Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

हेम चंद्र विक्रमादित्य भाग पैंतीस

Hemchandra Vikramaditya

हेमू ने अश्वस्थामा की चिंघाड़ सुन ली थी। उसने ऑंख उठा कर महादेव को हंसते हुए भी देख लिया था। वह जानता भी था कि महादेव और अश्वस्थामा उसे गढ़ी गोशाल ले जाने के लिए हाजिर हुए थे। और वह ये भी जानता था कि ..

शाही फरमान – हेमू, सिपहसालार मुराद अफगान के साथ काम संभालेगा और होने वाली धौलपुर की चढ़ाई को खुद सरंजाम देगा – सिकंदर लोधी, बादशाहे हिन्द!

ये खबर नामा पंख लगाकर उड़ा था और फिजा पर फैल गया था!

हेमू चकित था। उसे इतनी जल्दी कुछ हाथ लगने की उम्मीद न थी लेकिन पता नहीं परमात्मा को क्या मंजूर था कि वह एक के बाद दूसरा परवान चढ़ता ही चला जा रहा था। वह चाहता भी रहा था कि सिकंदर लोधी के साथ वह जंग लड़कर देख ले। और आज लग रहा था कि उसकी कामना पूर्ण होने जा रही थी!

“सलाम .. सलाम!” हेमू ने अश्वस्थामा का किया सलाम कबूला था। “प्रणाम!” उसने आदर में झुके महादेव का भी अभिवादन स्वीकार किया था। “छोड़ोगे नहीं मुझे!” प्रसन्न होकर हेमू ने महादेव से पूछा था।

“सौभाग्य से आप मिले हैं, साहब!” महादेव की ऑंखों में अलग से एक चमक थी। “ये मेरा भाग्योदय है – जो आपके साथ ..”

“लेकिन मुझे तो कुछ आता जाता नहीं महादेव!” हेमू ने हंस कर कहा था। “हाथियों की दहाड़ ..? मैंने तो कभी स्वप्न भी नहीं देखा था यार!”

“साक्षात को देखिये साहब!” महादेव चहका था। “आप योद्धा हैं! आप से कुछ भी दूर नहीं है!” उसने सपाट स्वर में कहा था। “हम तो खानदानी महावत हैं। मेरे बापू भी इसी खैमे के थे।” महादेव ने हेमू की ऑंखों में देखा था। “उन्हें महाभारत से लेकर अब तक का सारा हाथियों की लड़ाई का इतिहास याद था!”

“और तुम्हें ..?”

“मैं भी जानता तो हूँ .. लेकिन बापू ..”

“चलें ..?” हेमू ने सामने इंतजार में खड़े अश्वस्थामा को देखा था।

“बिलकुल चलते हैं जनाब!” महादेव ने अश्वस्थामा को इशारा किया था और वह हेमू को बिठाने के लिए बैठ गया था।

गढ़ी गोशाल आज हेमू को नई न लगी थी। लेकिन जो आदमी उसके इंतजार में खड़ा खड़ा सूख रहा था वह उसे बहुत बहुत नया लगा था। वह एक बूढ़ा और वरिष्ठ आदमी था। सैनिक था। चतुर चालाक और प्रतापी सैनिक था – वह। अवश्य ही उसने अनेकों संग्राम जीते होंगे – हेमू ने मान लिया था!

“जनाब!” हेमू ने सामने आते ही उस आदमी की जौहार बजाई थी।

“मैं मुरीद अफगान, सिपहसालार! खुशी हुई आपसे मिलकर!” उसने हंसते हुए कहा था। “होनहार लगते हो, बरखुदार!” मुरीद अफगान की ऑंखें चमक उठी थीं। “सच! कभी जब मैं जवान था तो मैं भी आप जैसा ही .. नौजवान था!” हंस रहा था मुरीद अफगान। “लेकिन आज ..?” वह चुप हो गया था।

“वक्त का आना जाना तो लगा ही रहता है जनाब!” हेमू ने विनम्रता पूर्वक कहा था।

अब दोनों साथ साथ पत्थरों से बने बुर्ज पर बैठे थे। मुरीद अफगान को आज बहुत नया नया लग रहा था। उम्र ही गुजर गई थी – उसकी हिन्दुस्तान आये और अब वह हिन्दुस्तान छोड़कर घर वापस लौटने की सोच रहा था!

“क्यों लौट जाना चाहते हैं आप?” हेमू का सहल सवाल था।

“दिया क्या है मुझे? इनकी तो सल्तनत कायम हो गई। ये तो आज पूरे हिन्दुस्तान को भोगे जा रहे हैं! और मैं सिपहसालार ही रहा ताउम्र!” मुरीद अफगान की आवाज में घोर निराशा थी। ऑंखें भर आई थीं उसकी। “आपकी तरह मैं भी तो सपने लेकर हिन्दुस्तान आया था। लेकिन ..”

हेमू भी चुप हो गया था। वह नहीं चाहता था कि मुरीद अफगान के दर्प को हवा दे। वह नहीं चाहता था कि सिकंदर लोधी के खिलाफ कुछ सुने। उसका उद्देश्य तो सीधा था – सिकंदर लोधी का सिपहसालार बनना!

“मुझे तो कुछ आता जाता नहीं!” एक भोले शिष्य की विनम्रता के साथ हेमू ने मुरीद अफगान के सामने खुलासा जैसा कर दिया था। “आप ..”

मुरीद अफगान की ऑंखें आद्र हो आई थीं। ऐसा विनम्र शिष्य तो उन्होंने पहली बार देखा था। न जाने कितनों ने उनसे हुनर सीखा था .. पर ..

“मैं जब हिन्दुस्तान आ रहा था तो मेरे अब्बा ने एक ही बात मुझे बताई थी – हिम्मते मरदां मददे खुदा!” मुरीद अफगान ने सीधा हेमू की ऑंखों में देखा था। “आदमी में हिम्मत हो तो सामने आया हर कोई हार जाता है, हेमू!” मुरीद अफगान की आवाज हेमू को आकर्षक लगी थी। “बाकी सब तो लड़ने का साज सामान ही होता है – कभी होता है तो कभी होता ही नहीं! आदमी निहत्था भी घिर जाता है। तब तो उसकी हिम्मत ही साथ देती है बेटे!” मुरीद अफगान ने बड़े स्नेह के साथ बेटा कहकर पुकारा था।

क्या ये महाभारत में कहे श्री कृष्ण के वही वाक्य नहीं थे जो उन्होंने अर्जुन से कहे थे? डर – हर आदमी को कायर बना देता है, नपुंसक बना देता है जबकि हिम्मत, हौसला और साहस श्रेष्ठ योद्धा बना देता है!

“मैं तुम्हें क्या सिखाऊंगा – तुम तो बने बनाए सिकंदर हो!” हंसता ही रहा था मुरीद अफगान।

और हेमू क्या कहता? अब वह मात्र भीम के हाथियों को पकड़ पकड़ कर आसमान में फेंके जाने की परिकल्पना के बारे ही सोच रहा था। लेकिन उसके लिए मुरीद अफगान तो बहुत बहुत पराया था!

“हम लोग तो पैदा ही आसमान के नीचे होते हैं!” मुरीद अफगान बता रहा था। “चौड़े में ऑंखें खुलती हैं। फिर .. फिर हिन्दुस्तान जैसे मुल्क की ओर भागते हैं – कुछ खाने कमाने और लूट पाट करने!” मुरीद अफगान अचानक ही कुछ उगलने लगा था। “मैं सच कहता हूँ हेमू!” उसने संभलकर कहा था। “बहलोल – सिकंदर का अब्बा और मेरे अब्बा दोस्त थे। ये दोनों धन माल की खोज में यहॉं भाग आये। और बाद में भी ..” चुप हो गया था मुरीद अफगान।

“आपके अब्बा के पास तो ..?”

“कुछ नहीं था। पंजाब में सरहिन्द का सिपहसालार था – बहलोल!” उसने हाथ फैला कर कहा था। “और .. और” चुपके चुपके हंस रहा था मुरीद अफगान। कुछ था जिसे वो कहने में शरमा रहा था।

“और ..?” हेमू ने पूछ लिया था।

“शादी शुदा हैं आप तो ..?” एक अप्रत्याशित प्रश्न पूछा था मुरीद अफगान ने।

“जी! जी जनाब!” हेमू का विनम्र उत्तर था।

“बहलोल भी क्वारा तो न था लेकिन अम्बा का आशिक था!” जोरों से हंसा था मुरीद अफगान।

“हमारी मॉं भी हिन्दू हैं!” अचानक हेमू ने सिकंदर लोधी की आवाज सुनी थी। शायद मुरीद अफगान उसी प्रसंग की बात कर रहा था – हेमू ने अनुमान लगाया था।

“मुझे उसने ये राज बताया था। क्योंकि वह चाहता था कि मैं अम्बा को पाने में उसकी मदद करूं!” मुस्करा रहा था मुरीद अफगान। “सच में ही अम्बा की सुन्दरता के चर्चे थे। अम्बा का हुस्न कहते थे लाखों में एक था। और सुना था कि अम्बा ..”

“कौन थी?” हेमू ने प्रसंगवश पूछ लिया था।

“सरहिन्द के सोनी थे – बड़े ही जाने माने लोग थे। उनकी बेटी थी अम्बा। और उसे लाना कोई आसान काम न था! चूंकि हिन्दू अपनी बेटी मुसलमान को नहीं देते और मुसलमानों को अछूत मानते हैं! मुसलमानों के हाथ का दिया तो खाते तक नहीं हैं! और मुसलमान ..?” रुका था मुरीद अफगान। उसने फिर से हेमू को देखा था। वो भी तो एक हिन्दू ही था!

“यही बुरा लगता था मुसलमानों को?” हेमू सोचने लगा था।

“क्या हो सकता है मुरीद?” बहलोल ने मुझे हमराज बना कर पूछा था। “मुझे .. मुझे तो अम्बा चाहिये .. हर हाल में”

“लेकिन क्यों?” मैंने उसे पूछा था। “ये जानते हुए भी कि ..?”

“कुछ भी हो मुरीद! तुम नहीं जानते कि यहॉं की औरतें ‘देवियां’ होती हैं। वरदान देती हैं .. श्राप भी देती हैं .. और .. और पतिव्रता होती हैं .. मुरीद!” बहलोल बताता रहा था। “एक बार मुझे अम्बा मिल जाए ..” उसने मुझे तलाशती निगाहों से देखा था। “कहते हैं – मंदिर आती है – शिव गौरी पूजने के लिए .. देवी को मनाने के लिए .. और अगर तुम मदद करो तो ..?”

“जान हाजिर है!” मैंने कहा था और फिर हमने अम्बा को उड़ाने की मुहिम तैयार की थी।

“कैसे चुराया था ..?” हेमू ने सहज भाव से पूछा था।

“मैंने गौरी पूजने के बाद बाँहों में उठा दिया था। मैं उसे लेकर भागा था और बाहर इंतजार करते बहलोल को घोड़े पर पकड़ा दिया था। वह भाग आया था अम्बा को लेकर!” मुरीद अफगान ने फिर से मुझे देखा था। अब वह हंस रहा था। “सच कहता हूँ हेमू बेटे कि मैं .. उस पल को ही न भूल पाया हूँ आज तक – जब मैंने उस देवी को उस दानव को दे दिया था! और मैं .. मैं आज तक ..” ऑंखें नम थीं मुरीद अफगान की। “अछूते बदन की सुगंध .. और अम्बा की मुझे घूरती ऑंखे .. अम्बा का फूल सा बदन?”

“आपके यहॉं भी तो सुंदर स्त्रियां होती हैं न?” हेमू पूछ रहा था।

“पुजारिन तो नहीं होती अम्बा की तरह! बसा दिया न बहलोल का साम्राज्य अम्बा ने?” मुरीद अफगान बताता रहा था। “काश! मैंने अपनी बांहों में आई वो अमानत – अपने पास रख ली होती? अम्बा के बदन की वो छुअन ..”

“केसर के बदन की वो पहली महक ..?” हेमू भी सोच बैठा था!

तभी उसे लगा था कि उसके सर पर किसी ने सोटे से वार किया था। वो उछल पड़ा था!

“क्या हुआ?” मुरीद अफगान ने पूछा था।

“कुछ नहीं!” मैंने कहा था और हंस पड़ा था।

केसर भी चली गई थी!

मेजर कृपाल वर्मा

Exit mobile version