गू ने दूसरा नाम लिया था। इस बार उसकी आवाज में एक हारी हुई ललकार थी। वह बबलू को मुकाबले के लिए बुला तो रहा था लेकिन … “मैं हारूंगा नहीं” मग्गू ने एक ललकार को कठिनाई से जन्म दिया था।
सच तो यही था कि जब से बबलू ने विलोचन शास्त्री का चुनावी जुलूस निकाला था, तभी से मग्गू के होंसले पस्त हो गए थे। चार किलोमीटर लंबा जुलूस था। चुनावी नारे गूंजे थे। चुनावी वायदे हुए थे। जीत का डंका बजा था। शक्ति प्रदर्शन का अनूठा खेल था। मग्गू को एहसास हुआ था कि विलोचन शास्त्री इस बार जीतेगा जरूर। उसने जनता के लिए कुछ किया कब था? वह तो … वह तो … मानस …
“बेटे के मोह में तुम भी मरोगे मग्गू!” कोई उसके कान में कह रहा था।
मग्गू ने हथियार की तरह स्वामी अनेकानंद की – की भविष्यवाणी को दोहराया था।
“हनुमान जी आपके सदा सहाय हैं।” मग्गू स्वामी जी को सुन रहा था। “आप सी एम बनेंगे … आप पी एम बनेंगे।” स्वामी जी की धारदार आवाज उसके कानों में गूंजती ही रही थी।
लेकिन … लेकिन आज तो मग्गू का डर उस पर हावी होता ही जा रहा था। लग रहा था बबलू – विलोचन शास्त्री का भतीजा मग्गू की छाती पर आ बैठा था और मूंग दल रहा था। अब कोई उपाय न था मग्गू के पास जो बबलू को उठा फेंकता।
और विलोचन शास्त्री? एक बेबाक वक्ता थे – विलोचन शास्त्री। उनकी कथनी और करनी में दम था। समाज में उनकी प्रतिष्ठा थी। लोग उनके अनुयाई थे। जबकि उसका तो अब भाई चारा भी टूट गया था। चुनाव जीतने के बाद उसने अपनों को बहुत दूर बिठा दिया था। अब …
घोर निराशा रह-रह कर लौट आती थी। कहीं कोई उपाय न नजर आ रहा था मग्गू को। बार-बार मानस ही उसे याद आता था। लेकिन वह उसका नाम लेकर उसे पुकार भी नहीं पा रहा था। वह जानता था कि मानस …
“और किसे पुकारूं?” मग्गू ने करवट बदल कर स्वयं से प्रश्न पूछा था।
“हनुमान जी का ध्यान करो।” उसे उत्तर मिला था। “संकट मोचन हैं। स्वामी जी ने तभी तो सोंपा है, हनुमान जी को। नाम जपो।”
और विवश मग्गू ने आंखें बंद कर जुबान पर हनुमान जी का नाम उच्चारण करना आरंभ किया था।
“साहब। कल्लू आया है।” तभी दरबान ने मग्गू को सूचना दी थी।
एक चमचमाती आशा किरण अंधेरे को काट मग्गू के दिमाग को आलोकित कर गई थी। वह अचानक जी उठा था। मात्र कल्लू के नाम ने ही उसे जीवित कर दिया था।
“बुलाओ।” मग्गू बिस्तर में उठ कर बैठ गया था। “हनुमान जी का भेजा दूत है कल्लू।” उसने तनिक मुसकुराने का प्रयत्न किया था। “अब मेरी जीत निश्चित है।” उसने मान लिया था।
कल्लू कमरे के भीतर घुसा था तो भरी बीमार बयार ने उसका माथा सेक दिया था। बिस्तर में बैठे बीमार मग्गू को देख कल्लू को हर्ष हुआ था।
“अब करेगा काम।” कल्लू ने मन में मंत्र की तरह अपनी सफलता का जाप किया था।
मग्गू यार दबे का था – कल्लू जानता था।
“चुनाव सर पर हैं कल्लू। तैयारी है नहीं।” मग्गू ने सही अवसर पा अपनी शिकायत दर्ज की थी। “मानस लंदन में फिल्म बना रहा है। और मैं बीमार पड़ा हूँ।” गमगीन स्वर था मग्गू का। “अच्छा किया तुम आ गए।” उसने थोड़ा मुसकुराने का प्रयत्न किया था।
कल्लू ने मग्गू को खोजी निगाहों से निहारा था। वास्तव में ही विवश था मग्गू – उसका अनुमान था।
“क्यों …? तुम्हारे लोग … ये पूरा मच्छी टोला मर गया क्या?” कल्लू की आवाज में रोष था।
“नाराज हैं।” मग्गू ने स्पष्ट कहा था। “इस बार साथ नहीं देंगे।” रुआंसा हो आया था मग्गू। “अब क्या करूं?” मग्गू की आंखें भर आई थीं।
“उठो और लड़ो।” कल्लू ने सीधा विकल्प बताया था। “लड़े बिन कारज नहीं बनते मग्गू।” कल्लू का स्वर कठोर था।
कमरे में चुप्पी लौट आई थी। मग्गू और भी उदास हो गया था। उसमें उठ कर लड़ने की इच्छा शेष न थी। वह तो पूरी तरह से परास्त हो चुका था। और अब लौट कर आई अकेली आशा किरन को यों निराश करते पा मग्गू का हिया भर आया था।
“यार! तुम कुछ करो न?” मग्गू ने हिम्मत जुटा कर कल्लू से अनुरोध किया था। “रच दो कोई प्रपंच।”
कल्लू मन ही मन मुसकुराया था। मग्गू अब ठीक लाइन पर था। उसने ताड़ लिया था। यही मौका था प्रहार करने का – कल्लू की समझ में आ गया था।
“मैं … मैं लड़ा तो इस विलोचन शास्त्री को डुबो दूंगा।” कल्लू ने अभिमान के साथ कहा था। “तुम तो मुझे जानते हो। इसे न घर का छोड़ूंगा न घाट का।” हंसा था तनिक सा कल्लू।
चाय आ गई थी। कल्लू का मन प्रसन्न हो गया था। दोनों मित्रों ने बड़े ही मनोभाव से चाय पी थी। मग्गू तनिक सा जी गया था।
“अरे हां।” कल्लू को जैसे कुछ याद हो आया था। “वो जो मच्छी टोला की ग्राम समाज की जगह है न! वो बारह एकड़। हिरन गोठी वाली …”
“हां है। पड़ी है।” मग्गू ने सर हिलाया था।
“गुरु को चाहिए।” कल्लू ने मांग सामने रख दी थी। “वो क्या है कि … जन कल्याण आश्रम की स्थापना होनी है। उसी के लिए कहा है गुरु ने।” कल्लू ने पूरा केस सामने रख दिया था।
मग्गू पर हुई प्रतिक्रिया से कल्लू को लगा था कि काम बनेगा नहीं।
मग्गू को एक जोरदार धक्का लगा था। हिरन गोठी की बारह एकड़ जमीन पर तो मानस अपना फिल्म स्टूडियो बनाने का वचन ले चुका था। मग्गू धर्म संकट में फस गया था। अगर हिरन गोठी की जमीन जन कल्याण के लिए चली गई तो …
“सोचना क्या है मग्गू?” कल्लू ने उसका सोच तोड़ा था। “जन कल्याण के लिए – जनता की जमीन जाएगी तो किसी को क्या कष्ट होगा?” हंसा था कल्लू। “इसमें तुम्हारा क्या जाता है?” उसने मग्गू का मन टटोला था। “चुनाव जीतने के बाद तो तुम्हारे पौ बारह होंगे दोस्त।” कल्लू ने मग्गू की जांघ पर थपकी दी थी। “स्वामी जी को पट्टे पर जमीन दोगे तो क्या स्वामी जी चुनाव में मदद न करेंगे?” कल्लू हंस रहा था।
जैसे मग्गू को कुछ भूला याद हो आया था – उसने मुड़ कर कल्लू को घूरा था। स्वामी जी के पास विलोचन शास्त्री भी तो आशीर्वाद लेने आया था – मग्गू को याद आ गया था। क्या आशीर्वाद दिया होगा स्वामी ने मग्गू को यह जानने की जिज्ञासा हुई थी।
“शास्त्री को स्वामी जी ने क्या आशीर्वाद दिया कल्लू?” मग्गू ने सीधे-सीधे प्रश्न पूछा था।
कल्लू ने यों पैंतरा बदलते मग्गू को पहचान लिया था।
“पूछ कर बताऊंगा दोस्त।” कल्लू ने हंस कर मग्गू का वार बचा दिया था। “पटवारी से कह कर इस जमीन का पट्टा जन कल्याण आश्रम के नाम करा दो। चुनाव से पहले ही इसे निपटा दो मग्गू।” कल्लू का आग्रह था। “तुम चुनावों की चिंता छोड़ो। मैं हूँ, स्वामी जी हैं और … गुरु …”
मरता क्या न करता – मग्गू की वही स्थिति थी।
हिरन गोठी की बारह एकड़ जमीन का पट्टा जन कल्याण आश्रम के नाम लिखवा कर मग्गू ने चुनाव जीतना ज्यादा श्रेयस्कर माना था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

