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तौबा

” ठीक है..! न मास्टरजी! फ़िर किस तरह सिलना है.. और कुरतों में कौन सा डिजाइन रखना है!”।

” जी! बहनजी.. जैसा आपने बोला है! वैसा ही बना देंगें!”।

” कब आ जाऊँ फ़िर मैं ये कपड़े लेने!”।

” आप आ जाना हफ़्ते भर में!”।

” नहीं! नहीं! भईया! थोड़ा जल्दी चाहिये!”।

” तो ठीक है! आपका काम पहले किए देता हूँ.. आप आ जाना दो चार दिन में लेने!”।

” ठीक है”।

दरअसल कुछ कपडे सिलवाने का मन हो रहा था.. सावन का महीना है.. और आने वाले महीने में भी तीज-त्यौहार आ रहे हैं.. सो दर्जी को दे आए थे।

नाप-वाप बढ़िया देकर.. दर्जी को कपड़े सिने दे तो दिए थे.. पर दिमाग़ में ऐसे टेंशन हो रही थी.. जैसे पता नहीं कौन सा टेकनिकल काम होने जा रहा था। आदत बहुत ही ख़राब है.. हमारी बचपन से ही.. आसानी से दर्जी-वरजी का पीछा हम छोड़ते नहीं हैं। हो आए थे.. दो चार-दिन.. दुकान खुलते ही जा धमके थे..

” हो गया भईया! हमारा काम!”

” दो मिनट रुकिए.. दो बटन रह गए हैं! अभी लगाकर दिए देते हैं!”।

” जल्दी! भईया!”।

” हाँ! हाँ!”।

” लीजिए!”।

” thankyou भइया! ट्राय कर के बताते हैं.. कैसा सिला है.. आपने!”।

” जी ठीक है!”।

नए सिले हुए.. कपडे दर्जी से ले.. घर की तरफ़ दौड़े चले आए थे.. दुकान घर के पास में ही तो थी..

” कपड़े तो ठीक-ठाक सिल दिये हैं.. पर…..!!”।

तुरंत दुकान की तरफ़ दौड़ना हुआ था..

” अरे! भइया..!”

” जी! जी! बहनजी!”

” कपड़े तो आपने अच्छे सिले हैं! पर..ये प्लाजो का लास्टिक थोड़ा ढीला सा लग रहा है! हल्का सा टाइट कर दीजिए!”।

” जी ठीक है.. दो इंची कर दूँगा!”।

” ये दो इंची ठीक रहेगा न! गड़बड़ तो नहीं हो जाएंगी!”।

” अरे! नहीं ! बहनजी इससे ज़्यादा टाइट का क्या करेंगी आप! शाम तक ले जाना कर के रखूँगा!”।

शाम को दौड़ कर अपने प्लाजो ले आए थे.. और एकबार फ़िर से मन मे ट्रायल लेने की सूझी थी..

” बाकी सब तो ठीक ही लग रहा है! पर…..!!”।

कपड़े लेकर दुकान की तरफ़ फ़िर से दौड़ लगाना हुआ था..

” अरे! मास्टरजी! मास्टरजी! किधर गए..? “।

” हाँ! जी आया..! ज़रा चाय लेने चला गया था.. अब क्या हुआ!”।

” कुछ नहीं! इसकी बाजू पूरी नहीं बनाई! कहा तो था.. जुगाड़ कर बना देना!”।

” हाँ! पर बहनजी! कोशिश किए थे.. हम! जोड़ लगाने से भी बात नहीं बनी थी.. ऐसे भी तो अच्छा लग रहा है!”।

” चलो! ठीक है! अब क्या..! देख लेंगें!।

और हाथ में कपड़े का पॉलिथीन लिए.. घर की तरफ़ दौड़े थे।

कपडे जचा कर हाँफते हुए.. बैठे ही थे.. कि

” ओहो! हाँ! खोल कर देखते हैं! अब सारी तसल्ली ज़रूरी है! देखा ! सही दिमाग़ काम कर रहा था.. हमारा! अभी आतें हैं!”।

नए सिले कपड़ों की इस उधेड़बुन में रात होने को थी.. सबके घर आने का वक्त हो रहा था.. पर हम भी तो हम ही थे.. 

पसीने-पसीने  हाँफते हुए.. कपड़ों का पौटला लिए.. धावा बोल दिया था.. दुकान पर..

” मास्टरजी..! मास्टरजी..!”।

“अब क्या हुआ.. बहनजी.!”।

” आपने इन कुरतों को इंटरलॉक तो किया ही नहीं!”।

” नहीं वो होते नहीं हैँ! आगे चलकर कपड़े में कुछ तब्दीली करनी पड़े.. ये इसलिए ऐसा रखा है!”।

” अच्छा..! ठीक है!”।

मास्टरजी ने हमारी तसल्ली कर हमारी तरफ़ मुस्कुराते हुए देखा था.. और हमारे दुकान से चलने पर उनकी उस मुस्कुराहट ने हमसे तौबा करते हुए कहा था.. हे! ईश्वर थोड़ा घाटा ही सही! पर इतना दिमाग़ खाने वाला ग्राहक दोबारा मत भेजना।

मास्टरजी अपनी जगह सही थे.. काम ख़त्म होने के बाद भी हमारा दिमाग़ उन्हीं कपड़ो में दोबारा कॉम्प्लिकेशन लिए जा फ़सा था।

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