
विचित्र लोक !
आज की उड़ान का आरम्भ ही अलग था !
जैसे किसी प्रेम-हंस के जोड़े ने हवाई जहाज़ को हवा में अधर उठा लिया था और अब उसे पारुल के देश ले चला था ! राजन का तन,मन ,प्राण और प्रज्ञा …सब पारुल-मय थे ! वह एक अजीव-से अतिरेक से भरा था . मात्र पारुल से मिलने की प्रत्याशा ने उसे आंदोलित कर दिया था . बार-बार ….हर बार ….उस के ज़हन में पारुल ही उग-उग कर आ रही थी ….और वह था कि पारुल को ही पकड़ने भाग रहा था ….उस के स्पर्श के लिए उतावला -बाबला हो रहा था …..और उसे आगोश में ले कर …..
“अब …..न जाने दूंगा …..! जान दे दूंगा …….मैं …, योर …ग्रेस …!!”
“मैं तुम से जुदा कहाँ हूँ ….., राजन ! तुम्हारे साथ-साथ ही तो उड़ रही हूँ ….रह रही हूँ ….और ….”
“झूठ …! शादियाँ गुजार दीं ……..दीदार तक नहीं …..! एक …शब्द तक नहीं …..एक नज़र ……और ……”
राजन की नज़र लौटती है . वह अचानक एक नए उन्माद से भरने लगता है . नीचे का पसरा वनानांतर …हरियाली …और विपुल नदियों की जल धाराएं …उसे नए उत्साह से ओत-प्रोत करने लगाती हैं . कलकत्ता के कृत्रिम और जघन्य कार्य कलापों से वह मुक्त हुआ लगा है . लगा है – अब वह किसी और लोक में पहुंचेगा …और ….
यहाँ का आसमान …सूरज , चाँद और सितारे ….सब अलग होंगे ! राजन सोचता है . ये पारुल का देश है ….प्रेमाकुल प्राणियों की बस्ती है . सावित्री का कलकत्ता नहीं है ! यहाँ के लोग , कलकत्ता की तरह के ह्रदयहीन नहीं हैं . यहाँ आ कर वह अलग से एक सम्मान पा लेगा ! यहाँ आ कर वह सेठ धन्ना मल की दी दासता से मुक्त हो जाएगा !!
सावित्री और पारुल ….आज से ….उसे दो अलग-अलग धाराएं जैसी प्रतीत होती हैं . दो बिलकुल भिन्न विचार धाराएं हैं – ये दोनों ! दो अलग-अलग विधाओं की मालकिन हैं . सावित्री को ही ले लो – तो लगता है – बहती पवित्र गंगा है , वह ! जब कि पारुल ….प्रचंड वेग से बहती ….ब्रह्मपुत्र है ….बाढ़ ला देने वाली …कगार खाने वाली …..जल-थल एक कर देने वाली ….ब्रह्मपुत्र ही है , पारुल !! अब देखो …कि किस तरह से आज मात्र पारुल से मिलने की ख़ुशी ने राजन को अधर में टांग दिया है …? वह है …कि उडता ही जा रहा है ….
पारुल से आज बहुत दिनों के बाद भेंट होनी है ….!!
यों तो राजन कभी एक पल के लिए भी पारुल से जुदा नहीं हुआ है ….एक पल भी बिना उसे याद किए नहीं जिया है ….पर हाँ , पारुल के विछोह ने उसे बहुत -बहुत बंधा है ….तोडा है ….उखाड़ा है …और सावित्री की तरह सींचा नहीं है , सुखा दिया है !
“फिर भी दौड़ पारुल को पाने की है ….सावित्री तो …..?”
“हाँ,हाँ ! मैं सब जानता हूँ , मित्र ! लेकिन तुम -जो मैं जानता हूँ ….वो नहीं जानते ! तो सुनो ,पारुल …..प्रेम की जलती ज्वाला का नाम है ….और राजन उस का आशिक है ! अब राजन ….न जीने की परवाह करता है ….न मरने की ! उसे तो उस जलती ज्वाला तक पहुँचाना है ….फिर जो हो – सो हो …!! न राजन को पैसे की दरकार है , …न मान की ….और न ही जान की …! उसे तो बस पारुल को पाना है ….पारुल तक जाना है ….पारुल को ……..
लो आ गया हवाई अड्डा !
एक लंबा -तगड़ा ,बड़ी-बड़ी मूंछों वाला ,नीली वर्दी में सजा-वजा -आदमी अचानक उस के सामने आ खड़ा होता है ! वह एक जोर का सैल्यूट दागता है . राजन उसे अपांग निहारता है .
“कलकत्ता से …..राजन …साहब ….?” उस का प्रश्न आता है .
“हाँ,हाँ ! हाँ , भाई ….!!” राजन कठिनाई से कह पाटा है .
“आइए, श्रीमान !” वह आदमी राजन के हाथ से ब्रीफ केस ले लेता है . “मैं प्रहलाद हूँ .” वह अपना परिचय देता है . “काम-कोटि से ….आप के स्वागत …हेतु …..!”
“ओह…!” राजन सहज हो आता है . “मैं तो सोच ही रहा था ….कि ….”
“हम हवाई अड्डे से ही अपने महमानों को सीधा ले जाते हैं .” प्रहलाद बता रहा था . “अब आप को कोई आपत्ति न होगी ….!” वह हंसा है .
“पर …..पारुल ….क्यों नहीं आई ….?” राजन पूछ लेना चाहता था . लेकिन चुप ही बना रहा था .
प्रहलाद ने पार्किंग में लगी कार नम्बर ००२क का दरवाज़ा खोला है . राजन ने महसूसा है कि वह कार का नंबर रियासत का है . कार और प्रहलाद को ही देख कर राजन ….अनुमान लगा लेता है कि वह ….अब राजे-रजवाड़ों के क़ानून-कायदों के भीतर प्रवेश पा जाएगा . अब उसे पारुल के दीदार सीधे-सीधे न हो पायेंगे ! न जाने कितने -कितने पहरों के बीच से उसे जाना होगा ….न जाने कौन-कौन से कायदे-कानूनों का उसे पालन करना होगा …? और न जाने ….पारुल ….
“बिना सर्वश्व निछावर किए ….तुम पारुल को पा ही नहीं सकते , राजन !” एक आवाज़ आती है .
“सब देदूंगा …! हर्ज़ क्या है …? मिलने तो दो ….पारुल से …..”
प्रहलाद गाड़ी स्टार्ट कर अगला सफ़र आरम्भ करता है .
काम-कोटि की घाटी में जैसे ही कार प्रवेश कराती है …..हवा का जाइका ही बदल जाता है ! राजन को एहसास होता है ….कि जहाँ पारुल रहती है ….वहां परियां पैदा होती हैं …..! और आज वह भी उन परियों के देश में पहुँच जाएगा …आज वह भी जीवन की पहली भव्यता के दर्शन करेगा ….आज वह भी …..पारुल से मिल कर ….अपने उन्माद और प्रमाद से भेट करेगा !
चलती गाडी से राजन आँखें भर-भर कर देखता है – चाय बागानों को …हरियाली के विस्तारों को …और उन के बीचोंबीच लगी फैक्टरियां …उन में काम करते मज़दूर …महिलाएं …और लोल-किलोल करते पंछी और परिंदे !! ऊँची-नीची सड़क पर उतरती-चढ़ती कार …उस का झीलों से परिचय कराती है …और अचानक मानस नदी के आंचल में ला खड़ा करती है ! मंदिर है – भव्य मंदिर ! पूजा करने आईं स्त्रियाँ हैं …और दर्शन करने आए पर्यटक हैं . अनोखा द्रश्य है . भगवान् की पूजा के लिए एक भला-सा एकांत है ! और फिर दर्शन होते हैं ….ब्रह्मपुत्र में मिलती मानस का संगम ! मन -प्राण खिल उठता है – राजन का !
“हे, भगवान् ! हे, इश्वर ……मुझे …..”
“मत मांगो , वरदान !” अजनवी एक आवाज़ राजन को रोकती है . “चूक जाओगे …..! अभी रहष्यों की कुहेलिका को ….पंख तो खोलने दो ….! मिल तो लो ,पारुल से ?”
“सात पर्दों के परे बैठी है ,वो तो ….?” राजन ने शिकायत की है . “बिना प्रयत्न किए अब ….प्राप्त नहीं होगी ! लगता है …..काम-कोटि की महारानी से भेंट करने के लिए ….उसे ….’राजन’ नहीं …..’महाराजन’ बनना होगा !”
कारण है . क्योंकि काम-कोटि अपने में एक सम्पूर्ण इकाई है . काम-कोटि का विगत है ….उस का वर्तमान है ……और उस का भविष्य भी है …! नदिया ही नहीं ….काम-कोटि के मध्य से कई विचार धाराएं भी बह चुकी हैं . बहुत कुछ नया-पुराना हुआ है ….यहाँ ! बहुर सारे लोग आ-जा कर चले गए हैं . बहुत कुछ आया-गया है, यहाँ से !
“तुम भी तो व्यापारी हो ….?”
“हाँ, मैं भी व्यापारी हूँ .” राजन हँसता है . “कुछ खरीदने-बेचने का मेरा भी मन है ! मैं …..यहाँ व्यापार अवश्य ही करूंगा ….मैं ….पारुल से अब नए आयामों में जुडूगा ! मैं …..पारुल ….”
अचानक गाडी रुक जाती है . राजन निगाहें उठा कर देखता है . सामने एक विमोहक द्रश्य आ खड़ा हुआ है . हरी डूब …खिलते फूल ….और लता-गाछों के झुरमुट में …..लुकी -छुपी-सी एक भव्य इमारत है . बेहद …माडर्न …..और आकर्षक उस इमारत के मांथे पर ….उस का नाम लिखा है -‘विचित्र लोक’ …!
“ओह, गॉड !” राजन ने लंबी उच्छ्ववास छोड़ी है . “व्हाट एन आइडिया …?” वह चकित द्रष्टि से पूरे द्रश्य को निहार कर धन्य हुआ लगा है .
“आइये , सर …!” प्रहलाद ने कार का दरवाजा खोला है .
राजन कार से नीचे उतरा है . उसे लगा है – वह आगंतुक नहीं , कोई सम्राट या वैसा ही कुछ है ….जिसे उस के मातहत ..सलाम कर रहे हैं ….झुक-झुक कर उस के आगत-स्वागत में फलों से लदे वृच्छों -से कतारों में खड़े हैं .
दरवान के सैल्यूट के बाद – मैनेगेर रमण ने राजन का स्वागत किया है .
मुख्य हॉल में प्रवेश पाते ही शाही पोशाक में सजे-वजे वेटर ने उसे ट्रे दिखाई . …जिस में हाथ पोंछने के लिए छोटी तौलिया और मुंह पोंछने के लिए छोटा रुमाल रखा है . फिर …..हस्त-प्रक्षालन के बाद …..राजन का सोफे पर बैठना होता है ….और …..गरमा-गरम कांफी का आगमन …….!
“मन मोह लिया , रे !” राजन अपने आप से कहता है . “तुम्हारा ….वो तो खटारा है ,व्वे ….!” राजन कलकत्ता की याद करता है .
“कमरा नंबर ग्यारह …..आप का दौलतखाना होगा, हजूर !” उसे चाबी पकडाता रमण हंसी के बगूले बखेरता है .
‘पारुल कहाँ है , व्वे ….?” राजन का मन हुआ है कि उसे पूछ ले . लेकिन उस ने अपने खिलंदर मन को लगाम दे दी है .
“आपके पंद्रह दिनों का पूरा प्रोग्राम …आप के पास पहुँच जाएगा . अभी आप ……”
“थोडा आराम करूंगा …!” राजन इच्छा जाहिर करता है . वह चाहता है कि …इस नए ठिकाने को तनिक समझ ले .
कमरा नंबर ग्यारह ….अपने आप में एक ….’लोक’ जैसा लगता है , राजन को .
सब कुछ राजन के टेस्ट के लिहाज से सजा-वजा है . सब कुछ निज-का-तिज कुछ इस तरह धरा है ….जैसे अहिल्या को राम के आने का आभास हो ….और वो ….साँस साधे …मूंक पड़ी-पड़ी ….उस स्पर्श का इंतज़ार कर रही हो – जो उसे तुरंत ही जिला देगा …! राजन सब कुछ देखता है ….छूता है ….महसूस करता है ….
हर वस्तु में राजन को पारुल के ही प्राण वसे मिले हैं !
‘साव ! ‘साजन नहीं ….ये महाशय ….’राजन’ हैं !” पारुल के सामने खड़ा रमणीक उसे सूचना देता है .
पारुल अपने हर्षोल्लास को रमणीक पर ज़ाहिर नहीं होने देती . उस के बल्लियों कूदते मन को ….रमणीक नहीं देख पाता ! वह अब भी ज़रा सा सहमा खड़ा रहता है .
“ठीक है ! तुम जाओ !!” पारुल आदेश देती है .”भविष्य में ध्यान रखना कि ….”
“जी, साव …!” कहता हुआ रमणीक भी नजात पा जाता है .
और पारुल ने आज अपना चाहा …स्वर्ग और सर्वश्वा पा लिया है ….!!
………………
श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!
