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रजिया भाग 12

रज़िया, Razia

“अगर सोफी ने इस बार मेरी बात नहीं मानी अंकल तो ..!” राबर्ट कह रहा था। उस का चेहरा बुझ सा गया था। आंखों में घोर निराशा थी। “तो .. तो .. मैं मर जाऊंगा अंकल!” वह रुआंसा हो आया था। “और .. और मैं यह लिख कर मरूंगा कि मेरी मौत की जिम्मेदार सोफी है।” वह कह कर चुप हो गया था।

सोफी के पिता सर रॉजर्स अब सोफी की नजर से ही रॉबर्ट को देख रहे थे।

नाराज हुआ रॉबर्ट, भावुक हुआ रॉबर्ट उन्हें बिलकुल अपने जैसा ही लगा था। और उनका अपना ही विगत उनके सामने आ खड़ा हुआ था। एक डरावने अनिष्ट की तरह उन्होंने आज फिर से अपने पुराने अनुभव बांचे थे।

एक सुंदर स्त्री का आकर्षण, उसका सहयोग, उसके साथ किया सहवास, उसके साथ किए क्रिया कलाप और भोग संभोग स्त्री के न मिलने के बाद कितना-कितना सताते हैं – यह वह जानते हैं। और अगर वह सुंदर स्त्री धनी हो या कि एक धनवान की बेटी हो, एक विपुल संपत्ती की मालिक हो, मलिका हो – सोफी की मां की तरह तो फिर आदमी उसके दिए प्रेम डंक के जहर से मर कर ही रहता है।

वह भी तो वियतनाम की लड़ाई में मरने ही गए थे। हर कदम पर उन्होंने भी तो मौत ही मांगी थी।

“मरना तो मैं भी चाहता था रॉबर्ट!” उन्होंने एक गहरी उच्छवास छोड़ कर कहा था। “लेकिन मर जाना कौन सा अपने हाथ में होता है!” वह तनिक मुसकुराए थे।

“आप ..? लेकिन आप तो ..” रॉबर्ट उनकी बात समझ नहीं पाया था।

“जो मैं आज हूँ वह मैं तब नहीं था।” वह बताने लगे थे। “मैं भी उसका प्रेमी ही तो था और वह एक धनी बाप की इकलौती बेटी थी। और अब हमारे पास एक बेटी भी थी – सोफी। मैं सोफी को बेहद प्यार करता था।”

“और वो ..?”

“क्या पता। यही तो आदमी नहीं जान पाता है, रॉबर्ट। एक जिद में आ कर, एक जोश में आ कर उसने मुझे डाईवोर्स दे दिया। सोफी को भी मेरे हवाले कर दिया और ..”

“चली गई ..?”

“हां!” वह स्वीकार करते है। “सोफी को हॉस्टल में डाल कर मैं लड़ाई पर चला गया था। एक दुहरी मन: स्थिति मुझ पर हावी थी। सोफी कहती – डैडी मेरे लिए जिओ, तो मेरा मन कहता उसके गम में जान झोंक दो।” वह बहुत गंभीर थे। “जान झोंकने के लिए ही तो मैं वियतनाम की लड़ाई में गया था। और मुझे याद है जब जनवरी 1968 में मैं खेसनाम के मैरीन बेस पर उतरा था तो लोगों ने वैलकम टू हैल कह कर मेरा स्वागत किया था। “वह था भी नरक ही। घने जंगल, मच्छर, जोंक, मैढक, चूहे और छिपकलियां – क्या-क्या बलाएं नहीं थीं वहां। हैजा और मलेरिया तो जैसे मरने के सहज उपाय ही वहां उपलब्ध थे।”

“आप को तो वहां जाना ही नहीं चाहिए था अंकल!” रॉबर्ट तपाक से कहता है। “आप की जगह मैं होता तो ..”

“नहीं रॉबर्ट।” वो रॉबर्ट को अपांग देखते हैं। “समर्थ नागरिक का धर्म राष्ट्र धर्म ही होना चाहिए। राष्ट्रपति जॉनसन का आग्रह था कि हम अमेरिका को एक समृद्ध राष्ट्र बनाने में मदद करें। खेसनाम के मैरीन बेस को किसी हाल में भी हमें बचाने के आदेश थे। हालांकि खबर तो यह थी कि नॉर्थ वियतनाम की सेना के बीस हजार सैनिक हम पर हमला करने वाले थे। फिर भी हमें बेस को खाली करने के आदेश नहीं थे। हमें जम कर लड़ना था। हमें अंत तक लड़ना था और जान पर खेल कर लड़ना था।” वह तनिक ठहरे थे।

“ये लड़ाई-भिड़ाई मेरी तो समझ में ही नहीं आती, अंकल।” एक भोले शिशु की तरह रॉबर्ट कहता है। “इत्ता खून-खराबा? बहुत सारे लोग भी तो मरे होंगे?”

“हां, बेशुमार मौतें हुई थीं।” वह स्वीकारते हैं। “धन जन की जितनी बर्बादी वियतनाम में हुई शायद ही और कहीं हुई होगी।” वह बताते हैं। “रात दिन हमारे सरों पर हमला ही बैठा रहता था। कुल मिला कर 77 दिन तक चला था उस हमले का सिलसिला। इसे सुपर ईगल नाम दिया था – हमने।”

उन्होंने देखा था कि रॉबर्ट बहुत डर सा गया था। उन्हें अच्छा नहीं लगा था। जिस देश की जवानी डर जाए या कि जवानी ढल जाए तो परिणाम अच्छे नहीं निकलते हैं। जवानी को तो अर्राना और अर्राहट कर के टूट पड़ना ही शोभा देता है। रॉबर्ट जैसे युवकों से कोई क्या उम्मीद रख सकता है – वह सोचने लगे थे।

“हमारे होंसले बुलंद थे रॉबर्ट। जब नॉर्थ पॉइंट 881 और साउथ पॉइंट 886 हमारे हाथ से चला गया था तो हमें जच गया था कि दुश्मन अब हमें छोड़ेगा नहीं। उनकी तोपों ने लगातार बमबारी की थी। हमारा सारा जमा अम्यूनीशन भड़क उठा था और उसमें आग लग गई थी। अड़तालीस घंटों की लगी इस आग में हमारा सब कुछ स्वाहा हो गया था। दस हजार गोले जल कर राख हो गए थे।”

“ओह गॉड।” रॉबर्ट उछल सा पड़ा था। “मस्ट बी ए ..”

“हां। भयंकर स्थिति में थे हम। दूसरे ही दिन हमारा जी 130 जहाज उन्होंने मार गिराया था। यह हमारी लाइफ लाइन थी। रोज की 160 टन की सैनिक रसद राशन की खपत को पूरा करता हमारा ये योद्धा जी 130 उन्होंने मार गिराया था। अब वहां कुछ भी सुरक्षित नहीं था। जनरल मैरीलैंड ने तब हैलीकौप्टरों से सप्लाई करने के आदेश दिए थे। लेकिन ..”

“था क्या वहां जिसके लिए आप लोग लड़ रहे थे?” रॉबर्ट प्रश्न पूछता है।

“जिद थी – एक जिद।” वह तनिक नाराज हो कर बताते हैं। “चीन के साथ लगता ये प्रदेश हमारे लिए तो बेकार था। फिर भी ..।”

“मैड ..! इट्स टोटल मैडनैस।” रॉबर्ट तनिक कूदा था। “आई .. जस्ट डिटैस्ट द वॉर।” वह कहता है।

“लेकिन एक सैनिक यह सब नहीं कह सकता, रॉबर्ट।” वह संभलते हैं। “जब हमला आया तो घमासान युद्ध हुआ। लाशें .. लाशें, न अपने का पता न पराए का पता। ऊफ ..! कितना भयंकर था – वह दृश्य।”

“और आप ..?”

“मरा तो नहीं था, पर बंदी बना लिया गया था।” वह फिर से बताते हैं। “जीवन और मौत आदमी के अपने हाथ में होती कहां है, रॉबर्ट।” वह एक दार्शनिक भाव चेहरे पर धर सच बताते हैं। “सात साल तक मैं उनकी कैद में रहा। मैं उन का बन कर रहा। मैंने उन के लिए काम किया और जब उनका विश्वास जीत कर मैं जापान पहुंचा था तो अपनों से आ मिला था।” वह तनिक हंसे थे। “यह भी एक अलग किस्म की लड़ाई है, रॉबर्ट।”

“जैसे कि सोफी भी एक तीसरी किस्म की लड़ाई लड़ने जा रही है?” रॉबर्ट पूछता है।

“हां, बिलकुल उसी तरह। दुश्मन को बेवकूफ बनाना भी तो कम अक्ल का काम नहीं होता।” वह फिर से हंसे थे। “और जब मैं लौटा था रॉबर्ट तो एक अदद सोफी ही मेरे पास थी।”

“और वो ..?”

“गोल्ड हैरीटेज होटलों की मालकिन थी – अपने मन की मलिका थी।”

“डोन्ट टैल मी अंकल कि शी इज मम्मी ऑफ सोफी?”

“यस बेटे। सच तो यही है।”

“फिर तो मैं .. मैं ..!” रॉबर्ट फिर से सकते में आ गया था।

“वर्लड टूर पर ही तो जा रहे हो! तुम्हें कौन सा वियतनाम जाना है जो ..?” सर रॉजर्स फिर से खुल कर हंस पड़े थे।

“यस सर।” रॉबर्ट तनिक स्वस्थ हुआ लगा था। “लैट मी नाओ थिंक अबाउट माई लाइफ।” उसने कहा था। “मे बी! आई आलसो बिकम सर रॉजर्स वन डे।” वह भी हंसने लगा था।

दोनों व्यक्ति अचानक ही खुल कर हंसने लगे थे। लगा था – सुंदर स्त्री के हुस्न का जादू उन दोनों के सर से जाता रहा था।

तीन दिन हो गए थे लेकिन लैरी अभी तक नहीं आया था। सोफी एक गहन चिंता में घुलने लगी थी।

मेजर कृपाल वर्मा (रिटायर्ड)

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