जय प्रकाश नारायण और जे बी कृपलानी की कमेटी के सामने चार प्रधान मंत्री बनने के उत्तराधिकारी थे – राज नारायण, चरण सिंह, मुरारजी देसाई और जगजीवन राम! उन दोनों ने इक्यासी साल के वृद्ध और अनुभवी मुरारजी देसाई को चुना था और देश का प्रधान मंत्री पद सर्व सम्मति से उन्हें सोंप दिया गया था!
“अटल जी को क्यों नहीं बनाया?” शिखा ने प्रश्न किया था। “संघर्ष हमने किया। संजय गांधी और इंदिरा गांधी को हमने हराया! ओर हमीं को ..?” रोष था शिखा की आवाज में। “नेहरू जी ने कहा था ..”
“परमात्मा को धन्यवाद दो कि अटल जी को विदेश मंत्री तो बना ही दिया।” हंस कर कहा था शिखर ने। “और अब नई मांग ये है कि अटल जी आर एस एस से इस्तीफा दें। सारे जनसंघी जो भी जनता दल में शामिल हैं आर एस एस से नाता तोड़ें नहीं तो ..”
“लेकिन क्यों?”
“इसलिए कि आर एस एस कम्यूनल है!” फिर से हंसा था शिखर। “इसलिए कि इस देश के मालिक हिन्दू, हिन्दू और हिन्दुस्तान के लिए अछूत हैं। इन्होंने गांधी जी को ..”शिखर ने रुक कर शिखा की आंखों में देखा था। “विडंबना तो यही है शिखा कि ये हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई – सब हैं सगे भाई भाई – का राग कुछ इस तरह से गाया गया है कि सच्चाई को पूरी तरह से सटक गया है।”
“तो ..?”
“तो ..! तो शिखा जब तक आर एस एस और जनता एक ही प्लेटफॉर्म पर आकर खड़े नहीं हो जाते तब तक ..!”
“लेकिन कब तक?”
जनता दल की सरकार के सामने अब एक अहम प्रश्न था – इंदिरा गांधी और संजय गांधी को जेल की सलाखों के पीछे भेजना! गृह मंत्री बने चरण सिंह से ये उम्मीदें लगाई जा रही थीं कि वो शीघ्रातिशीघ्र इन दोनों गुनहगारों को आजीवन कारावास दिलाएंगे और ..
“अंकल! प्रधान मंत्री तो आपने बनना था।” हैल्थ मिनिस्टर बने राज नारायण से लोग पूछ रहे थे। “आप ने हराया था इंदिरा जी को!” उनका कहना था। “ये मुरारजी तो चोर है। लूट रहा है देश को। अपना ही घर भर रहा है और अपने बेटे को ..”
कांग्रेस छोड़ कर आए जगजीवन राम को भी मलाल था कि उन्हें पी एम नहीं बनाया गया था। गृह मंत्री बने चरण सिंह भी कहीं नाखुश थे। उन्हें भी मलाल था कि वो पी एम क्यों नहीं बने? अब सरकार को न देश की चिंता थी न जनता की। उनके छोटे छोटे गुट आपस में अपने निजी स्वार्थों को लेकर भिड़ गए थे। किसी भी पार्टी के पास न अपना कोई सोच था न कोई संगठन। सब के सब पुराने कांग्रेसी थे और वो उसी ढर्रे पर चल पड़े थे।
जनता दल में विलय होने के बाद जन संघ की मुसीबत ये थी कि वो अपने उद्देश्यों के बारे अन्य नेताओं को समझा नहीं पा रहे थे। किसी को भी न देश हित की चिंता थी, न ही कोई हिन्दू राष्ट्र के लिए समर्पित था ओर न ही किसी को अखंड भारत से कुछ लेना देना था। उन्हें तो अपने निजी स्वार्थों से आगे और कुछ दिखाई देता ही नहीं था।
सब से पहले चरण सिंह ने गृह मंत्री के पद से त्याग पत्र दे दिया था।
संजय गांधी को अब उम्मीद थी कि अब वो संग्राम जीतेगा! उसका अपना ब्रिगेड फुल फॉर्म में काम में लगा था। और जब चरण सिंह को मना कर वित्त मंत्रालय सोंपा था ओर चरण सिंह ने बजट पेश किया था तो देश में हाय तोबा मच गई थी। जनता को लगा था कि ये सरकार निकम्मी थी और मुरारजी भाई नाम मात्र का ही प्रधान मंत्री था।
“आप पी एम बनिए न अंकल।” चरण सिंह को निमंत्रण मिला था। “हमारा फुल समर्थन आपको मिलेगा। आप की पार्टी किसानों की पार्टी है। आप ही देश के सच्चे कर्णधार हैं।” संजय ने स्वयं चरण सिंह को बताया था। “मुरारजी तो .. अब तो आप भी जानते हैं कि ..”
और वही हुआ था जिसकी संजय को उम्मीद थी।
“अब तो आप ही पी एम हैं अंकल!” संजय हंस रहा था। “प्लीज अब आप मेरे और मम्मी के सारे केस वापस करा दें! अब तो हम आपके साथ हैं!” संजय का आग्रह था।
अब चरण सिंह की समझ में न आया था कि करें तो क्या करें? लेकिन संजय का खेल उनकी समझ में आ गया था। बहुत सारे सबूत तो संजय स्वयं ही मिटा चुका था। ओर अब वह कह रहा था कि ..
“नहीं!” चरण सिंह साफ नाट गए थे। “मैं यह नहीं कर पाऊंगा संजय!”
“तो हमारी सपोर्ट भी नहीं मिलेगी अंकल! हमें क्या फायदा आपके पी एम बनने का?” कह कर संजय उठ गया था।
चरण सिंह की सरकार भी गिर गई थी।
एक बार फिर से ऊंट पहाड़ के नीचे आ गया था। 1980 जनवरी में हुए चुनावों में सारे किए धरे पर पानी फिर गया था। जनता दल टूट गया था। चुनावों में भारी पराजय हुई थी। इंदिरा गांधी को लोगों ने भारी बहुमत से चुना था और कांग्रेस की सरकार बनी थी। लोगों को लगा था कि उन्होंने अपनी मां दुर्गा और उसके सहायकों को फिर से चुन लिया था।
लेकिन उन्हें क्या पता था कि कबूतरों ने बाज को अपना नेता चुन लिया था।
“कमाल ही हुआ है कि शिखा कि संजय ने देखते देखते हमारी आंखों के सामने ही मुगल सल्तनत को कायम कर लिया।” शिखर की आवाज में परेखा था। “अब किसी को क्या दोष दें?” उसने निराशा पूर्ण निगाहों से शिखा को घूरा था। “है कोई विकल्प?” वह पूछ रहा था।
“अब इंदिरा की नहीं चलती!” शिखा ने स्पष्ट कहा था। “संजय अपने बाप का नाम तो पहले से ही नहीं जानता था अब वो अपनी मां का पता भी भूल गया है।” तनिक हंस गई थी शिखा। “अब तो ..” उसने कहीं दूर देखा था। “कितनी चतुराई से इस व्यक्ति ने सारी गोटें चुनी हैं – मैं तो हैरान हूँ।”
“हां!” शिखर ने भी हामी भरी थी। “राष्ट्रपति से लेकर सारे सी एम और यहां तक कि सारे कि सारे ब्यूरोक्रेट्स, ज्यूडीशियरी और पुलिस कहीं भी किसी भी प्रमुख पोस्ट पर आपको एक मुसलमान बैठा मिलेगा!” असमंजस था शिखर की आवाज में। “और ये सभी संजय के इशारों पर ..” उसने पलट कर शिखा की आंखों को पढ़ा था। “है कोई इलाज?” उसने प्रश्न पूछा था।
बड़ी देर तक दोनों के बीच चुप्पी बैठी रही थी। जनसंघ ने जनता दल टूटने के बाद भारतीय जनता पार्टी का गठन कर लिया था। अटल जी ने जो हिंदी में यू एन ओ में भाषण दिया था – उसे सराहा जा रहा था। भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता थे जिन्होंने जनता के बीच छाप छोड़ी थी। लेकिन कुल मिला कर तो ढाक पर वही तीन पत्ते थे और संजय का मुकाबला करना इस वक्त दूर की कौड़ी लाना था।
“जहां समस्या होती है वहां इलाज भी तो होता ही है!” शिखा ने एक लंबे सोच के बाद कहा था। “दो जोड़े आंखों के हैं जिन्हें मैंने पढ़ा है।” शिखा ने दूर की बात कही थी। “हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई के समीकरण में हिन्दू तो हारा ही बैठा है।” शिखा ने साफ कहा था। “लेकिन अभी सिक्ख और ईसाई मुसलमानों से हार मानने को तैयार नहीं हैं!” शिखा ने सीधा शिखर की आंखों में झांका था।
“तो ..?”
“तो .. लैट्स होप फॉर द बैस्ट!” शिखा ने बात पलट दी थी।
संजय गांधी का ब्रिगेड और उसके चुनिंदा यंग टर्क्स देश को बड़ी ही तेज रफ्तार के साथ दौड़ाने में लगे थे। असंभव लगने वाले काम संभव हो रहे थे ओर सरकारी काम में कहीं कोई रोड़ा न अटक रहा था। लेकिन ..
“अब तुम एक बेटे के बाप बन गए हो संजय!” शिखा कह रही थी। “अब तो सुधर जाओ!” हंस कर आग्रह किया था शिखा ने।
“मैं बिगड़ा कब था आंटी।” संजय ने भी हंस कर उत्तर दिया था। “डोंट बिलीव द रह्यूमर्स!” उसने संगीन आवाज में कहा था।
“इसे कुछ बना दो न इंदु!” शिखा ने मुड़ कर इंदिरा गांधी से आग्रह किया था। “और कुछ नहीं तो इसे यू पी का सी एम बना दो!”
सब एक साथ हंस पड़े थे। एक जोरों का अट्टहास हुआ था। शिखा ने जैसे आसमान को दीपक दिखाया था – ऐसा लगा था। संजय गांधी को रोकने वाला कोई भी ऐसा लालच न था – जो था। शिखा ने मेनका गांधी की आंखों में उस दर्प को देख लिया था और उसे सोनिया ने भी पहचान लिया था।
23 जून 1980 के दिन संजय ऊंचा आसमान में उड़ रहा था। नए लाल रंग के विमान में बैठा संजय अठखेलियां कर रहा था। साथ बैठे सक्सेना की जान सूखी जा रही थी। तभी संजय ने अचानक महसूसा था कि विमान का इंजन बंद हो गया था। पैनल पर देखा था तो पता चला था कि तेल की सूई जीरो पर थी। लेकिन .. लेकिन वो तो टेंक फुल लेकर चला था?
और तो और परमात्मा ने भी उस दिन संजय गांधी को आकर नहीं बचाया था।
संजय की मौत एक बेहद दुखद घटना थी। यूनुस को छाती पीट पीट कर रोते सब लोगों ने देखा था तो चंद प्रश्न पैदा हुए थे। इंदिरा गांधी को चाबियां तलाशते देख शिखा भी दंग रह गई थी। संजय एक पूरा इतिहास रच कर मरा था – ये तो पूरा जहान जान गया था। और फिर जितने मुंह थे उतनी बातें थीं। किसी के लिए संजय एक होनहार युवक था तो किसी के लिए आफत का परकाला था।
लेकिन अब न वो था न उसका डर था और हमेशा के लिए उसका सब कुछ उसके साथ चला गया था।
शोक संतप्त सोनिया के चेहरे को शिखा ने पढ़ने की कोशिश की थी। जहां मेनका बेहोश थी और इंदु पागल जैसी हो गई थी वहीं केवल सोनिया ही थी जो होश में थी।
ईसाइयों ने एक बार फिर मुगलों को परास्त कर दिया था।