Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

सॉरी बाबू भाग सत्तर

सॉरी बाबू

महुआ मोहनपुर के घाट पर एक अनहोनी घटना घट गई थी।

विक्रांत नेहा के साथ वहां पहुंचा था। उनका इरादा नौका विहार का था। लेकिन लोगों की जमा भीड़ ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया था। तरह तरह के प्रश्न पूछे जा रहे थे। नेहा को लेकर लोग उत्साहित थे और सारे प्रश्न उत्तर का केंद्र अब नेहा ही थी।

“पहली बार दर्शन किये हैं मैंने गंगा मइया के!” एक प्रश्न के उत्तर में नेहा ने कहा था। “और सच मानिए कि मैंने जैसे अपनी मॉं को ही पा लिया हो – ऐसा लगा है। मुझे अब आ कर एहसास हुआ है कि लोग क्यों गंगा के गुण गाते हैं।” नेहा जमा लोगों को अपने उद्गार बता रही थी। “बंबई से बाहर आने के बाद ही महसूस होता है कि देश का दिल दिमाग तो कहीं और ही स्थित है।” हंसी थी नेहा। “यहां की तो माटी की महक ही एक दम अलग है। हवा का एक एक झोंका अनमोल है। और यहां की आदर करती ये प्रचंड खामोशी अपना कोई जोड़ नहीं रखती।”

“पर बंबई को भी लोग जादू नगरी कहते हैं, बहिन जी।” भीड़ में से कोई बोल पड़ा था।

“हॉं! है तो जादू नगरी!” स्वीकारा था नेहा ने। “आदमी पैसे की तलाश में बावला हो जाता है। नाम और काम का ऐसा भूत सवार होता है कि वह दीन ईमान तक भूल जाता है। लेकिन जब आंख खुलती है तो ..”

“क्या आप यहां आकर रहेंगी?” फिर से किसी ने प्रश्न पूछा है।

“हॉं! मैं अब यहीं रहने आऊंगी और अवश्य आऊंगी!” नेहा ने वायदा किया था।

राम रतन मल्लाह नौका लेकर गंगा की बीच धार में चला आया था।

शाम ढलने को थी। सूरज गंगा में आ डूबा था। सुनहरी किरणों का जादू गंगा के पेट से उठ उठ कर उन दोनों को आनंदित किये था। और न जाने अचानक ही बांसुरी की वो मीठी तान उनके मन मोहने लगी थी। कोई था जो गंगा के उस पार ककड़ी के खेतों में बैठा बांसुरी की तान छेड़े था।

“उधर ही ले चलो नाव भइया!” नेहा ने आग्रह किया था। “हमें मिला दो इस बांसुरी वादक से!” उसका आग्रह था।

विक्रांत भी चाहने लगा था कि उस खोज में निकला जाये जिसकी तलाश उसे न जाने कब से थी।

नाव को किनारे छोड़ वो दोनों गंगा की उजली रेती पर पैदल चल पड़े थे। पैरों के नीचे खिसकती रेती एक अजीब सा आनंद भरती लगी थी। गंगा के पाट से चल कर आई ठंडी बयार उन्हें एक अनाम सुख प्रदान कर रही थी। सामने ककड़ी और खरबूज तरबूज के खेत और क्यारियां थीं। इधर उधर आदमी भी आते जाते दृष्टिगोचर हो रहे थे। और वह बांसुरी की तान भी फिर से बज उठी थी।

“हम राम लाल हैं बहिन जी!” बांसुरी वादक से परिचय हुआ था। “कोनों नहीं सिखाया हमें बांसुरी बजाना! आप ही सीख लिया।” वह हंस रहा था। “अपना मन जब कुंद होता है तो हम बांसुरी में खो जाते हैं!” उसका कहना था।

नेहा नए चाव से उस अधनंगे राम लाल को देख रही थी।

एक अनमोल रतन ही था राम लाल! सीधा सादा एक दम अपांग उज्ज्वल राम लाल उन दोनों को एक साथ भा गया था।

“अब आप अपने लिए ही नहीं औरों के लिए भी बजाओगे बांसुरी!” विक्रांत कह रहा था। “मोहनपुर स्टेट में आ कर मिलो!” उसने कहा था। “हम तुम्हारी बांसुरी की टेर पूरे भारत को ही नहीं समूची दुनिया तक पहुंचाएंगे राम लाल!” विक्रांत का वायदा था।

“हमार मड्इया नहीं देखेंगी बहिन जी?” राम लाल का आग्रह था।

“आज नहीं राम लाल, फिर कभी मैं तुम्हारी मड्इया जरूर देखूंगी और हो सका तो हम एक रात भी बिताएंगे ताकि हम उस रहस्य को समझ सकें जो गंगा मइया को महान बनाता है।”

बहुत थकान हो गई थी लौटते वक्त तक। मुंह अंधेरा हो गया था जब वो दोनों घर पहुंचे थे। माधवी कांत के चेहरे पर चिंता रेखाएं देख विक्रांत हंस पड़ा था। उनके लिए तो वो आज भी बेबी बॉय ही था – वह जानता था!

“पुनीत पंडित पहुंच गये हैं!” माधवी कांत ने सूचना दी थी तो विक्रांत खिल उठा था। “बहुत दिन के बाद देखेंगे तुम्हें!” वो कह रही थीं। “उन्हें अच्छा लगा है कि तुमने उन्हें याद किया है और काम का मौका दिया है!”

“इनसे अच्छा इतिहास का ज्ञाता और है कौन भारत में?” विक्रांत ने सहर्ष कहा था।

वो चारों ऊपर लाइब्रेरी में बैठे थे। चाय का दूसरा दौर चल चुका था।

“सर! काल खंड में मैं इतिहास का वो सच समाज को बताना चाहता हूँ जो आज तक चतुराई से हमारे इतिहास कारों ने हमसे छुपा लिया है।” विक्रांत ने अपनी मांग पुनीत पंडित के सामने रख दी थी।

नेहा की निगाहें पुनीत पंडित पर टिकी थीं। बड़े ही सौम्य, सज्जन और मृदुभाषी व्यक्ति थे पुनीत पंडित। उनकी विद्वता उनके ललाट पर लिखी थी। वक्त के एक बड़े काल खंड को वो जी चुके थे और उनके एकत्रित किये अनुभव बेजोड़ थे।

“मेरे गुरु हैं नेहा!” विहंस कर बताया था माधवी कांत ने। “इन्हीं की क्लास में सब आते थे और ऐसा आनंद आता था इतिहास पढ़ने में कि पूछो मत! कभी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की शान थे – पुनीत पंडित!” माधवी कांत बताती रही थीं।

पुनीत पंडित कही गहरे सोच विमोच में डूबे थे।

देश काल में घटी विगत की घटनाएं उनके सामने आ आकर गवाही दे रही थीं और बता रही थीं कि जो घटा था उसकी तो चर्चा ही नहीं हुई लेकिन जो घटा ही नहीं उसके ढोल बजे, प्रशस्ति गान गाये और झूठी प्रशंसाएं प्रसारित हुईं! शेरों को गीदड़ कहा गया तो नपुंसकों को गद्दियां मिलीं! और .. और वो गहरी और घातक साजिशें? और देश के साथ फिर से घात करने का वो विश्वासघातों का सिलसिला चुपचाप ही चल पड़ा था।

“उन सत्यों को मैं जानता हूँ विक्रांत जो साजिशों की तरह रचे गये और उनके दूरगामी परिणाम देखने के लिए आज भी उनके प्रवर्तक कब्रगाहों में बैठे हैं – जिंदा और आस लगाए हैं कि ..” रुके थे पुनीत पंडित। उनकी आवाज में एक मलाल उभर कर आया था। “भारत फिर से उनका गुलाम होगा और फिर से गजवा-ए-हिन्द का उनका सपना संपूर्ण होगा!” चुप हो गये थे – पुनीत पंडित।

गहन चुप्पी भर आई थी लाइब्रेरी में। नेहा दहला गई थी। विक्रांत भी किसी सोच में डूब गया था। लेकिन माधवी कांत ने संदर्भ सूत्र पकड़ लिए थे। वह स्वयं भी तो इतिहास की ज्ञाता थीं।

“कौन थे ये लोग पंडित जी?” माधवी कांत का प्रश्न आया था।

“नेहरू परिवार!” विष वमन जैसा किया था – पुनीत पंडित ने।

मात्र नेहरू परिवार के जिक्र पर ही नेहा उछल पड़ी थी। उसे तो बड़ा ही अटपटा लगा था कि नेहरू जी और उनका परिवार किसी गहरी साजिश के सूत्र पात में शामिल था। लेकिन माधवी कांत को लगा था जैसे उनको आज अपने शकों का प्रमाण मिल गया था।

“क्लास में तो आपने कभी जिक्र तक नहीं किया?” माधवी कांत ने उन्हें उलाहना दिया था। “आपने कभी बताया ही नहीं कि ..”

“जेल चला जाता माधवी!” हंस पड़े थे पुनीत पंडित। “मुझ पर तो न जाने कब से जासूसी होने लगी थी।” उन्होंने बताया था।

एक चुहल उठ बैठी थी। अब सब सहज हो आये थे।

“लेकिन सर! मैं सोच नहीं पा रहा हूँ कि इसे हम पर्दे पर कैसे कहें?” विक्रांत अपनी सोच से लौटा था तो पूछा था। “बड़ी ही जटिल कथा वस्तु होगी!” उसने इजहार किया था। “नेहरू परिवार को आज भी पूरा भारत पूजता है – ये तो आप भी जानते हैं!”

“तभी तो कभी जबान पर सच नहीं चढ़ा विक्रांत!” तनिक मुसकुराए थे पुनीत पंडित। “ये इतना बड़ा झूठ है – कि पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके गुरु गांधी जी ने देश को आजादी ला कर दी – जिसे बताने पर लोग आज भी सर पर पत्थर दे मारेंगे!” खुल कर हंसे थे पुनीत पंडित। “लेकिन आज नहीं तो कल सच सामने तो आयेगा जरूर, विक्रांत!” वह कह उठे थे। “है हिम्मत तो ..”

“हिम्मत तो है!” इस बार नेहा बोली थी। “गुरु जी! हम अब पीछे कदम नहीं मोड़ेंगे!” उसका ऐलान था।

माधवी कांत और विक्रांत दोनों सराहनीय निगाहों से नेहा को निहारते रह गये थे।

मेजर कृपाल वर्मा
Exit mobile version