Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

सॉरी बाबू भाग पचहत्तर

सॉरी बाबू

“बड़ी सार्थक सेमिनार रही माधवी!” पुनीत पंडित बता रहे थे। वो बेहद प्रसन्न थे। लग रहा था जैसे पूरी उम्र में अब आ कर उन्हें कोई मीठा फल खाने को मिला हो। “हमारा सनातन अब संज्ञान में आ रहा है!” वह बताने लगे थे। “अब विश्व ने भी मान लिया है माधवी कि सनातन ही एक मात्र धर्म है जो विश्व को एक सूत्र में पिरो सकता है।” उन्होंने विक्रांत और नेहा के चेहरों को पढ़ा था। वो दोनों चुप थे। “बाकी सारे धर्म, धर्म नहीं एक जरिया जैसे हैं। एक वर्ग विशेष के लिए उनकी महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने का जरिया!” वो तनिक मुसकुराए थे। “और इनकी भी उत्पत्ति सनातन से ही है।” उन्होंने सगर्व कहा था।

“तो हमें क्या फायदा?” प्रश्न नेहा ने दागा था। नेहा की आवाज तिक्त थी।

“फायदा ..?” पुनीत पंडित ने प्रश्न दोहराया था। “फायदा ये माई डियर कि अब भारत विश्व गुरु होगा .. और ..”

“फायदा ..?” अब की बार विक्रांत ने प्रश्न किया था। वह भी अप्रसन्न था।

“फायदा ..?” पुनीत पंडित ने फिर से विक्रांत के चेहरे को पढ़ा था। “फायदा ये होगा विक्रांत कि हमारा धर्म हमें वापस मिल जाएगा। हम जो बंटे हुए हैं यही हमारी हर मुसीबत का मूल है बेटे।” पुनीत पंडित बड़े लाढ़ के साथ बता रहे थे।

माधवी कांत अभी भी शांत थीं। उनकी समझ भी पुनीत पंडित की दलीलों को पकड़ नहीं पा रही थी। उनके मन प्राण में तो अब नेहा और विक्रांत की शादी की बात ही घूम रही थी। वह तो चाह रही थीं कि पुनीत पंडित से पत्रा देखने को कहें और पूछें कि इन दोनों के कितने गुण मिलते हैं और इनकी शादी शीघ्रातिशीघ्र कब तय कर देनी होगी! अब इतिहास से हाथ लगाने का उनका बिलकुल मन न था।

“मैं तो चाहती हूँ गुरु जी कि इन दोनों की शादी जल्द से जल्द रचा दूं। मेरा वक्त भी जा ही रहा है। जाते जाते कुछ देख जाऊंगी तो मेरा भी जन्म सुधर जाएगा!” तनिक हंसते हुए माधवी कांत ने प्रस्ताव सामने रख दिया था।

चकित दृष्टि से पुनीत पंडित ने उन सब को घूरा था।

“कालखंड का क्या रहा?” उन्होंने भी अब सीधा प्रश्न पूछा था। उन्हें शक हुआ था कि जरूर उनके पीछे कोई बात घटी है। कुछ दाल में काला तो है। “एंड आई हैव ए गुड न्यूज।” वो विहंस कर बोले थे। “एंड कालखंड मेरे हिसाब से तो इस समय की मांग है।” वह बता रहे थे।

“लेकिन है क्या हमारे पास बताने के लिए?” नेहा बोल पड़ी थी। “अगर भारत का फिर से विभाजन होना ही है तो व्यर्थ है कालखंड बनाना।” नेहा रोष में थी।

“ओ दैट ..?” स्वीकार में सर हिलाया था पुनीत पंडित ने। “अब समझा!” वो हंसे थे। “तो तुम लोग वहां खड़े हो?” उन्होंने व्यंग किया था। “लेकिन मित्रों! गंगाजी में तो न जाने कितना जल बह गया – उसके बाद!” वह बताने लगे थे। “तुम्हें 1925 में ले जाकर खड़ा करता हूँ नेहा!” पुनीत पंडित विहंसे थे। “अंग्रेजों का पूर्ण साम्राज्य था। भारत का जर्रा जर्रा उनका गुलाम बन चुका था। सारे सूरमाओं ने हथियार डालकर गुलामी स्वीकार कर ली थी। सब अंग्रेजों को खुश करने में व्यस्त थे। लेकिन कहीं एक छोटी सी चिंगारी का जन्म हुआ था। परिसीमन और जुगांतर का विचार बड़ा हुआ आजादी का खयाल लौटा और बंगाल लड़ पड़ा अंग्रेजों से!”

“लेकिन क्यों?” विक्रांत का प्रश्न था। “अकारण क्यों लड़ा बंगाल?”

“अकारण नहीं सकारण लड़ा था बंगाल! बंगाल के लोगों ने अंग्रेजों की चालाकी को पकड़ लिया था। जो बराबरी उन्हें दरकार थी, अंग्रेजों ने उसकी मनाही कर दी, और गुलामी थमा दी। लोगों को लगा कि धोखा हुआ है उनके साथ। वो गुलाम क्यों और किस लिए बने? और यही विचार था जो डॉ. हेगडेवार के दिमाग में भी आया जब वो कलकत्ता में मेडीकल की पढ़ाई कर रहे थे। वो भी इस आजादी की जंग में शामिल हुए लेकिन नागपुर लौटने पर उनका मन बदला। उन्हें लगा कि आजादी का ये संघर्ष एक या दो दिन का नहीं शताब्दियों तक चलने वाला था। और इतने लम्बे संघर्ष के लिए उनकी तैयारियां भी उतनी ही मुकम्मल होनी चाहिये थीं।” पुनीत पंडित ने निगाहें उठा कर उन तीनों को फिर से देखा था।

“कैसी तैयारियां?” माधवी कांत ने पूछा था।

“तैयारियां वो माधवी जो लंबे समय तक लड़ा सकें! बीच में दम टूटने से संघर्ष भी टूट जाता है। चूंकि अंग्रेजों से आजादी हासिल करनी थी – उन अंग्रेजों से जो विश्व के मालिक बन चुके थे, आसान काम न था माधवी!”

“फिर क्या किया उन्होंने?” अब विक्रांत का भी धीरज चुकने लगा था।

“फिर उन्होंने अपने विचार पर गहनता पूर्वक मनन किया। जो बंगाल में शुरु हो चुका था उसका निरीक्षण परीक्षण करने से समझ आया कि अंग्रेजों से यों पार पाना संभव न था। अंग्रेजों को हराने के लिए पहले गुलामी के विचार को ही परास्त करना होगा! गुलामी का विचार – या वो गुलामी जिसे पूरा भारत स्वीकार कर बैठा था – उसे ही उनके दिल दिमाग से निकाल कर आजादी का नया विचार आरोपित करना था।” अब हंस रहे थे पुनीत पंडित। “डॉ. बनने गये थे कलकत्ता लेकिन बीमार बनकर लौटे हेगडेवार!” पुनीत पंडित बताने लगे थे। “ये बीमारी भी विचित्र थी। उनका तो सोना बैठना तक दूभर हो गया था। उनका मन विचलित था। उनकी निराशा उन्हें तोड़ने लगी थी।” तनिक रुके थे पुनीत पंडित।

“ये कैसी बीमारी थी?” नेहा ने पूछ ही लिया था।

“वही गुलामी।” सहज भाव से बताया था पंडित जी ने। “गुलामी की जंजीरों को कैसे तोड़ा जाए – उनका स्वयं से प्रश्न था। बंगाल में आरम्भ हुई क्रांति में उन्हें दूरगामी परिणाम कहीं दिखाई न दे रहे थे। उन्हें दिखाई दे रहा था कि भारत भूमि के कण कण में जा बैठा गुलामी का रोग किसी भी अस्त्र शस्त्र से न कटेगा। इस जहरीले विषाणु को जड़ से समाप्त करने के लिए उन्हें ऐसा कोई मंत्र चाहिये था, जो इतना समर्थ हो कि ..”

“मिला कोई मंत्र?” विक्रांत बीच में ही पूछ बैठा था।

“हां! मिल गया था। उन्होंने मान लिया था कि देश भक्ति ही एक ऐसा मूल मंत्र थी जो इस गुलामी के विषाणु को जड़ से समाप्त कर सकती थी। लेकिन देश भक्ति, कैसी देश भक्ति और उसे कैसे प्राप्त किया जाए! यह व्याधि बहुत बड़ी थी। उन्होंने अपने देश के इतिहास को ही उलट पलट कर देखा था पर सफलता हाथ न लगी थी।”

“फिर ..?”

“बगीचे में बैठे बैठे उनकी दृष्टि वहां खेलते बच्चों पर पड़ी थी। उनका उदास मन उन बच्चों के साथ खेलने लगा था। फिर वो स्वयं भी बच्चों के खेल में शामिल हो गये थे। खूब आनंद आया था उन्हें।”

“फिर ..?” अब नेहा पूछ रही थी।

“फिर नेहा बेटी उन्हें उन बच्चों के खेल खेल में धरती और बीज दिखाई दिए। उनकी समझ ने इसी विचार को बड़ा किया। उन्होंने माना कि उपयुक्त जमीन तैयार की जाए और उसमें देश भक्ति के बीज रोपे जाएं! कालांतर में जब ये वृक्ष बनेंगे तो इनपर ही आजादी के मीठे फल लगेंगे और गुलामी का विचार नष्ट हो जाएगा।”

“मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आया है गुरु जी!” माधवी कांत ने शिकायत की थी।

“क्योंकि तुम भी वही सोच रही हो जो हेगडेवार सोच रहे थे!” हंसे थे पंडित जी। “तुम तो सोच रही हो कि इन दोनों की झट से शादी हो जाए और तुम्हें मीठे फल मिल जाएं ताकि तुम अपना बुढ़ापा पार कर जाओ!” ठठा कर हंसे थे पंडित जी। “ठीक यही विचार था उनका भी और उन्होंने उन बच्चों को ही पकड़ा था, क्योंकि बड़े तो उन्हें पागल मान बैठे थे। बच्चे ही थे जो उनकी बात सुनते थे, मानते थे, समझते थे ओर महसूस करते थे कि देश उनका था, देश गुलाम था – उनका देश जिसे उन्हें आजाद कराना था। और उन्हें उस आजादी की कीमत भी चुकानी थी। उन्हें बलिदान देने थे। उन्हें निस्वार्थ सेवा करनी थी – अपनी मातृ भूमि की। कि वो भविष्य के कर्णधार थे, उन्हें आगे चलकर सत्ता संभालनी थी और देश काल के साथ मिल कर उन्हें संघर्ष करना था।”

“कहीं आप आर एस एस की बात तो नहीं कर रहे हैं?” विक्रांत का प्रश्न था।

“हां हां बेटे! मैं वही बात बता रहा हूँ!” हंस गये थे पंडित जी। “ये वही बीज तो हैं जो आज पौधे बन चुके हैं और अब तो फल भी दे रहे हैं।”

“लेकिन हमारे कालखंड के निर्माण के लिए ..?” नेहा बोली थी।

“इनका निर्माण जो हुआ है वही तो हमारी कहानी है नेहा! आज हम जहां आ कर खड़े हैं यह एक शताब्दी से कुल पांच वर्ष छोटा है। माने कि वो और उनका अनुमान सही था। इतना वक्त तो लगना ही था।”

“लेकिन गुरु जी परदे पर कहानी कहने के लिए तो ..?”

“क्यों ..? एक से एक संगीन घटना है हमारे पास – त्याग है, बलिदान है, देश भक्ति है और एक सर्व श्रेष्ठ नारा भी है – नमस्ते सदा वत्सले मातृ भूमि!” हंस पड़े थे पंडित पुनीत।

मऊ मोहनपुर स्टेट पर आज एक नया सूरज उगा था।

मेजर कृपाल वर्मा
Exit mobile version