“भाई! पुरुष पर प्रतिबंध लगाना मुझे तो पाप लगता है!” परी मुझे नसीहत कर रही थी। “बुरा मत मानना प्रशांत मैं .. मैं पता नहीं क्यों .. तुम्हें रोकना नहीं चाहती कि – तुम पीते क्यों हो?” परी ने मेरी अर्धनिमिलित ऑंखों में झॉंका था। “मैं तो मानती हूँ कि .. पुरुष – माने कि तुम एक लम्बी रेस का घोड़ा हो!” वह हँसी थी। “दौड़ोगे .. तो ही तो – मंजिल पाओगे!” उसने अपनी बात समाप्त की थी।
मैं जानता था कि परी का इशारा रिचा की ओर था।
रिचा नहीं चाहती थी कि मैं पियक्कड़ बन जाऊँ .. कि मैं वासनाएं पाल लूँ और उलटे सीधे कपड़े पहनूँँ .. फैशन परस्त बनूँ और मँहगे शौक पाल कर बर्बाद हो जाऊँ। वह कला का अर्थ अलग से लगाती थी। कला का अर्थ था – एक आदर्श को पोषना .. एक इस तरह की छवि बनाना जिसका लोग अनुकरण करें! मेरी छवि ..
“तुम्हारी छवि अन्य आदमियों की पकड़ से आगे की होनी चाहिये प्रशांत!” परी कहती थी! “एक वो छवि .. स्टार वाली छवि .. जिसे पाना तो अलग छूना भी दुश्वार हो!” परी का इशारा कहीं दिगंत में होता और निशाना मैं होता। “फैंक दिये मैंने तुम्हारे वो सारे देसी कपड़े!” उसने मुझे सूचना दी थी।
“अरे, रे क्यो .. भई उन कपड़ों में तो ..”
“निरे देसी लगते हो!” मुँह बिचकाया था परी ने। “लोग कहते हैं – देसी है भाई! गॉंव का गंवार है!”
“हॉं – तो?” मैं भावुक था। “सच में परी मैं तो गॉंव में .. नंग धड़ंग नदी में कूद कूद कर नहाता था! छुट्टी वाले दिन भैंस की कमर पर चढकर जंगल चला जाता था। एक जंगी खंडहार का पेड़ था। उसपर चढकर मैं बया का घोंसला तोड़ डालता था। सच मानो परी ..”
परी मुझे घूर रही थी। उसके चेहरे पर न जाने कैसे कैसे भाव थे? न जाने अब वो मेरे बारे में क्या क्या अनुमान लगा रही थी।
“धन्य हो!” उसने मेरे हाथ जोड़े थे। “कल इंटरव्यू है! मुश्किल से टाइम वालों के साथ अरेंज किया है। बोलना मत – ये सब प्रशांत! सब किया कराया चौपट हो जाएगा!” उसने मुझे डॉंट सा दिया था। “पूछेंगे – गेम कौनसा खेलते हो – तो कहना – टैनिस, और जब पूछें कि शैंपू .. नहाने का – तो कहना ‘लॉरफो’!” वह रुकी थी। “मेरे पास है – लॉरफो, देख लेना ..”
“लेकिन यार!” मैं तड़प सा आया था। “यूँ बनावटी जिन्दगी .. झूँठ और यों ये ऊटपटांग ..?”
“स्टार की जिन्दगी .. दो होती हैं प्रशांत!” मुस्कुराई थी परी। “दिन में स्टार कहॉं दिखाई देता है?” उसने ऑंखें तरेरी थीं। नहीं न!” वह मेरे पार आ बैठी थी। “पर रात को चमक रहा होता है! अरे भई! हाथी भी तो दो तरह के दॉंत रखता है – खाने के और दिखाने के!” खिलखिलाकर हँसी थी परी। “जियो! अवश्य जियो पर एक स्टार हो तो स्टार का जीवन जियो! मैं तुम्हें ..”
और फिर रिचा मुझे आकर इस दुस्वप्न से जगाती!
“मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं हूँ प्रशांत!” उसका स्वर आग्रही होता। “सोचो! पैसे नहीं तो कल की जरूरतें कैसे पूरी होंगी? घर बनाएंगे .. बच्चे होंगे .. उनके खर्चे होंगे! और तुम्हीं तो कहते हो कल .. फिल्म बनाने लगे तो .. बातों से प्रोजेक्ट पूरा होगा क्या?”
और यही कारण था कि मैने और रिचा ने ढेर सारे पैसे बचा लिये थे। हमारा मन था कि हम फिल्म प्रोड्यूस करेंगे .. अपनी फिल्में बनाएंगे .. साफ सुथरी फिल्में .. और शिक्षाप्रद फिल्में! हम गुंडे गफाड़ों के चरित्र तो ..
लेकिन परी मुझे दूसरे कान से पकड़ती!
“अरे, कलाकार हो!” वह हँसती। “गोबर गणेश तो नहीं हो! कोई भी करेक्टर मिले तुम्हें वही अभिनीत करना होगा। पागल का हो, डाकू का हो, आतंकी का हो या फिर होमोसैक्चुअल काही क्यों न हो! करोगे – तभी तो पार जाओगे?”
“ऑंख बन्द कर प्रोजेक्ट मत साइन करो, प्रशांत!” रिचा ने मुझे वरजा था। “तुम्हें अच्छी सफलता मिली है। और अब हम वो फिल्में करेंगे जो ..”
“साल से घर बैठा हूँ यार!” मैंने रिचा को उलाहना दिया था। “देखो, रिचा इंडस्ट्री का जो मिजाज है हमें .. उसी की तरह ..”
“इंडस्ट्री तुम्हारे मिजाज की तरह काम करेगी, प्रशांत! मैं वायदा करती हूँ .. तुम एक ऐसी प्रतिभा के धनी हो जो हम सबको उपर उठा ले जाएगी! तनिक सा धीरज धरो ..”
उन निठ्ल्ले पलों में ही तो परी ने मुझे पकड़ लिया था। मेरी उस निराशा का हाथ पकड़ कर ही तो परी मेरी जिंदगी में चली आयी थी। बयार के एक बेहद कोमल झोंके की तरह उसने मेरे तन मन को झकझोर डाला था।
“आये, मैन!” परी ने मुझे बैठे पकड़ा था, पार्क में। “क्या साला बॉडी है रे!” वह हैरान थी। “प्र – शां – त हो ना?” उसे मेरा नाम पता था। “वो – ‘प्रेम मिलन’ वाले प्रशांत – खोखर बाबू!” वह जोरों से हँसी थी। “माई गॉड! मैं तो तुम पर उसी दिन मर मिटी थी!” वह मेरे पास आ बैठी थी। “अब कब दिखाई दोगे यार?” वह पूछ रही थी।
मैं चुप था। कैसे कहता कि मेरे पास तो काम ही न था!
“काम की क्या कमी है यार!” परी ने तड़क कर कहा था। “आओ मेरे साथ! काम तो लाइन में खड़ा मिलेगा हुजूर!” उसने मुझे हाथ पकड़ कर उठाया था। “चलो! कॉफी पिलाओ!” उसने आदेश दिया था। “और – काम का काम मुझ पर छोड़ दो!” वह हँस रही थी।
फिर न जाने कब मैं रिचा को भुला बैठा। फिर न जाने कब मैं .. देसी से विदेशी बन गया और न जाने कब मैंने परी का हर कहा माना .. वही कदम उठाया .. जो परी ने सुझाया! परी ने जैसे मुझे महानता की एक परिधि में बॉंध लिया था। मेरा उठना बैठना तक सलैक्ट लोगों के साथ ही होता था। यहॉं तक कि मैंने न जाने कब से .. न मॉं को याद किया .. न अपनी बहन गौरी से बात की और न ही पिताजी से मिलने गया।
मैं .. उस जंगल .. उन जानवरों .. उस नदी .. और उन पहाड़ों को न जाने कैसे भुला बैठा था? न जाने कैसे मुझे अपनों की तो सुगंध तक आना बंद हो गया था।
अब मेरे ठाट बाट थे। मेरा बंगला .. कार .. और नौकर चाकर थे। मेरा सलैक्ट रुटीन था। मँहगे शौक थे मेरे। यूरोप जाकर हम दौनों मौज मस्ती मार कर आते! परी ही हम दौनों के लिये खरीददारी करती और सारे लेद-देन संभालती। मैं तो स्टार था .. रात में चमकने वाला स्टार और दिन में न दिखाई देने वाला सितारा!
“ये क्या लाई हो ..?” मैंने पूछा था। “अरे, नाइटी है ये तो!” मैंने खोल कर देखा था तो परी को बुरा लगा था। “कित्ते की होगी?” मैंने पूछ ही लिया था।
“फाइव .. सम थिंग!” परी ने बताया था तो मैं दंग रह गया था।
“इत्ती मँहगी नाइटी?” मैं उछल सा पड़ा था। “यार – नाइटी तो ..”
परी को जैसे किसी करंट ने छू दिया हो – तड़क उठी थी।
“ठीक है! मैं इसे नहीं पहनूँगी!” मुँह सूज गया था परी का। “काम वाली को दे दूँगी और उसकी नाइटी पहन लूँगी!” वह नाराज हो गई थी। “मैं तो .. मैं तो .. तुम्हारी खुशी के लिये ही खरीद कर लाई थी – ताकि तुम मुझे ..” रोने लगी थी परी। “लेकिन .. अब तुम .. मुझे ..”
न जाने क्यों लगा था – बादल फटेंगे! नहीं नहीं ये तो हमारे मन फटे थे!
“अरे, घटिया!” मैंने मैनेजर को पुकारा था। उसका नाम मनोज भाटिया था, लेकिन मैं उसे घटिया ही कहता था। वो था भी घटिया – पर परी ने उसे हिलाया हुआ था। “मेम साहब ..?”
“गई!” भाटिया ने कहा था। “अब तो ..” वह चुप हो गया था।
मुझे लगा था – मैं अधर में टंगा था। मैं त्रिशंकू था। मेरा कोई न अपना था .. न कोई सपना था। मैं कहीं हवा पर टंगा था। मन तो आया कि किसी को आवाज दूँ – पर पुकारता भी तो किसे? मैं तो सब भूला बैठा था। परी के सिवा मेरी और कोई पहचान ही न थी!
बरबस पीछे मुडु कर देखा था मैंने!
सूपड़ा साफ था! परी की माया परी के साथ चली गई थी। और .. और हॉं .. मेरा काम फिर जाता रहा था। मेरा नाम – अधर में आ लटका था। मैं अब विदेशी तो क्या देसी भी न रहा था। दोस्त तो क्या – मुझे तो मेरा कोई दुश्मन भी दिखाई न दे रहा था!
“लौट आये प्रशांत?” निराशा पूछ रही थी। “कहॉं रहे इतने दिन ..?”
क्या बताता? चुप था मैं! मन तो आया था कि मैं रिचा का पता खोज लूँ! ढुँढ निकालूँ उस सत्य को ..! लेकिन .. आधी रात को दरवाजा खुला था। भाटिया का चेहरा नजर आया था और फिर कुछ पता नहीं कि क्याा हुआ था!
हॉं! शायद जान बचाने का प्रयास करता करता मैं मर गया था। मैं लड़ा तो खूब था – पर अकेला था .. इसलिये ..
अब तो मेरी कहानी को जहान जानता है! आप से तो मैं यूँ ही कह बैठा था!
- मेजर कृपाल वर्मा साहित्य