धारावाहिक – 9
‘ले , सेव खा ।’ कामिनी ने बड़े दुलार से नेहा को सेव थमाया है । ‘खूब खरीद लाई हूँ । ले, भूरो । तू भी खा ।’ उस ने भूरो को भी झट से एक सेव दिया है । ‘धरा क्या है ….जिन्दगी में …?’ कामिनी कराह ने लगती है । वह नेहा को अपांग देखती है । नेहा ने कपड़े बदले हैं । बाल धोये हैं । आज चेहरे की भी टीम-टाम की है ।
‘ईसा ही रंग-रूप था….म्हारी बहू – सुरेश का ।’ कामिनी कहने लगी है । ‘मानो, नेहा कि वो…तेरे ही वर्गी थी । और मेरा बेटा – राजकुमारों जीसा ?’ कामिनी की आवाज भारी हो आती है । ‘नजर लग गई , बच्चों को ….’ टीस आयी है , कामिनी ।
‘हुआ क्या था ?’ नेहा पूछ लेती है ।
‘छोरा बंगलौर जा रहा था – नौकरी पर। साथ जाने के लिये बाेल बैठी ।’ कामिनी गंभीर है। ‘अरे, भाई …। ईसी औरत …? रोज रात को मरद चाहिये ……’
‘किस औरत को नहीं चाहिये ?’ नेहा ने पूछ लिया है ।
चक्की में खामोशी छा गई है । भूरो नेहा को मात्र घूरती है । कामिनी ही बात करने का साहस जुटाती है ।
‘इतनी सी बात पर ….आग जला कर मर गई ?’ रोने लगी है , कामिनी । ‘सब का नाम लिखवा कर मरी है , बैरन ।’ उस ने सुबकियां लीं हैं । ‘पोता है …..। कैसा सुघड़ है ….?’
कामिनी के विलाप के बीच से कोई नेहा से बतियाने लगता है ।
‘तू ने तो किसी का भी नाम नहीं लिखवाया , नेहा …?’ प्रश्न चला आया है । ‘तू अकेली ही तो गुनहगार नहीं है ?’ अनुभूत है – जो उसे उकेरती है । ‘सारे गुनहगार ….मुजरिम…हत्यारे …और अईयाश-अघाेरी …. आजाद हैं । सब के सब उजले चेहरे लिये अपना-अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं । तुझे फंसा दिया ? अनाड़ी ही रही …तू , नेहा । चाल नहीं समझी , इन की …?’
नेहा की आंखों के सामने विगत बिछ जाता है ।
‘नाम किसी का नहीं लेना, नेहा ।’ वह चेतावनी सुनती है । वरना …तुम जानती तो हो …कि पल्लवी का क्या हुआ ? जानती हो – पुरोहित कहां गया ? और ….और पानी में मगर से बैर कर ….कब तक रहेगी , मेरी जान ? हम हैं । फिकर मत करना …..’
‘कहां आ कर फंसी , मैं …?’ आज नेहा का अंतर बोल रहा है । ‘क्यों फंसी …?’ वह पूछती है । ‘पैसा ….?’ एक ही उत्तर है जो बार-बार नेहा के सामने आ कर ठहर जाता है । ‘खुड़ैल ने ही सारा खेल – खेला ।’ नेहा बात की उंगली पकड़ती है । ‘फिर …। हां , फिर आया धवन ….और फिर नागपाल ? और ……और …हॉं, हॉं । सांपों की बमई पर बैठा …दुबई वाला ..वो – शेख शमीम ।’
‘इन सब सालों के नाम ….तू भी लिखवादे , नेहा ।’ उस का अंतर उमड़ आया है । ‘क्यों ….क्यों तू अकेली ही सजा लेती है ? ये …ये लोग …?’ ठहर जाता है , नेहा का दिमाग । उसे डर लगता है। कैसे कहेगी कि ये सब के सब देश-द्रोही हैं ? ये जो फिल्में बनाते हैं ….वो भी पूर्व निर्धारित प्रोजेक्ट हैं …और …..
‘तुझे मार देंगे ।’ स्पष्ट सुनती है , नेहा । ‘किसी को भी नहीं छोड़ा ?’ उसे याद हो आता है ।
‘यू आर द टाईगर ऑफ अवर टीम ,नेहा ।’ फिर से वह सुनती है । ‘डॉन्ट लुक बैक ….।’ आदेश आते हैं । ‘देखना नेहा …जब हमारा राज होगा ..साम्राज्य होगा …देश के मालिक हम होंगे ….और ….’
‘बैड ड्रीम …।’ नेहा ने लम्बी उच्छवास छोड़ी है । ‘कहॉं जाउं ….क्या करूं …?’ वह कोई निर्णय न ले पा रही है । ‘मैं …मैं ..क्या करूं, बाबू ?’ नेहा पूछ रही है । ‘मैं …मैं तुम्हारी तरह निडर नहीं हूँ …दिलेर नहीं हूँ ….समर्थ नहीं हूँ । और मैंने अपने ही हाथों तो सब मिटा दिया है …खो दिया है …? अब तो उन्हीं का राज है , बाबू । वो जीत गये ..और हम हार गये ये जिन्दगी , बाबू ।’
‘पर मेरा कसूर क्या था, नेहा ?’ वही बिलबिलाता विक्रांत का चेहरा नेहा की आंखों के सामने आ कर ठहर जाता है ।क्या उत्तर दे ? ‘हम जो अमर-प्रेमी थे । मैंने तो मान लिया था , नेहा कि …हम दोनों अब कभी जुदा न होंगे । याद है , नेहा । मैंने कहा था ….’
‘बस, बस, बाबू ।’ नेहा सुबकने लगी है । ‘बस कराे ….वरना मैं ….? वह अपने आस-पास को खोजने लगती है । चक्की में कोई नहीं है । ‘मैं सब बता दूंगी ….। एक-एक का नाम बता दूंगी, बाबू । अब नहीं डरूंगी । जान झौंक दूंगी …और …’ शपथ ले रही है ,नेहा । ‘गलती तो मुझी से हुई, बाबू ।’ हिलकियां बंध आई हैं , नेहा की । ‘माफ कर दो , मेरे बाबू ।’ वह याचना करती है । ‘तुम जैसा ….पुरुष…..?’
क्रमशः ……….