Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

सॉरी बाबू भाग उनहत्तर

सॉरी बाबू

हवाई जहाज में लक्ष्य द्वीप की उड़ान पर जाते रमेश दत्त आज भिन्न प्रकार से सोच रहे थे।

“नो मोर बॉलीवुड!” उन्होंने स्वयं से कहा था। “इनफ इज इनफ!” उन्होंने स्वीकार में सर हिलाया था। “कोरा मंडी को पूरा करने के बाद और कोई फिल्म बनाएंगे ही नहीं!” उनका निर्णय था। “इंशा अल्लाह! एक बार कोरा मंडी क्लिक हो जाए। वारे न्यारे हुए धरे हैं।” वह बहुत प्रसन्न थे। “जैसे तैसे नेहा को मना ही लूंगा।” उन्होंने अपने संकल्प को दोहराया था। “और विक्रांत ..?”

अचानक ही ठहर कर खड़े हो गये थे रमेश दत्त। विक्रांत ही एक उनके रास्ते का ऐसा रोड़ा था जिसे हटाने का भी एक अर्थ था। विक्रांत ने जो सूंघ लिया था – वो घातक था। उसे भनक लग गई थी उनके मनसूबों की और उनके गुप्त इरादों की जिन्हें वो चुपचाप चालाकी से हासिल कर लेना चाहते थे।

“हिन्दुओं को जगा दिया है इसने!” एक आह रिता कर दत्त साहब ने मान लिया था कि विक्रांत ने फिर से आजादी की जंग छेड़ दी है। “काल खंड के बाद न जाने कैसा विस्फोट हो – दत्त साहब अनुमान भी न लगा पा रहे थे। नेहा को तो लेकर ही मानूंगा चाहे कीमत कोई भी हो!” अपने निश्चय को दोहराया था रमेश दत्त ने।

रमेश दत्त का बेहद मन था कि इस बार नेहा मिलने के बाद वो निकाह करेंगे नेहा के साथ और आजमगढ़ को ही अपना अड्डा बनाएंगे। बम्बई का माहोल लोगों ने बिगाड़ दिया था। एक से एक लुच्चा और लफंगा फिल्म इंडस्ट्री में आ घुसा था। जमाना वहशी लोगों का था। फिल्में बनाने का तो उनका बहाना था लेकिन काम तो कुछ और ही चलता था। भाई को ही लें तो ..

“गांठ की नेहा भी गई!” दत्त साहब ने कोसा था भाई को। “इन लोगों के चक्कर में पड़ कर सारी इमेज चौपट कर ली।” टीस आये थे दत्त साहब। “नाऊ आई विल चेंज दि गेम।” उन्होंने सर पर हाथ फिराया था। “आजमगढ़ ..”

और मात्र आज आजमगढ़ का स्मरण करते ही उनकी आंखों के सामने चौपड़ आ बिछी थी। गजवाए हिंद का सपना उन्हें पुकार बैठा था। कह रहा था – तुम्हारा अभीष्ट तो मैं था कासिम। कहां भटक रहे हो भाई? आजमगढ़ के आस पास को तो देखो। लखनऊ है, अलीगढ़ है, देवबंद है और दिल्ली में है – जामिया मिलिया और सारा सिलसिला वहीं तो है। इस बम्बई में क्या धरा है? मुस्लिम लीग की जननी यही उत्तर प्रदेश तो है! यहीं अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में ही तो पाकिस्तान पैदा हुआ था – याद आया?

“ठीक कहते हो मित्र!” प्रसन्नता पूर्वक रमेश दत्त ने मान लिया था। “नेहा को लेकर अबकी बार सीधा आजमगढ़ उतरूंगा! नेहा – माने के मेरी मुमताज बेगम को साथ लेकर ही उतरूंगा गजबा-ए-हिंद की जंग में!” वो मुसकुराए थे। “कोरा मंडी कैन वेट!” उनका मानना था। “ले दे कर फिल्म को पूरा कर ही दूंगा लेकिन अब राजनीति का स्वाद आएगा!” उनका अनुमान था।

आंख उठा कर देखा था कासिम ने तो उसे समझ आया था कि बहुत कुछ हो चुका था और अब ज्यादा कुछ करने को न था। बीजारोपण तो आजादी के फौरन बाद ही हो गया था। काश अगर सरदार पटेल आड़े न आ गया होता तो तभी सब कुछ आर पार हो जाता। अब तक तो हिंदुस्तान हमारा हो गया होता।

हर मौके पर, हर मोर्चे पर और हर मुकाम पर आज मुसलमान मुस्तैदी से इंतजार में बैठा है। हिंदु मुस्लिम सिख ईसाई के महा मंत्र ने बेहतर काम किया है और इस भाई भाई की दुहाई ने सब हिन्दुओं को खासा बेवकूफ बना दिया है।

मात्र राजनीति में प्रवेश पाने का विचार ही दत्त साहब को आंदोलित कर देता है। राजनीति में वो अपना नाम कासिम कुरैशी ही लेकर चलेंगे – वो तय कर लेते हैं! “नो मोर हाइड एंड सीक!” वो निर्णय कर लेते हैं। खुले आम इस्लाम की वकालत, प्रचार प्रसार और खिदमत में खर्च करेंगे अपना धन, बल और जान ईमान! नेहा – माने कि मुमताज बेगम को पब्लिक के सामने खड़ा कर वो करिश्मा करेंगे जो जनता का दिल जीत ले!

“पाकिस्तान तो बहाना है – अब गजवा-ए-हिंद को आना है – उनका नारा होगा और आजमगढ़ को फिर से अपनी राजधानी बनाएंगे और अपनी नवाबी को कायम करेंगे!”

रमेश दत्त की आंखों में एक बेजोड़ सपना नाचने लगता है।

फोन है। वही साला साहबज़ादा सलीम है – दत्त साहब ने तनिक मुंह बनाया है। सकल न सूरत चलो भाई नानी के – दत्त साहब ने जुमला कहा है सलीम के बारे। काला कलूटा बैंगन लूटा – दे साले में जूता ही जूता – वो हंस रहे हैं। इस साले को भी नेहा ही चाहिए, उन्होंने प्रत्यक्ष में कहा है। पैसा है – बस पैसे से ही सब कुछ खरीद लेंगे – दत्त साहब बड़बड़ा रहे हैं। अचानक ही उन्हें के साहूकार याद हो आया है। ठीक झापड़ रसीद किया था साले में – वह प्रसन्न हैं। और वो रविकांत – माने पंडित रविकांत! अब घूमेंगे फटे हाल बम्बई की सड़कों पर! पठान और पहलवान ..

ठीक किया इन दोनों सालों को जो डूबती नाव में बिठा दिया एक साथ! जोरों से हंसे हैं दत्त साहब!

“हॉं हॉं! बोल रहा हूँ!” उन्होंने धीमे से फोन में कहा है। “हॉं हॉं! मैं पहुंच रहा हूँ। जी हॉं! आप के कुछ सीन हैं जो फिल्माने हैं!” दत्त साहब ने सहज भाव से कहा है।

“सुना है नेहा भाग गई है?” साहबजादे सलीम पूछ रहे हैं।

तन बदन जल उठा है दत्त साहब का। लेकिन किसी तरह अपने आप पर काबू पा लिया है। आवाज को भी संभाल कर बैठे हैं।

“अरे नहीं!” उन्होंने सलीम को बताया है। “काल खंड की शूटिंग पर गई है – विक्रांत के साथ।” दत्त साहब ने जान मान कर सलीम को सताया है। वो जानते हैं कि विक्रांत के नाम से सुलग आता है सलीम।

“नेहा आएगी कि नहीं – शूटिंग पर?” सलीम ने अधीरता से पूछा है।

“नहीं जनाब! इस बार के सीन जिप्सी संगीत वाले हैं। श्यामी कलाकार है – सीपी जिसने नृत्य करना है आप के साथ!” दत्त साहब बताने लगे हैं। “नेहा भी आएगी – धीरज रखिए!” उन्होंने समझाया है। सलीम ने फोन काट दिया है।

जिप्सी संगीत और नृत्य के लिए लगे सैट को देख रमेश दत्त का मन प्रफुल्लित हो उठा है। सब कुछ उनकी इच्छा के अनुरूप ही सजावजा खड़ा है।

“कैसा मन मिजाज है आप दोनों का ..?” दत्त साहब ने सीपी और सलीम को एक साथ पूछा है। सीपी एक ग्लैमरस महिला है और सलीम उस सुलगती लौ पर मर मिटने वाला पतंगा है – यह जंच गया है दत्त साहब को!

“बोल हैं – मैं न मानूं .. मैं न मानूं! मैं तुझे जानूं – मैं तुझे जानूं!” डांस मास्टर बताने लगा है। “टेक और रीटेक के साथ साथ ..”

“संगीत के लिए कौन आया है?” दत्त साहब ने बीच में पूछ लिया है।

कई लोग एक साथ सामने आ गये हैं।

“मैंने एक खास रीमिक्स तैयार किया है दत्त साहब!” ओल्डी सिमन सामने आया है।

“नहीं चाहिए!” दत्त साहब ने टुनक कर कहा है। “चोरी का नहीं – मुझे ओरिजनल ट्रेक चाहिए!” उन्होंने ऐलान किया है। “आप ..?” चुपचाप खड़े एक व्यक्ति को दत्त साहब ने पूछा है।

“कोमल शास्त्री हूँ मैं! शास्त्रीय संगीत मेरे काशी के डागर घराने का इल्म है और मैं उस्ताद रहमत डागर का शिष्य हूँ!” वो व्यक्ति बताने लगा है। “अगर आप इजाजत दें तो ..?”

“लेकिन शास्त्री जी ये तो जिप्सी नृत्य है ओर हम चाहते हैं कि कुछ उन्माद भरा ऐसा संगीत जहां ग्राहक अपनी जान न्योछावर कर दे और ..”

“देखिए दत्त साहब! शास्त्रीय संगीत के सात सुरों में वो सब है जो आपको दरकार है! स से साक्षात ब्रह्म, रे से ऋषि मुनि और ..”

“लेकिन शास्त्री जी हम चाहते हैं कि ..”

“मैं कह तो रहा हूँ श्रीमान जी कि आपकी नर्तकी चकरी की तरह नाचेगी और आप के ग्राहक भी पगलाने लगेंगे! मेरा वायदा है कि ..”

कोमल शास्त्री को दत्त साहब ने चुन लिया था!

मैं डागर घराने से हूँ और मेरे उस्ताद रहमत डागर – कोमल शास्त्री का कहा संवाद दत्त साहब को जगा सा देता है। कलाकार किसी भी जात पात का कायल नहीं होता – वो महसूसते हैं! हिंदू मुसलमानों का भाई चारा तो रहा है। चला भी है और आज भी चल रहा है – वो सोचते हैं। फिर गजवा-ए-हिंद के लिए मुसलमानों का यूं मर मिटना कितना सही है? कोमल शास्त्री का दिव्य और पवित्र स्वरूप उनसे एक आग्रह करने लगता है कि वो एक बार ..

देअर इज नो पॉइंट ऑफ रिटर्न नाऊ – कह कर रमेश दत्त आये कोमल और कमनीय विचार को बेरहमी से काट देते हैं!

मेजर कृपाल वर्मा
Exit mobile version