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सॉरी बाबू भाग सैंतीस

सॉरी बाबू

गुलिस्तां आज अतिरिक्त तरह से गुले गुलजार था!

दिलीप की सफलता के प्राप्त सोपानों की चर्चा फिजा पर फैली हुई थी। किस तरह से दिलीप ने अभिनय को एक नई दिशा दी थी और किस तरह से उसने अमोल ख्याति प्राप्त की थी – सब हवा में था और विदित था! लेकिन ..

“यू गॉट टू हैव ए गॉड फादर – लाइक दत्त साहब!” दिलीप अपने गिर्द जमा नवोदित अभिनेताओं को समझा रहा था। “बिना दत्त साहब के मैं इमेजिन ही नहीं कर पाता कि – कैसे, कब और क्यों कौन सा रोल किस तरह किया जाये ताकि ..”

लेकिन दत्त साहब आज दूसरी चिंता में डूबे हुए थे। नेहा कहां थी – अभी तक पता न चला था। और न जाने कैसे आज वो अनामिका की गरियाती जबान के कोड़े खाने लगे थे। अनामिका को निर्वसन करते दत्त साहब के हाथ अचानक रुक गये थे। अपने ही गुलिस्तां के अंतर गर्भ में अनामिका के साथ प्रेम प्रसंग में डूबे – दत्त साहब को उसने टोक दिया था .. रोक दिया था ..

“ये क्या करता है?” अनामिका गुर्रा कर कह उठी थी। “लाज लूटेगा – लुच्चे?” उसने प्रश्न किया था। “मैं .. मैं ..”

“मैं तुम्हें प्यार करता हूँ अन्नू!” बहुत भावुक संवाद बोला था रमेश दत्त ने।

“झूठा है तू!” अनामिका गर्ज उठी थी। “मक्कार है! बेईमान है ..!” वह कहती ही रही थी। “मैं .. मैं .. दखती हूँ ..”

“चल चल! निकल बाहर!” अचानक क्रोध चढ़ आया था दत्त साहब को। “जा – तुझे जहां जाना हो!” उन्होंने कहा था और अनामिका को उसी हाल में, उस काली अंधेरी रात में गुलिस्तां से बाहर कर दिया था।

उन्हें याद है कि तीन दिन तक उसे पुलिस स्टेशन पर रक्खा गया था। फिर न जाने कहां कहां फरियादें लगाईं थीं उसने। लेकिन इस बम्बई में उसके बोल किसी ने सुने कब थे! उसका ये गुरूर कि वो एक समर्थ अभिनेत्री थी – न जाने कब और कैसे काफूर हो गया था और फिर कभी किसी ने उसका नाम तक नहीं सुना – आज तक!

“कितनों को ढाया है, तुमने दत्त ..?” आज फिर से उनका गुरूर बोला था। “इस बम्बई में किसी को जीना है तो तुम्हारी मेहरबानी पर!” हंस गये थे दत्त साहब!

लेकिन नेहा कहां थी ..?

“प्रणाम सर!” अचानक समीर अंदर आया था और उसने चरण स्पर्श किये थे।

“आओ समीर!” स्नेह पूर्वक बोले थे दत्त साहब। “खैरियत तो है?” उन्होंने पूछा था।

“जी सर!” समीर का उत्तर था।

“दीदी कब आई?” दत्त साहब का प्रश्न था।

“दीदी?” चौंका था समीर। “दीदी का तो फोन भी ..” समीर हैरान था।

“फिर कौन लील गया नेहा को ..?” दत्त साहब ने स्वयं से प्रश्न पूछा था। “विक्रांत तो गांव भाग गया – उन्हें सूचना है। गंगा किनारे बनी बाप की मढ़्इया में मरेगा .. आत्म हत्या करेगा .. जरूर करेगा – उन्हें सूचना है! और ..”

“सर! लंदन से सलीम साहब का फोन है!”

“दे दो!” डरते डरते दत्त साहब बोले हैं। “जी सर! सलाम वालेकुम ..!” तनिक हंसने का उपक्रम करते हुए दत्त साहब मुखातिब हुए हैं – सलीम से। “जी ..? बीमार है ..? रिसोर्ट का नम्बर? म..मैं .. पता करता हूँ सर!” फोन कट गया है।

घंटों की कवायद के बाद दत्त साहब को पता लगता है कि ये रिसोर्ट तो पोपट लाल का है। वह तुरंत पोपट लाल को लाइन पर ले लेते हैं!

“हॉं – तो कसाई का माल अब कटरा खाएगा ..?” दत्त साहब ने तलखी के साथ प्रश्न किया है पोपट लाल से।

“मैं समझा नहीं दत्त साहब!” विनम्रता पूर्वक बोला है पोपट लाल।

“राही रिसोर्ट आसाम में नेहा बीमार पड़ी है?” दत्त साहब पूछने लगते हैं। “और एक तुम हो .. कि ..”

“खाली पड़ा है सर! वहां कोई नहीं नेहा-सेहा! मॉं कसम दत्त साहब – मैं आपसे झूठ बोलकर बम्बई में कैसे रह लूंगा?” पोपट लाल रोने रोने को है।

“आसमान तो नहीं खा लेगा नेहा को ..?” दत्त साहब ने स्वयं से पूछा है।

न जाने क्यों आज दत्त साहब नेहा के बिना जिंदगी जीने से नाट गये थे!

उन्हें तो नेहा ही चाहिये थी! हर कीमत पर आज वो नेहा को पा लेना चाहते थे। पल पल उन्हें नेहा आ आकर सता रही थी। मुंह चिढ़ा रही थी ओर दूर किसी अनजानी डाल पर बैठ कर उन्हें अपने पास बुला रही थी!

“मैं तो तुम्हारी हुई डार्लिंग!” नेहा का कहा संवाद उन्हें याद हो आया था। उन समर्पण के पलों में नेहा उन से लता सी लिपट गई थी। “मैं न जीऊंगी तुम्हारे बिना!” नेहा का कहना था।

और तब .. उन पलों में .. उस दिन उन्होंने मान लिया था कि वो नेहा को जीतने में समर्थ हुए थे! स्वयं जब नारी प्रेम का इजहार करे और स्वयं ही समर्पित हो जाये तभी सच्ची जीत होती है पुरुष की! और उन्होंने अब नेहा को जीत लिया था ..

“ये देखो नेहा प्रेम का नया प्रयोग!” दत्त साहब ने अपने पूर्ण अनुभव का इस्तेमाल कर नेहा को नए गुरु मंत्र दिये थे। “प्रेम रोग नहीं – भोग है!” वह बता रहे थे। “सर्व श्रेष्ठ भोग तो यही है!” वह हंसे थे।

“आपका तो अंदाज ही अनोखा है, सर!” नेहा कहने लगी थी। “आप .. आप तो मुझे मना लेते हैं! आप तो साक्षात कामदेव हैं और मैं हूँ आपकी रति!”

अब आंख उठा कर दत्त साहब ने नेहा को देखा था!

“मूर्ख बनाती है ..?” उनके दिमाग ने उनसे कहा था। “कल की ये छोकरी ..?” वो हंसे थे और मन ही मन उन्होंने उस दिन .. नेहा को ..

“काट गई फंदा ..?” दत्त साहब सोचने लगे थे। “पैसे किसने दिए होंगे?” आज उन्होंने अहम प्रश्न स्वयं से पूछा था। “विक्रांत ..?” उनका शक था। “विक्रांत ..?” उन्होंने लम्बी उसांस छोड़ी थी। जैसे विक्रांत आज लौट आया था और उन्हें चुनौती दे रहा था!

“पहले माल को पकड़ो कासिम, मलाल को नहीं!” उनका अंतर बोल पड़ा था। “नेहा को खोजो!” वह कह रहा था। “मेरा मन उदास है .. मेरा तन ..” व्यथा बोल रही थी – रमेश दत्त की। “वक्त जाया मत करो तुम! निकल पड़ो नेहा की खोज में – वरना तो ..”

गुलिस्तां में लगी भीड़ कब से दत्त साहब से मिलने के लिए बेताब थी!

“ये क्या माजरा है, भाई?” दत्त साहब के मैनेजर ने पूछा था।

“इन दिलीप साहब से दत्त साहब की मुलाकात ..?”

“कब के निकल गये दत्त साहब तो!” हंसा था मैनेजर। “पागल हो गये हो तुम लोग?” मैनेजर पूछने लगा था। “दत्त साहब कोई गाजर मूली हैं .. जो ..” उसने भीड़ को परखा था। “अपने अपने घर जाओ, भाई!” उसका आदेश था।

‘मॉं के आंसू’ की शूटिंग दत्त साहब की ऑंख से बहुत दूर पोपट लाल की नई टीम के साथ मद्रास में चल रही थी। नेहा और विक्रांत इस फिल्म की कामयाबी के लिए जी जान से कोशिश कर रहे थे। विक्रांत का एक एक संवाद असरदार था तो नेहा की एक एक अदा मन मोहने वाली थी!

“खुड़ैल ढूंढ रहा होगा हमें ..?” याद है न बाबू मैंने तुम से कहा था। “आसमान सर पर उठाए उठाए घूमे जा रहा होगा!” हंस पड़ी थी – मैं।

“लेकिन मैं अपनी नेहा को छूने तक न दूंगा इस बेईमान को!” तुमने कहा था और मुझे अपने आगोश में समेट लिया था।

“बड़ा काइयां है ये खुड़ैल!” मैंने तुम्हें सचेत किया था। “गॉड फादर कहते हैं ..”

“गॉड फादर – माई फुट!” तुम गरजे थे। “गंवार है! अनपढ़ है – ये नेहा!” तुमने कहा था – मुझे आज भी याद है।

“पानी में रहकर मगर से बैर ..?” मेरा प्रश्न था। मैं डरी हुई थी। मैं तो जानती थी कि ये खुड़ैल अनगिनत जिंदगियों को लील चुका है .. और तुम .. माने कि मेरे बाबू ..

अंजाम अच्छा नहीं हुआ बाबू!

मुझे इसने ही बहका कर तुमसे भिड़ा दिया और मैं – पागल समझ ही न पाई इसके रचे स्वांग को! और .. और .. बाबू मैंने ही .. मेरे ही हाथों .. तुम्हारा ..

सॉरी बाबू!

क्रमशः

मेजर कृपाल वर्मा

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