Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

सॉरी बाबू भाग पचास

सॉरी बाबू

वे ऑफ लाइफ – जीने की राह ने अब रफ्तार पकड़ ली थी!

जिन्दगी को क्यों और कैसे जिया जाये – इस आम प्रश्न का उत्तर खोजती फिल्म ‘जीने की राह’ कहीं लोगों को अमूल्य सलाह दे रही थी कि जीना मात्र भरण पोषण नहीं कुछ और है! जीवात्मा संसार में कुछ करने के लिये आता है और अपने उस दायित्व को चुकाने के लिए जीता है!

इस दायित्व को उठाने के लिए हमें शक्ति संगठन करना होता है ओर ये शक्ति संगठन हम कैसे करते हैं – यही व्यक्त किया गया था नेहा के उन चित्रों के द्वारा जो अचानक दुनिया में वायरल हो उठे थे! योग करती नेहा और उसके पहने पारदर्शी परिधान तथा कैमरे द्वारा प्रदर्शित उसके अंग प्रत्यंगों को देख देख कर लोग बावले हुए जा रहे थे! जैसे नेहा के चित्र बोलते थे, बतियाते थे और आप के कान में अचानक ही कुछ कह जाते थे – ऐसा प्रतीत होता था! नेहा की हंसी को सायास सुना जा सकता था और उसके होंठों पर धरे आग्रह तो आप से बतियाने ही लगते थे!

“ए वूमन इज ए कंप्लीट हैवन!” रमेश दत्त नेहा के चित्रों को देख कर स्वयं को बता रहे थे। “एंड नेहा इज माई हैवन!” उन्होंने लम्बी उच्छवास छोड़ी थी। “आई मस्ट पजेस हर ..” उन्होंने किसी ली शपथ को दोहराया था!

अगले प्रष्ठ पर ही विक्रांत का चित्र था। विक्रांत को इस में एक अद्भुत ध्यान मुद्रा में बैठा दिखाया गया था। विक्रांत की आकर्षक देह यष्टि और भी आकर्षक लग रही थी। उसके चेहरे पर बिखरा तेज और ध्यान मुद्रा में मुखर हुआ मौन किसी युग वेत्ता की ओर संबोधन करते लग रहे थे!

फिर उस ध्यान मुद्रा के साथ साथ विक्रांत के कहे वचन चले आते थे –

हमारे मन में हर पल विचारों का द्वंद्व चलता रहता है! ये हमें कभी शांत नहीं होने देता! और हमारी यही अशांति हमें ईश्वर से दूर ले जाती है! इस हालत में जीव और ब्रह्म कभी भी एकाकार नहीं हो सकते! अहंकार विहीन जीव का ही ब्रह्म में विलय होना संभव होता है! और हम जब यह आत्म ज्ञान पा लेते हैं तो समाधिस्थ पद को प्राप्त होते हैं!

मन के बाहरी भ्रमण को हम ध्यान के अंकुश से रोक कर जब अंतःकरण की आंतरिक यात्रा पर भेज देते हैं तो ही मोक्ष प्राप्ति हमारी समाधि का एक मात्र लक्ष्य बन जाता है!

चित्त और इस आकांक्षा ने ही हमारा जीवन नरक बना दिया है! हमारा मन ठहरता कहां है? एक के बाद दूसरी आकांक्षा हमें निरंतर सताती रहती है! और हम हैं कि भटकते रहते हैं .. हार जाते हैं .. विवश हो जाते हैं .. पागल हो जाते हैं और बेहोश होकर भी होश में नहीं आते! मित्रों ये जीने की राह नहीं – मृत्यु पथ है!

द वे ऑफ लाइफ इज पीस .. एंड पीस ऑनली!

विक्रांत के कहे ये ब्रह्म वाक्य आज के जन मानस को जगाते लगते! कहते लगते कि सावधान! आगे मोह पाश है – सारा संसार! और शांति ही शस्त्र है – इसे जीतने के लिए!

बहुत सारे रिव्यू आये थे!

“मोह नगरी के नागरिक नरक में रहते हैं लेकिन वो सोचते हैं कि उनका जीवन श्रेष्ठतम है! वो ऊंचे लोग हैं! वो – वो लोग हैं जो आन बान शान से जिया करते हैं!

लेकिन – निरंतर असाध्य रोगों से लड़ते ये प्राणी मन के भाग जाने पर अकेले ही विलाप करते रह जाते हैं!” द गोल्डन पोस्ट

“भौतिकवाद ने चैन तो छीन लिया अब अस्मिता की बारी है!” इमेज

“लौटना तो होता ही है! इनफ इज इनफ!” राइट वे

कासिम बेग का मन मान ही नहीं रहा था कि वो नेहा के उन मोहक चित्रों से आंखें उठा ले!

आज उसे लग रहा था कि नेहा को देख देख कर ही उसे अशांति मिली थी। नेहा और सिर्फ नेहा ही जैसे उसके जीवन का लक्ष्य था – उसे लगा था। और उसे लगता था कि अगर उसका कोई जानी दुश्मन है – तो वो विक्रांत ही है!

“कैसे भी, किसी भी तरह से एक बार फिर नेहा आजमगढ़ पहुंच जाए फिर तो मैंने उसे तीसरी बेगम बना ही लेना है! धर्म परिवर्तन के बाद जब नेहा नए नाम से और नए परिधान पहन कर आजमगढ़ के शीशमहल के आंगन में उतरेगी तो गजब हो जाएगा!” रमेश दत्त का मन अब बल्लियों कूद रहा था। “ये होगी शांति .. इसी को कहूंगा मोक्ष और यहीं हूँगा मैं समाधिस्थ!” रमेश दत्त ने अब अपने आस पास को देखा था।

“कासिम बेग! कहां सोए पड़े हो?” साहबजादे सलीम का फोन था। “देखना! अगर ये फिल्म ‘द वे ऑफ लाइफ’ रिलीज हुई तो लोगों की जेबें खाली कर देगी!” वो तनिक रुका था। कासिम बेग ने भी अपने होश संभाले थे। “और एक तुम हो कि ‘औरंगजेब’ न बना पाए?” उलाहना दिया था साहबजादे सलीम ने।

“कोई थूकता भी नहीं तुम पर और तुम्हारी औरंगजेब पर!” रमेश दत्त कह देना चाहता था। उसे रोष चढ़ा हुआ था। उसे साहबजादा सलीम भी अब अपने रास्ते का रोड़ा लगा था। “हवा है साहबजादे!” रमेश दत्त ने संभल कर कहा था। “हमारा खेल बिगाड़ रहे हैं ये हॉलीवुड वाले! ये नया ट्रेंड पकड़ा है! अब ‘सनातन’ से कमाएंगे और हमें समुंदर में डुबो देंगे!” टीस आया था रमेश दत्त।

“नेहा तो फोन तक नहीं उठाती कासिम भाई!” शिकायत की थी – सलीम ने।

“उसका तो अता पता तक नहीं है साहबजादे!” रमेश दत्त भी रो पड़ना चाहता था।

“कुछ हारे हारे लगते हो?” सलीम पूछ रहा था। “हुआ क्या?” उनका प्रश्न था।

और रमेश दत्त के पास कोई उत्तर न था।

जब भी रमेश दत्त नेहा के नजदीक आता तभी विक्रांत का विद्रोही चेहरा अचानक उजागर हो जाता। लपक कर कासिम बेग की गर्दन पकड़ता विक्रांत और उसे समुंदर में फेंक चलाने के लिए समर्थ विक्रांत रमेश दत्त की नींदें हराम कर देता था!

“शेर के मुंह से निवाला निकालना होगा, कासिम!” रमेश दत्त ने स्वयं को चेतावनी दी थी। फिर कुछ सोच कर रमेश दत्त ने निर्माता पोपट लाल को फोन किया था। उसे उम्मीद थी कि पोपट लाल के पास नेहा और विक्रांत का अता पता अवश्य होगा। “पोपट भाई, भूल ही गये?” सीधा उलाहना दिया था रमेश दत्त ने। “बनवा लो कोई गरम नरम सी फिल्म ..?” वह पूछ रहा था। “नेहा ने तो ..?” सीधे मुद्दे पर आ गये थे रमेश दत्त।

“पूछो मत दत्त साहब!” पोपट लाल ने भी माथा पीटा था। “मैं तो दुकान ही बंद कर रहा हूँ!” वह बताने लगा था। “जहां देखो वहीं – हरे रामा हरे कृष्णा! जिधर देखो उधर ही गोरे काले सब झांझ मंजीरा बजाते नजर आ रहे हैं! देश लो विदेश लो एक ही शोर है – योग, निर्वाण और मोक्ष! अब हमारा क्या होगा भाई?” तनिक ठहरा था पोपट लाल। फिर बोला था। “गुजरात जा कर अपुन तो नमक बेचेंगे, दत्त साहब!”

“नेहा का नम्बर है क्या?” चुपके से पूछा था रमेश दत्त ने।

“नम्बर तो छोड़ो दत्त साहब नेहा की तो अब सुगंध भी मोल बिक रही है! हाहाहा!” खूब हंसा था पोपट लाल। “उड़ गई चिड़िया!”

रमेश दत्त ने फोन काट दिया था!

खोटा सिक्का मुसाफिर ही एक बार फिर काम आया था और सेट से लौटी अकेली नेहा से उसके कैबिन में रमेश दत्त की मुलाकात हुई थी!

“तुम्हारे बिना मैं न जीऊंगा नेहा!” आंखें भर कर रमेश दत्त ने अपने प्रेम का इजहार किया था।

“तो यहीं मर जाओ सर पटक कर!” क्रोध में आंखें तरेर कर कहा था नेहा ने। “अगर एक मिनट में तुम न गये तो ..?” नेहा ने चेतावनी दी थी।

पसीने छूट गये थे रमेश दत्त के। बिना एक शब्द कहे वो लौट आया था। उसे लगा था कि वो जंग हार चुका था। नेहा के मन में उसके लिए कहीं कुछ शेष न था – वह जान गया था!

“मैंने तुम्हें बताया नहीं था बाबू कि कासिम बेग मिलने आया था। कहीं किसी मन के सूने कोने में एक इंतजार छुपा बैठा था! इश्क अइयाशी की तलाश में बैठा मेरा चोर मन उस दिन मुझे गुपचुप निमंत्रण देकर लौट गया था!” नेहा को अब याद आने लगा था। “और जब तुम ने मुझे दुतकार दिया था तो ये चोर फिर से घुस आया था और बोला था – पागल है ये छोकरा नेहा! बरबाद कर देगा तुम्हें! आओ! आजमगढ़ चलते हैं! दूर .. दुनिया की नजरों से दूर .. और ..

और .. और बाबू ये कासिम बेग मुझे चुपके से नसा ले गया था!

हॉं हॉं और वहीं आजमगढ़ में आम के बगीचे में बैठ कर उसने तुम्हें मारने की साजिश रची थी! कहा था – वी गेट रिड ऑफ हिम नेहा – फॉर एवर ..

और बाबू हॉं हॉं बाबू मैं ही हूँ तुम्हारी मौत का सबब ..

आई एम सॉरी बाबू ..

रोने लगी थी नेहा ..

मेजर कृपाल वर्मा

Exit mobile version