देर रात गए तक आनंद अंग्रेजी में आते समाचार ही सुनता रहा था।
कहीं कुछ समझ आता तो कहीं सब छूट जाता। कहीं सर, तो कहीं पैर। पकड़ में जो आता नहीं – सफाचट्ट चला जाता। पर नीलू के कहे अनुसार आनंद लगातार उस वक्त के आते कंठ स्वरों को पकड़ने का प्रयास करता और एक फिनक में डुब जाता।
और फिर सुबह हुई थी। उसकी प्यारी पुकारती सुबह ने उसे अपने प्रिय पेड़ पौधों के बीच ला खड़ा किया था। उसने आंख उठा कर लाल-लाल फूलों से दहकते सिंबल के वृक्ष को देखा था। उसकी छटा पर वह निसार हो गया था।
“हैल्लो मिस्टर ट्री।” आनंद ने अचानक अंग्रेजी में संबोधन किया था। “यू हैव द ब्यूटीफुल फ्लावर्स बट विदाउट एनी फ्रेगरेंस।” उसने अपने मित्र पेड़ को भी उलाहना दिया था। वास्तव में ही उसे लगा था कि कैसे एक बहुत बड़ा आदमी बहुत बड़ा बदतमीज था।
“फूल हों और वो भी बिना सुगंध के? बेकार!” वो जैसे अपने आप से ही कह रहा था और मुड़ कर बगीचे में हंसते खेलते फूलों से मुखातिब था।
“हैल्लो फ्रेंड्स।” उसने इस बार फूलों को पुकारा था। “यू आर ब्यूटीफुल।” उसने फूलों की प्रशंसा की थी। “टीच मी हाऊ टू बी हैप्पी लाइक यू।” उसने फूलों से आग्रह किया था।
अरे भाई कमाल – आनंद कूदा था। “मैं तो बोल रहा हूँ अंग्रेजी?” उसे अचानक एहसास हुआ था। “यही सब कह सुनाउंगा नीलू को आज।” उसने निर्णय ले लिया था।
“आओ आनंद बाबू।” राम लाल ने पुकारा था। वह अपनी कुर्सी पर आ बैठे थे। “कैसी गुजरी रात?” उनका प्रश्न था।
“स्वामी जी के बारे ही सोचता रहा – समूची रात।” अब आनंद ने राम लाल को आंखों में घूरा था।
“तपस्वियों की जिंदगी श्रेष्ठ होती है।” राम लाल बोला था। “लेकिन मेरे जैसे लोग ..” वह चुप हो गया था, और आनंद को देख रहा था।
“बर्फी?” आनंद ने स्वयं से कहा था और वह हंस पड़ा था।
“मैं जानता हूँ आनंद बाबू कि आप क्यों हंस रहे हैं।” राम लाल गंभीर था। “लेकिन परमात्मा ही हमें पागल बना देता है।” उसका स्वर सपाट था। “लिखा था – मेरी किस्मत में – बर्फी का आना .. और उससे मिलना ..”
“और गृहस्थ बसाना?” आनंद ने पूछ लिया था।
“मेरा ऐसा कोई इरादा न था, आनंद बाबू।” बड़ी ही साफ आवाज थी राम लाल की। “मैं तो उस आनंद में मगन था जो मुझे मुफ्त में मिल रहा था। बर्फी के अंग गदरा गए थे, उसके गाल गुलाबी हो गए थे, उसकी आखों में सपने लौट आए थे और मैं .. मैं उनमें बेसुध हुआ दौड़ रहा था – भाग रहा था। बर्फी मुझे बड़े प्यार से पाल पोस रही थी। बड़े ही दुलार से मुझे बांहों में भर कर सुलाती, फिर खूब खिलाती पिलाती और तन मन से मेरी खातिर करती। और मैं .. मैं हर पल – हर क्षण बर्फी से ही चिपका रहना चाहता था। मैं तो चाहता था कि काम धाम सब बंद कर मैं बर्फी को कहीं ले भागूं और तब जी भर कर उसे ..”
“काम बढ़ गया है।” बर्फी ने ही बताया था। “और भी बढ़ेगा।” उसका अनुमान था।
“तो मुझे क्या लेना-देना भाई।” मैं कह देना चाहता था। “मुझे तो बर्फी चाहिए थी।” मैं हंसा था। “हमारा मिलन ..?” मैंने उसे बांहों में समेटा था। “आज की छुट्टी।” मैंने घोषणा कर दी थी।
“मन नहीं भरता?” लजाते हुए बर्फी ने पूछा था। “कम मिलता है क्या?” उसके गाल गुलाबी हो गए थे।
“बाहर चलते हैं आज घूमने।” मैंने सुझाव रक्खा था। “मन करता है कि तुम्हें कहीं ले उड़ूं।” मैंने अपना इरादा बताया था। “कहीं और ..! किसी दूसरी जगह जाकर हम स्वतंत्र विचरें। मैं और तुम बहती हवा पर तैर-तैर कर किलोलें करें ..”
“बहुत ऊंचा देखते हो?” बर्फी ने कहा था।
“बहुत!” मैंने स्वीकारा था। “चलो दौड़ते हैं साथ-साथ। तेज-तेज दौड़ते हैं। फिर जहां पहुंचें, वही मंजिल।” मैं हंस पड़ा था।
“पा ली मंजिल?” आनंद ने पूछा था।
“नहीं।” राम लाल नाट गया था।
रिक्शा चला गया था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

