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सॉरी बाबू भाग सौ

सॉरी बाबू

बाबा की गरीबी ने चुपके से नेहा को एक विषधर की तरह डस लिया था।

उसके तन मन में घोर वितृष्णा का विष व्याप्त हो गया था। उसे अपने आप से शिकायत थी। उसे शिकायत थी कि वो बाबा और पूर्वी को भूल कैसे गई? वो कैसे भूल गई कि उसका एक छोटा भाई समीर भी था। उसे याद क्यों नहीं आया अपना दायित्व? मां बाप का कितना कर्ज होता है – संतान के सर। बाबा ने अपनी कमाई की एक एक कौड़ी उन तीनों के लिए ही तो खर्च की थी। और पूर्वी ने अपनी जिंदगी का एक एक अनमोल पल उन्हीं के लालन पालन में लगाया था। फिर .. अब जब उन्हें बच्चों की जरूरत थी तो ..

“हैलो नेहा!” लंदन से कैली का फोन था। “कैसी हो?” उसने पूछा था।

नेहा का मन भर आया था। वह कहना चाहती थी कि वह एक जहन्नुम को जी रही थी। वह बताना तो चाहती थी कि उसके गरीब मां बाप और भाई जिस हाल में थे .. वो तो ..

“ठीक हूँ!” अनमने स्वर में बोली थी नेहा। उसका बिलकुल मन न था कि वो कैली से बात करे।

“कॉन्ग्रेट्स नेहा!” कैली का मोहक स्वर फोन पर गूंजा था। “सर्व सम्मति से बोर्ड ने तुम्हारा नाम पार्वती के किरदार के लिए स्पॉन्सर कर दिया है।” कैली ने बताया था।

“कैसी पार्वती? कौन सी पार्वती!” नेहा सहज नहीं थी। उसे आज कोई खुशखबरी चाहिए नहीं थी।

“क्यों ..?” कैली का प्रश्न था। “क्या विक्रांत ने नहीं बताया कि तुम दोनों को त्रिकाल – आगे आने वाली ग्लोबल वैंचर फिल्म में लीडिंग रोल में शिवा और पार्वती के रोल के लिए चुना है?”

“मैं अब फिल्मों में काम नहीं करूंगी!” नेहा ने कहा था और उसका मन आया था कि फोन काट दे।

“तो क्या करोगी?” कैली ने पूछ लिया था।

“अपना घरबार देखूंगी। पूर्वी ओर बाबा की सेवा करूंगी। समीर का कैरियर उसकी शादी .. और” नेहा कहती ही जा रही थी।

“हाहाहा!” जोरों से हंस पड़ी थी कैली। “भाई, ये क्या बात हुई?” वह पूछ रही थी। “विक्रांत से झगड़ा हुआ क्या?”

नेहा ने झटके से फोन काट दिया था।

समीर के साथ बाजार जाकर नेहा ने पूर्वी के लिए सुंदर सुंदर हल्के फुलके प्रिंट्स में चार साड़ियां खरीदी थी। बाबा के लिए कुर्ते पायजामे खरीदे थे। दो जोड़ा सैंडिल खरीदे थे और अंगोछा तथा कच्छा बनियान से लेकर सब कुछ खरीद डाला था। समीर का भी मन माना सौदा खरीदा था और गाड़ी में नाक तक साज सामान भरे दोनों बहिन भाई घर लौटे थे। पूर्वी और बाबा हैरान थे।

“तू पागल हो गई है नेहा!” लढ़ाते हुए बाबा ही बोले थे। “अरे, हमें तो आदत पड़ गई है रे! हमें अब कोई सुख दुख नहीं सताता, बेटी!” बाबा मंद मंद मुसकुरा रहे थे।

“अपनी उमर पर सब भोगा है!” पूर्वी ने बाबा का ही समर्थन किया था। “अब बुढ़ापे में बेटी का खाएंगे क्या?” पूर्वी का प्रश्न था।

देर रात गए जब नेहा बिस्तर में पड़े पड़े बेचैन थी और उसे नींद ना आ रही थी तब विक्रांत का फोन आया था।

“कैली को क्यों नाराज कर दिया?” विक्रांत ने आहिस्ता से पूछा था।

नेहा चुप थी। नेहा भावुक हो आई थी। नेहा विक्रांत से लड़ना ना चाहती थी। विक्रांत का कोई कसूर था भी नहीं। उसके होंठ कांपने लगे थे। वो सुबकने लगी थी।

“हुआ क्या नेहा?” विक्रांत का स्वर रेशम सा मुलायम था।

“पूर्वी ..! बाबा ..! समीर ..!” हिलकियां ले रही थी नेहा। “तीनों ..!”

“हम दोनों हैं न! हम दो किस लिए हैं नेहा?” विक्रांत ने नेहा के घावों पर मरहम लगाया था। “डोंट वरी डार्लिंग!” उसने कहा था। “मैं .. मैं घर लौटूंगा! हम मां बाबा के साथ रहेंगे!” उसका सुझाव था।

“थैंक्स!” नेहा कठिनाई से कह पाई थी।

“और हां! वो जो रोल पार्वती का तुम्हें मिल रहा है उसमें मैं भी शिव के रोल में रहूँगा! इसके लिए ना नहीं करनी!”

“लेकिन क्यों?” सुबकियां रोक कर बोली थी नेहा।

“इसलिए डार्लिंग कि ये ग्लोबल फिल्म है। इसमें सनातन का आगमन है और सतजुग का जन्म है। इस रोल के करने के बाद तुम भी पार्वती .. आई मीन ..”

“लेकिन .. लेकिन बाबू ..”

“मैंने हां कह दी है नेहा!”

“तो ठीक है!”

“आई लव यू .. डार्लिंग!” विक्रांत ने कहा था। “स्वीट ड्रीम्स! गुड नाइट माई लव!”

और नेहा एक अबोध शिशु की तरह सो रही थी।

अचानक ही हॉलीवुड का भूत बॉलीवुड पर सवार हो गया था।

त्रिकाल फिल्म की हुई घोषणा की गूंज दिगंत पर चढ़ कर बोली थी। एक अलग नया सा संदेश मिला था संसार को। मानवता को बचाने के लिए और अच्छाई सच्चाई को जिलाने के लिए फिल्मों का सहारा लेना एक सहज विकल्प लगा था लोगों को। युद्ध और अमानवीय संघर्ष कोई नीतिगत सॉल्यूशन न था। नए युग के आगमन में सहारा देना और उसे स्वीकार करना ही एक मात्र रास्ता था।

“डूब गए .. गुरु!” पोंटू फोन पर चेतावनी दे रहा था। “इस विक्रांत के बच्चे ने न जाने वहां हॉलीवुड में जाकर क्या प्रपंच रचा है!” वह शिकायत कर रहा था। “ये त्रिकाल कौन सी बला है गुरु?” पोंटू ने पूछा था।

“बेवकूफ बना रहा है!” चिढ़ कर बोले थे रमेश दत्त। “वही शिव और पार्वती! वही .. इन हिन्दुओं का ढोंग ढकोसला!” रोष चढ़ता आ रहा था रमेश दत्त को। “अब दुनिया का उल्लू खींचेंगे कि सत युग आ रहा है। कहेंगे कि .. सनातन धर्म ही श्रेष्ठ है!”

“लेकिन ये वैस्ट वाले भी तो ..?”

“उनकी तो कहानी ही खत्म हो गई! लोग अब मार धाड़ से ऊब गए हैं।” तनिक ठहरे थे दत्त साहब। “अगर किसी तरह से .. कोरा मंडी बन जाए तो ..?” कहीं दूर देखने लगे थे दत्त साहब।

“बुरा मत मानना गुरु!” पोंटू तनिक संभल कर बोला था। “अब तो लोग कोरा मंडी को कूड़ा मंडी कहने लगे हैं।” उसने डरते डरते कहा था। “इसी विक्रांत के लोग – पुरबिए और बिहारी बकते फिरते हैं कि ..” पोंटू तनिक रुका था। उसे अब डर लग रहा था। “कहते हैं कि – एक बार काल खंड दीवाली पर रिलीज हो जाए तब देखना इनका जलवा!”

“रिलीज हो जाए तब न!” दांत पीस कर बोले थे रमेश दत्त। “तुम तो अपने गुरु को खूब जानते हो न पोंटू!” रमेश दत्त रोष में थे। “मां कसम पोंटू! अगर .. मुझे ..” आपा खो बैठे थे दत्त साहब।

दत्त साहब की आंखों में अचानक ही दीवाली के दीये जल उठे थे।

“चाहे जो हो!” दत्त साहब बड़बड़ा रहे थे। “चाहे मुझे कुछ भी क्यों न करना पड़े मैं काल खंड का नामोनिशान ..” क्रोध ने पागल कर दिया था रमेश दत्त को।

लौटे थे तो गुलिस्तां में उन्हें भीड़ ने घेर लिया था।

“मनोरंजन के लिए बना करती थीं फिल्में!” पोपट लाल कह रहा था। “हाउस फुल जाते थे। फिल्म महीनों और सालों तक चला करती थीं!” वह जमा लोगों को समझा रहा था। “लेकिन अब न जाने क्या मौत आ गई है कि फिल्में ..”

“अब फिल्में बनेंगी नए युग के निर्माण के लिए!” सुदेश बताने लगा था। “ये नई फिल्म – त्रिकाल – जिसमें विक्रांत ओर नेहा शिव और पार्वती का रोल करेंगे – कौन सा कमाल है?” उसने लोगों के सामने प्रश्न उछाल दिया था।

तभी फोन की घंटी बजी थी तो रमेश दत्त उछल पड़े थे।

“हां! कासिम बेग!” भाई का दुबई से फोन था। “कर दिया पैसे का कूड़ा?” भाई ने पूछा था। “डूब गई तुम्हारी कूड़ा मंडी?” भाई पूछ रहा था। “एक बात मान कर चलना कासिम .. कि .. मैं ..”

रमेश दत्त के पसीने छूट गए थे।

“ऐसा कुछ नहीं है भाई! सब सामान्य है। इस विक्रांत के पुरबियों का प्रचार ..”

“पूरब हो या पश्चिम मुझे तो कासिम माल से मतलब है।” भाई ने कहा था और फोन काट दिया था।

गुलिस्तां में अब अजब गजब का सन्नाटा भरा था।

“मेरे परवरदिगार!” कासिम ने बड़ी मुद्दत के बाद आज अल्लाह को याद किया था। “मेरे खुदा!” उसकी जबान लड़खड़ा रही थी। “किसी तरह .. और कैसे भी एक बार मेरे लिए नेहा ला दे!” आखिरी इच्छा की तरह उसने इजहार किया था। “फिर तो मैं समझ लूंगा इस विक्रांत को और मिटा दूंगा काल खंड को! त्रिकाल का तो मैं जन्म ही न होने दूंगा!” उसने अपने आस पास के ओर छोर नापे थे।

निराशा के महासागर में डूबा कासिम बेग आशा की एक किरण पाने के लिए तरस रहा था। जैसे वह दर दर भटक रहा था और नेहा को भीख में मांग रहा था – और लोगों से हाथ जोड़ कर कोरा मंडी देखने का आग्रह कर रहा था लेकिन लोग ..

आखिरी आशा किरण सा मुसाफिर उसे कही दूर वीरानों में भटकता दिखाई दिया था।

“मर न गया हो – तभी है, मुसाफिर!” अपशकुन की तरह एक विचार आया था और कट गया था।

आंखें बंद कर ली थीं कासिम बेग ने। गुलिस्तां में अंधकार छा गया था – अचानक!

मेजर कृपाल वर्मा
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