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सॉरी बाबू भाग पचानवे

सॉरी बाबू

पोपट लाल अपने बगीचे में आराम कुर्सी पर अकेला आंखें बंद किए धूप सेक रहा था।

लेकिन वो अकेला था नहीं। रह रह कर वह कन्हैया की बांसुरी की धुन सुन रहा था। बार बार – हर बार काल खंड के सजीले और सटीक दृश्य उसकी आंखों के सामने आ आ कर उसे सताते और बताते कि उसने कितनी बड़ी भूल की थी। उसका अनुमान था कि कालखंड रिलीज होने के बाद एक तहलका मचा देगी और दर्शकों की आंधी रोके न रुकेगी। नोटों की वर्षा होगी और ..

“पागल बन गया!” पोपट ने टीस कर अपने आप को कोसा था। “वो तो .. वो तो .. लक्ष्मी और गणेश दोनों चल कर मेरे द्वारे आए थे।” पोपट लाल को सब कुछ याद आ रहा था। “लेकिन .. लेकिन रमेश दत्त का डर, फिल्म पिटने का शक और .. और! और क्या?” वह अधीर हो आया था। “बेवकूफ!” स्वयं को गरिआया था पोपट लाल ने। “उस दिन विक्रांत की बात मान लेता तो आज ..”

“आज भी मौका है।” पोपट लाल का मन बोल उठा था। “काल खंड अभी रिलीज तो नहीं हुई।” उसने स्वयं से कहा था। “चल कर खरीद लो।” उसका निर्णय था। “लगा दो बोली!” वह तनिक हंस गया था।

पैसे की करामात तो पोपट लाल जानता था।

अथक परिश्रम और दौड़ भाग के बाद पोपट लाल को सुधीर का ऑफिस मिल गया था। सुधीर को देखते ही उसे उम्मीद हुई थी कि सौदा हो सकता था।

“मैं फिल्म प्रोड्यूसर हूँ भाई।” पोपट लाल नपे तुले अंदाज में बोला था। “तुम तो नहीं जानते मुझे लेकिन विक्रांत और नेहा दोनों मेरे परिचित हैं। उनको लेकर मैंने ..”

“अरे हां हां! मुझे बताया था विक्रांत भाई ने कि आप ने ..”

“काल खंड का ऑफर नहीं लिया था।” कह कर हंस गया था पोपट लाल। “भाई! बड़ी मुश्किल में था तब मैं। लेकिन अब .. आज .. मुंह मांगा ..” मुसकुराता रहा था पोपट लाल। “बात करा दो।” उसने विनम्र आग्रह किया था।

सुधीर ने कई पलों तक पोपट लाल को पढ़ा था। फिर उसे याद था कि कोई भी आए जाए फोन नहीं मिलाना था। विक्रांत और नेहा छुट्टी पर थे। कहीं एकांतवास में थे और इस दौरान वो किसी से भी मिलना नहीं चाहते थे।

“मछली पकड़ना कब सीखा?” नेहा ने मुग्ध भाव से प्रश्न पूछा था विक्रांत से। जिस कौशल के साथ वह मछली पकड़ रहा था – सराहनीय था।

वो दोनों कमर तक पानी में डूबे हुए थे। मछलियां जाल में फंसी थीं और विक्रांत अब आहिस्ता आहिस्ता जाल को खींच रहा था।

“गंगा में नहाने जाते थे न – तब लुंगियों को पकड़ कर पानी में फैला कर धार के विपरीत खींचते चले जाते थे और फिर अचानक पानी से बाहर उठा देते थे। भोली भाली मछलियां – तुम्हारी तरह पकड़ी जातीं।” हंसा था विक्रांत। “और हम ..”

“खूब आनंद आता होगा।” नेहा पूछ रही थी।

“आज जितना नहीं।” विक्रांत ने नेहा को आंखों में देखा था। “ये ख्वाब तो कभी कल्पना में भी नहीं आया था।”

नेहा लजा गई थी। नेहा ने चोर नजर से अपने कामना पुरुष को देखा था। सजीला छबीला विक्रांत उसके मन की गहराइयों तक जा पहुंचा था।

“उठा लो फोन! कोई जरूरी बात होगी तभी फोन आया है।” नेहा ने विक्रांत से आग्रह किया था।

“हां सुधीर भाई!” विक्रांत ने फोन में कहा था। “वॉट इज द एमरजैंसी?” उसने पूछा था।

“ये कोई पोपट लाल जी हैं।” सुधीर बताने लगा था। “कहते हैं – आप के पूर्व परिचित हैं और कालखंड खरीदना चाहते हैं।” सुधीर ठहर गया था। विक्रांत ने भी नेहा को देखा था। “कहते हैं नेहा जी से बात करा दें तो ..?”

“तो नेहा जी से ही बात करेंगे?” विक्रांत की आंखों में शरारत थी। नेहा ने भी सब कुछ समझ लिया था। पोपट लाल का लालची चेहरा उन दोनों के सामने रुका खड़ा था। “तो लो! नेहा जी से बात करो।”

“हां सुधीर भाई!” नेहा की आवाज चटकी थी। “इस कमीने को लात मार कर ऑफिस से भगा दो!” नेहा का आदेश था।

नेहा ने फोन काट दिया था और स्विच ऑफ भी कर दिया था।

लंबे पलों तक नेहा और विक्रांत बोले नहीं थे। मछली पकड़ने का आनंद न जाने कहां भाग खड़ा हुआ था। दोनों एक साथ विगत में लौटे थे। दोनों को एक साथ याद आया था जब वो दोनों पोपट लाल से विनती कर रहे थे कि वो काल खंड बना ले और वो दोनों हर कीमत पर उसका साथ देंगे!

“दत्त साहब से झूठ बोल कर जान बचाई है!” पोपट लाल ने तब कहा था। “मैं .. मैं नेहा जी आप को तो मैं ..”

“बिना विक्रांत के मैं काम नहीं करती।” नेहा ने भी तब दो टूक कहा था।

और मुंबई के हर जाने माने प्रोड्यूसर ने उन्हें काम नहीं दिया था। जो काम मिला था – वो भी जाता रहा था। बिना बताए विक्रांत को प्रोजैक्ट से बाहर निकाल दिया था और नेहा को लालच दिए गए थे कि वो विक्रांत से अलग हो जाए और ..

खंडाला में आ कर प्राप्त किया ये एकांत हाथ बांधे उन दोनों के पास खड़ा था।

विगत की अनुभूतियां थीं। दोनों ने उन गुरु गंभीर उजालों को साथ साथ सहा था, देखा था और बातें भी की थीं। चिड़ियों को चहकते सुना था और अर्थ निकले थे कि उनका जीवन भी हमारे जैसा ही जीवन था। उन सब के सुख दुख थे। उन सब के घर परिवार भी थे ओर उनके भी ..

“ये दोस्त और दुश्मन का महा जाल हर जगह है विक्रांत।” नेहा ने महसूसा था तो कहा था।

“ये पूर्व जन्म का लेना देना होता है नेहा। कहते हैं ..” विक्रांत बताने लगा था।

“तो क्या हमारा भी ये पूर्व जन्म का लेखा जोखा घट रहा है?”

“लगता तो है!” विक्रांत ने हामी भरी थी। “वरना तो – कहां की ईंट कहां का रोड़ा?” हंसा था विक्रांत। “मैं तुम्हें क्या जानता था? और तुमने तो कभी सोचा भी नहीं होगा कि ..?”

नेहा को भी आश्चर्य हुआ था कि वो दोनों अचानक ही आ मिले थे और अब उन का परिचय कितना प्रगाढ़ हो गया था। यहां तक कि .. मां .. माधवी और .. वो ..

“और वो शेरों की दहाड़ सुनी है न ..?” विक्रांत ने बात काटी थी।

“मुझे तो मेमना ही प्यारे लगते हैं।” नेहा ने अपनी बात कही थी। “मैं तो .. मैं तो चाहती हूँ कि ..”

“ललकार को तो मैं भी नहीं चाहता नेहा!” विक्रांत ने बात समझ कर कहा था। “लेकिन जब कोई जीने ही न दे तो क्या करें?”

“लड़ें! खूब – फन फैला फैला कर लड़ें!” नेहा ने स्वीकार में कहा था। “कालखंड का यही तो संदेश मुझे अच्छा लगा है। मिटा क्यों जाए? लड़ा क्यों न जाए?”

और लगा था कि उन दोनों की नींद आज एक साथ टूटी थी और दिन का उजाला उन के सर पर खड़ा खड़ा हंस रहा था।

“संघर्ष तो अब आरम्भ होगा नेहा।” विक्रांत ने याद दिलाया था। “बॉलीवुड हमारे इंतजार में तैयार खड़ा मिलेगा!” हंस रहा था विक्रांत।

“कोई न कोई प्रपंच तो जरूर रचेगा खुड़ैल!” नेहा भी मुसकुराई थी।

“बॉलीवुड अब बीमार हो गया है नेहा!” विक्रांत बताने लगा था। “कलाकारों के लिए तो एक दम अनफिट है।” वह बताने लगा था। “भाई-भजीजेवाद ने चारों ओर से घेर लिया है – बॉलीवुड!” विक्रांत का कहना था। “कला, संस्कृति या देश प्रेम जैसी भावनाओं के लिए यहां कोई स्थान नहीं है।”

“पैसा हावी है। पोपट लाल जैसे रोकड़ा लेकर बाजार में आ बैठे हैं और सौदा पटाते हैं।” नेहा को भी अचानक याद आ गया था।

“राजनीति की तरह यहां भी घरानों का राज कायम हो चुका है।” विक्रांत फिर बोला था।

“लेकिन हम नहीं पड़ेंगे इन पचड़ों में।” नेहा का कहना था। “काल खंड की रिलीज के बाद मैं तो .. मैं तो मां के पास भाग जाऊंगी!” नेहा ने लजाते हुए कहा था। “फिर तुम जानो और तुम्हारा काम जाने!” वह हाथ झाड़ रही थी। “बहुत हुआ ये बंबई ..”

अचानक ही विक्रांत को सुधीर याद हो आया था। उसने एक साथ ही अपनी कालखंड की नई टीम को देख लिया था। सभी उसके साथ मुंबई चले आए थे। सभी ने विक्रांत को वचन दिया था कि वो फिल्मों में एक उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ेंगे और जिस तरह संघ ने देश की स्वतंत्रता को बचाने में संघर्ष किया था उसी तरह वो लोग भी बॉलीवुड को बचाएंगे!

“लगता नहीं नेहा कि हम दीवाली पर कालखंड को रिलीज कर पाएंगे।” विक्रांत को अचानक ही याद हो आया था कि दीवाली पर तो बड़े बड़े प्रोडक्शन हाउस पहले से ही लाइन लगा कर बैठे थे।

“इन से हमारा कम्पटीशन ही नहीं है।” नेहा ने कहा था।

“हमारा कम्पटीशन क्यों नहीं है? कालखंड और कोरा मंडी दोनों ही कब से प्रचारित हो रही हैं? रमेश दत्त मुकाबले में आये बिना मानेगा नहीं।”

“कोरा मंडी पूरी होगी तभी तो?” हंस पड़ी थी नेहा। “हुजूर तो अभी भी ख्वाब देख रहे हैं कि नेहा लौटेगी तभी ..”

विक्रांत चौंका था। उसे आश्चर्य हुआ था कि नेहा को पता था कि अभी तक कोरा मंडी तैयार नहीं हुई थी और ये भी कि रमेश दत्त नेहा के इंतजार में बैठा था।

“तो क्या तुम ..?” विक्रांत नेहा से पूछ लेना चाहता था कि क्या वो रमेश दत्त की कोरा मंडी के लिए फिर से काम पर लौटेगी?” लेकिन उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी।

लेकिन अघटनीय तो घटने लगा था।

रमेश दत्त और विक्रांत के बीचो बीच नेहा खड़ी थी। वो दोनों ही हर कीमत पर नेहा को प्राप्त कर लेना चाहते थे। वो दानों ही चाहते थे कि नेहा उनकी हो जाए .. हमेशा के लिए! लेकिन ..

“नहीं नहीं!” विक्रांत अपने द्वंद्व से लड़ने लगा था। “मैं .. मैं नेहा को किसी को भी किसी भी कीमत पर न दूंगा। मैं .. जान लड़ा दूंगा – मैं जान दे दूंगा पर नेहा को न दूंगा!” उसने फिर से अपनी प्रतिज्ञा को दोहराया था।

नेहा चुप थी। लेकिन उसे घात लगाए बैठा खुड़ैल भी दिखाई दे रहा था। वह डर रही थी। अज्ञात का भय उसे सताने लगा था।

“लौट चलते हैं बाबू!” नेहा ने विक्रांत को जगा सा दिया था।

विक्रांत और नेहा के आने की खबर बंबई में आग की लपटों की तरह फैल गई थी।

मेजर कृपाल वर्मा
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