“मैंने अपने बाबू को मार दिया है।” वह सरेआम स्वीकार करती है – एडवोकेट तारकुंडे प्रेस को बता रही थीं। “लेकिन क्यों मारा ये नहीं बताती है। कैसे मारा यह भी जानती है लेकिन बताती नहीं है।”
“झूठ बोलती हे नेहा!” रंगीला ने प्रतिवाद किया है। “उससे कहलवाया जा रहा है।” वह अपनी राय देता है। “समूचा जगत जहान जानता है वकील साहिबा कि विक्रांत का मर्डर हुआ है। एक नहीं इसमें अनेकों का हाथ है।”
“लेकिन वह बाहर क्यों नहीं आती?” सहेली ने पूछा है।
“कहती है मुझे मार डालेंगे। और मैं मरना नहीं चाहती। मैं प्रतिकार चुका कर ही मरूंगी।”
“किससे लेना चाहती है प्रतिकार?”
“यही तो नहीं बताती!” एडवोकेट तारकुंडे ने हाथ झाड़ दिये हैं।
“विक्रांत की मौत एक ऐसा मील का पत्थर है जहां से अनेकों राहें और अनगिनत रास्ते उन ठिकानों की ओर जाते हैं जहां दुर्गंध भरी है, क्राइम होता है, हत्याएं की जाती हैं, ड्रग्स का व्यापार चलता है, सेक्स रैकेट आम हैं और .. और तो और फिल्मों में किसे कौन काम देगा – यह भी वही तय करते हैं।” रामधन – स्मार्ट टी वी का खोजी पत्रकार ऊंचे स्वर में घोषणा जैसी कर रहा था। “अवर बॉलीवुड इज बेकार! देयर इज पॉलिटिक्स ऑफ ..” कहते कहते रामधन रुक गया था।
विक्रांत की मौत का होहल्ला अब पूरी बम्बई में व्याप्त हो गया था।
“कासिम!” भाई का फोन था। “तेरी कोरा मंडी तो बनेगी कि नहीं बनेगी पर तू हम सब को जेल भिजवा देगा।” भाई की आवाज में रोष था। “तू इस औरत के पीछे पागल हो गया है – मैं जानता हूं!” उलाहना था भाई का। “कित्ती बार कहा है कि ताहिर के हवाले कर दे इसे। तिकड़म लगा कर इस मामले को पार कर देगा!”
रमेश दत्त चुप थे। बोल ही न पा रहे थे। नेहा जैसे नगीने को वो ताहिर जैसे जल्लाद को कैसे सोंप देते?
“तू अब पीछे हट जा कासिम!” सुलेमान भी आदेश दे रहे थे रमेश दत्त को। “मैं सब कुछ संभाल लूंगा। और इससे पहले कि मामला और बिगड़े ओर हम सब ..”
“कोरा मंडी अधूरी पड़ी है, नबी साहब!” कातर स्वर में बोला था रमेश दत्त। “बेशुमार धन लगा है।” वह बता रहा था। “और फिल्म भी बनी तो ..”
“कभी नहीं बनेगी!” साफ कहा था सुलेमान ने। “औरत जूते से मानती है – तुम यही तो नहीं जानते, कासिम! मुझे ..”
रमेश दत्त ने फोन काट दिया था।
बड़े बुरे भंवर में आ फंसा था – रमेश दत्त। हिन्दू मुसलमान का जो तांडव उठ बैठा था – रोके नहीं रुक रहा था। आये दिन कोई न कोई कलाकार अपने हिन्दू नाम को ले कर मुसलमानों के लिए मुसीबत बन जाता था। मात्र ये बताते ही कि अमुक गायक हिन्दू नहीं मुसलमान है – लोग उसके गाने सुनना तक बंद कर देते थे। ओर जैसे ही लोगों को पता चलता था कि उनका चहेता हीरो हिन्दू नहीं मुसलमान है – बस उसकी फिल्मों का बायकॉट आरम्भ हो जाता था। कई निर्माताओं ने कास्ट बदली थी तो कइयों ने तो प्रोजेक्ट ही शेल्व कर दिये थे।
विचित्र आंधी उठ बैठी थी बम्बई के फिल्माकाश पर।
“कैसे ही नेहा मान जाए और कोरा मंडी पूरी हो जाए!” रहमत को बुला कर रमेश दत्त उसे समझा रहे थे। “कुल छह महीने का काम बचा है ओर एक बार फिल्म रिलीज हो गई तो मान लो कि वर्ल्ड की बाउंडरी पार कर जाएगी। मेरा कॉन्सैप्ट है – बॉडर लेस वर्ल्ड रहमत।” रुके थे रमेश दत्त। रहमत उन्हें ध्यान से सुन रहा था। “देश दुनिया के सारे झगड़े खत्म। सब रहें – सब सहें और सब मौज मजे करें! सब मिल बांट कर खाएं पिए तो बताओ रहमत कि ..”
“ग्रेंड आईडिया बॉस!” रहमत प्रसन्न था। “मैं देखता हूँ कि किस तरह गेम खेला जाए!” उसने आश्वासन दिया था रमेश दत्त को। “फंस गई तो आपके कदमों पर ला कर डाल दूंगा – दारी को!” रहमत की आंखें क्रूर भावों से भरी थीं।
“खाली बैठे बैठे खतम हो रहा हूँ गुरु!” लम्बी चुप्पी को तोड़कर भूषण माली बोला था। “मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ .. लेकिन ..”
“पैसे चाहिये?” तुनक कर बोले थे रमेश दत्त। वह जानते थे कि भूषण माली बहुत लालची और पैसे का मीत था। “बोल कित्ते दूं?” उनका सीधा प्रश्न था। “अब बीच में प्रोजेक्ट छोड़ने को क्या मतलब ..?”
भूषण माली अपनी छोटी छोटी बारीक आंखों से रमेश दत्त को देखता ही रहा था। वह समझने का प्रयत्न कर रहा था कि आखिर रमेश दत्त नेहा को लेकर ही कोरा मंडी क्यों बनाना चाहता था?
“मुझे एक मौका दो गुरु!” कुछ सोच कर बोला था भूषण माली। “मैं .. मैं रागिनी को ले कर ये प्रोजेक्ट पूरी कर देता हूँ! वायदा करता हूं दत्त साहब कि रागिनी रोल को उठा कर रख देगी। कहीं इक्कीस है – आपकी नेहा से।” तनिक रुका था भूषण माली। उसने आरक्त हो आये रमेश दत्त के चेहरे को पढ़ा था। “रागिनी .. दत्त साहब ..”
“मैं जानता हूं भूषण कि तू उसके साथ गुल छर्रे उड़ाता है।” रमेश दत्त की आवाज कठोर थी। “तेरे सारे ऐब मुझे याद हैं।” उन्हें क्रोध चढ़ने लगा था। “तू क्या समझता है कि मुझे इतनी भी अक्ल नहीं है कि ..?”
“माफी चाहूंगा गुरु!” भूषण माली थर थर कांप रहा था। “मैं तो .. मैं तो सोच रहा था कि पूरे बॉलीवुड में थू थू हो रही है और लोग कह रहे हैं कि अभी तो और भी फजीहत होगी .. अगर ..”
“निकाल दिया तुझे!” होंठ काट कर कहा था रमेश दत्त ने। “जा! ले जाना अपना हिसाब!” दत्त साहब उठ कर अंदर चले गये थे।
भूषण माली चोट खाए कुत्ते की तरह भौंक भी न पाया था।
विक्षिप्त हुई नेहा अज्ञात भविष्य से जूझ रही थी। उसके पास इरादे तो थे पर उन्हें पूरा करने के लिए कोई सुधी बुद्धि नहीं थी। निरा ही अंधकार था और उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था। अकेली जान थी नेहा आज और उसे अपने बाबू का साथ और सहारा याद आ रहा था।
“मैं भी तो अकेली विधवा थी, नेहा!” नेहा ने अचानक माधवी कांत की आवाजें सुनी थीं लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ था। “मैंने नहीं सहा सब?” वह पूछ रही थीं।
“मॉं अ अ .. आप?” नेहा अभिभूत थी। आज पहली बार माधवी कांत – विक्रांत की मां उसके पास आ बैठी थी। “आपने क्यों तकलीफ की?” नेहा ने औपचारिकता का निर्वाह किया था जबकि मॉं का आना उसे किसी वरदान से कम न लगा था।
“जेल में आप ..?”
“हॉं! विक्रांत के बाद अब मैं ही तो हूँ तेरा सहारा।”
“ओह .. मॉं! ओह .. मेरी .. मेरी अच्छी अच्छी मॉं जी!” नेहा की आंखें आभार से सजल थीं। “बाबू के बिना मैं बहुत अकेली पड़ गई हूँ मॉं!” शिकायत की थी नेहा ने।
“मैं भी तो अकेली ही थी – कांत साहब के जाने के बाद तो ..”
“आप के पास तो एक बेटा था, मॉं!” नेहा की शिकायत थी। “और मेरे पास तो बाबू का न कोई अंश है और न कोई वंश!” बिफर कर रोई थी नेहा।
नेहा के विलाप से द्रवित हुई माधवी कांत भी लौट गईं थीं।
“मुझे अकेला क्यों छोड़ गये बाबू?” गला फाड़ कर रोई थी नेहा। आज उसका साहस भी साथ छोड़ गया था। आज उसे निरी निराशा ने आ घेरा था। एक अकेली नेहा के सामने बैरी बना जहान उसकी जान लेने पर तुला था।
“किसे पुकारूं ..?” बिलख कर नेहा ने स्वयं से पूछा था।
“मुझे पुकार लो मॉं!” कोई कह रहा था।
“कौन ..?” नेहा ने सतर्क हो कर पूछा था।
“काल खंड!” आवाज आई थी। “मैं तो नहीं मरा हूँ!” वह कह रहा था। “जिस दिन तुम मुझे आजाद कर दोगी मैं उसी दिन से उजाले बखेरना आरम्भ कर दूंगा!”
ओ बाबू ..! वायदा करती हूँ तुम्हारे काल खंड को मैं आजाद कर दूंगी, वायदा रहा कि मैं उसे ..
कई आशा किरणें नेहा के दिमाग में एक साथ उग आई थीं।
सॉरी बाबू! काल खंड से मैं तुम्हें न बदलूंगी ..