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स्वामी अनेकानंद भाग 36

Swami Anekanand

राम लाल की अगली स्कीम तैयार थी।

“बहुत हुआ होटल में कल्लू।” राम लाल ने कल्लू को चेताया था। “इससे पहले कि हमें ये मग्गू यहां से धक्के मार कर निकाले, हमें …”

“चौड़े में कहां जाएंगे गुरु?” कल्लू ने चिंता जाहिर की थी। “बंबई शहर में तो सर छुपाने तक के लिए जगह नहीं है।”

“जगह है।” राम लाल मुसकुराया था। “मैंने खोज ली है जगह।” उसने हामी भरी थी। “तूने मग्गू से कह कर बानक बनाना है बस।”

“अभी तो वह चुनाव में बिजी है।” कल्लू ने मजबूरी बताई थी। “मुझे भी होश नहीं है गुरु। किसी तरह से इसे जिताना तो होगा ही। जुलुस देखा था बबलू का। बड़ा जोर है इस बार विरोधियों का। पता नहीं …”

“तभी तो।” खुलकर हंसा था राम लाल। “अभी … इस वक्त मग्गू तुम जो चाहोगे करेगा। चुनाव जीतने के बाद तो …?” राम लाल ने खतरे की ओर उंगली उठाई थी।

कल्लू की भी बात समझ में आ गई थी। वह मग्गू को अंदर बाहर से जानता था। मग्गू मतलब का यार था।

“करना क्या होगा गुरु?” कल्लू मान गया था।

“वो जो ग्राम समाज की जमीन है न? 12 ऐकड़ हिरन गोठी के पास जन कल्याण आश्रम के लिए ले लेते हैं।” राम लाल का सुझाव था। “मौके का प्लॉट है कल्लू। सड़क है, पानी है, बिजली है और नजारा भी बड़ा ही मोहक है। अभी तक किसी की नजर नहीं पड़ी है कल्लू, नहीं तो …”

“लेकिन गुरु। इतनी जमीन का हम क्या करेंगे?” कल्लू समझ न पा रहा था।

“पागल।” राम लाल प्यार से बोला था। “जन कल्याण आश्रम का ओर छोर कहीं बारह ऐकड़ से कम जगह में समाएगा भला?” उसने कल्लू की नींद खोल दी थी। “इस बार बड़ा खेला करते हैं। अपनी जमीन … अपना आश्रम और अपना …”

“मजा आ जाएगा गुरु।” कल्लू खुश था। “साला जी उठेगा हिरन गोठी।” उसने मान लिया था। “लेकिन गुरु …?”

“तू बात कर कि हमें ये प्लॉट पट्टे पर मिल जाए, जन कल्याण के लिए। ग्राम समाज की जमीन है और जन कल्याण को दी जा रही है। कोई नहीं बोलेगा।”

“समझ गया गुरु। करता हूँ बात। कोई पट्टी तो पढ़ानी ही होगी इस साले को। ये भी तो बड़ा ही चंट है। काबू तभी आता है जब कुंडी फस जाए। हाहाहा।” कल्लू हंस रहा था। “बबलू का डर तो है इसे। मैंने देख लिया है। बिना तिकड़म के ये इस बार भी न जीतेगा।”

“तो लगा दे अपनी तिकड़म। पहले …” राम लाल ने कल्लू के हाथ पर हाथ दे मारा था।

“निकलते हैं होटल से बाहर कल्लू।” राम लाल ने बात पक्की कर दी थी।

कल्लू के दिमाग में बबलू और उसका मार्च करता काफिला चल पड़ा था।

अजेय सेना थी बबलू की, कल्लू ये जानता था। और वह जानता था कि मग्गू से लोग खुश न थे। मग्गू ने किसी के लिए कुछ नहीं किया था। और अपना ही घर भरा था – यह तो सर्व विदित था। भेद कहां डाला जाए – कल्लू समझने का प्रयास कर रहा था।

“पहले गुरु का काम करो।” कल्लू के दिमाग ने सीख दी थी। “दबाव में है अभी मग्गू। कर देगा काम।” कल्लू को विश्वास था।

मग्गू ने जब से बबलू का जुलुस और विलोचन शास्त्री का रूप स्वरूप देखा था तभी से चारपाई पकड़ ली थी। उसे अब कल्लू पर भी भरोसा न था। उठते उस उन्माद से लड़ने की सामर्थ्य कल्लू की कहां थी।

“मानस भी साथ नहीं आएगा।” मग्गू को दूसरी निराशा ने आ घेरा था। उसे बुरा लग था। मानस कभी भी उसकी मदद न कर अपने ही राग बिराग में उलझा रहता था।

“ऐसे बेटे का क्या फायदा?” मग्गू ने मन मसोस कर मुंह फेर लिया था।

विलोचन शास्त्री को स्वामी अनेकानंद ने क्या आशीर्वाद दिया था – इसकी कोई चर्चा न थी। जबकि माधव मोची को दिया आशीर्वाद अखबारों तक में छपा था।

कल्लू भी इस घटना से अनभिज्ञ न था। आज जब मग्गू उसे फिर याद आया था तो विलोचन शास्त्री भी सामने दुश्मन की तरह आ खड़ा हुआ था। उसे शक हुआ था कि कहीं आनंद ने उसे आशीर्वाद तो न दे दिया था। आनंद अभी अनाड़ी था, कच्चा था और दुनियादारी के हिसाब से अभी भी बच्चा था।

आनंद विश्राम और भोजन के समय कमरे में आए कल्लू को देख चौंका था।

आनंद को अच्छा न लगा था। इन पलों में आनंद एकांत चाहने लगा था। उसे इन पलों में लोगों की बताई व्यथाओं से असंपृक्त होने में वक्त लगता था। कैसी-कैसी व्याधाओं में जा फंसते थे लोग – आनंद हैरान रह जाता था। वो जो भी झूठ सच बताता था, जो भी गोली गंडा करता था उस पर मनन भी करता था। वह अपने मिशन में कहीं ईमानदार था।

“क्या दिया विलोचन को?” कल्लू ने सीधा प्रश्न दागा था।

“गणेश जी।” आनंद ने भी सीधा उत्तर दिया था। आनंद को आभास था कि कल्लू इस बारे पूछेगा जरूर।

“और क्या कहा?” कल्लू का दूसरा प्रश्न था।

आनंद की आंखों के सामने विलोचन शास्त्री का धुला मंजा व्यक्तित्व आ खड़ा हुआ था।

“वो जो मुझे नहीं कहना चाहिए था।” आनंद ने सकुचाते हुए कहा था। “लेकिन … लेकिन तुम्हारा आदेश जो था। इसलिए …”

“क्या मतलब?”

“मैं नमक हरामी न करना चाहता था।” आनंद ने सीधा बयान किया था। “इसलिए मुझसे वो पाप हो गया।”

“कैसा पाप?”

“मैंने विलोचन शास्त्री को श्राप दे दिया।”

“कैसा श्राप?”

“मैंने कह दिया – कह दिया कि तुम्हारा कोई बहुत अपना तुम्हारे साथ विश्वास घात करेगा। सावधान रहें।”

“इससे क्या हुआ?” कल्लू झल्ला गया था। उसे लगा था जैसे आनंद उसे बना रहा था।

“यह कि विलोचन के मन में शंका बैठ जाएगी। यही शंका उगेगी और बड़ी हो कर अविश्वास में बदल जाएगी।”

“तो क्या होगा?”

“सर्वनाश।” आनंद ने धीमे से कहा था। “संशय आत्मा विनश्यति।” आनंद ने अपनी बात की पुष्टि की थी।

कल्लू कई लंबे पलों तक आनंद को देखता ही रहा था।

“यही होना चाहिए आनंद बाबू।” कल्लू का कंठ गीला हो आया था। “आप नहीं जानते कि जब मैं उजड़ा था तो मेरी आत्मा तक दरक गई थी। मैं मुन्नी को सच्चा प्यार करता था। और इसने रोती बिलखती मुन्नी की शादी न जाने किस से करा दी थी। महज इसलिए कि मैं नाई था और मुन्नी राय थी।

“मैं समझ सकता हूँ भाई।” आनंद भी भाव विभोर था।

“सड़क पर नंगा पड़ा-पड़ा सो रहता हूँ, जानते हो क्यों? क्यों कि मैं मुन्नी से मुंह मोड़ने की सजा लेता हूँ। न जाने उसका क्या हुआ होगा?” रोने लगा था कल्लू।

दरक गया था आनंद। वह भी जान गया था कि प्रेमियों की कोई जाति नहीं होती।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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