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सॉरी बाबू भाग इक्कीस

सॉरी बाबू

धारावाहिक – 21

‘इजाजत लूंगी , मौसी ।’ प्रभा पूर्वी विश्वास से बतिया रही थी । ‘इसे ले जा रही हूँ । काम होते ही छोड़ जाऊंगी ।’ वह जल्दी में थी । ‘चाय उधार रही , आप की ।’ उस ने हंस कर कहा था ।

और अब मैं न जाने कहॉं थी ? कोई बहुमंजिला इमारत थी…और उस के सब से ऊपर वाले कमरे से आसमान और समुन्दर मिलते दिखाई दे रहे थे । अचानक ही मुझे मेरा और तुम्हारा मिलन याद हो आया था, बाबू । गले मिलते हम दोनों ….गलबहिंया डाले न जाने कहॉं चले जा रहे थे ?

‘है-लो , नेहा ।’ अचानक उस निपट एकांत में किसी ने मुझे पुकार-सा लिया था । ‘मैं सराेज सारंंग ।’ एक बेहद खूबसूरत महिला ने अपना परिचय दिया था । ‘तुम्हारा केस मैंने लिया नहीं ….पर प्रभा ने जाेर-जबरदस्ती मुझे सौंप दिया है ।’ डाक्टर सराेज सारंग मुझे ध्यान से देख रहीं थीं । ‘हुआ क्या ?’ उन्होंने पास बैठते हुए मुझ को लाढ़ से पूछा था ।

उन कृपा-स्वरूप डाक्टर सरोज सारंग को मैंने रो-रोकर खुड़ैल के किये उस घिनौने अपराध की कथा कह सुनाई थी ।

‘प्रभा बता रही थी कि ….आप का आज दुनिया में नाम है ….और आप ने ….?’

‘हॉं । जो मैंने किया है – तुम भी सुन लो , नेहा ।’ डाक्टर सरोज सारंग का स्वर बेहद मधुर था । ‘शायद तुम्हारे काम आये , मेरी कहानी ?’ वह हंस गईं थीं । ‘असीम अंसारी ने खुले आम कहा था कि ….अगर उसे सरोज न मिली तो ….वह कालेज के कैंपस में ….अपने आप को गोली मारेगा ….और …’ तनिक ठहर कर मुझे देखा था , डाक्टर सरोज सारंग ने । ‘हमारा प्यार चर्चित हो गया था । जग-जाहिर हो गया था ….और हम दिल्ली की सड़कों पर चलते-फिरते प्रेम-प्रतीक बन गये थे ।’

‘मुसलमान है ?’ सब से पहला विरोध मेरी मॉं ने किया था ।

सच, नेहा । मुझे अपनी मॉं पर उस दिन इतना क्रोध आया था ….जितना कभी शायद किसी हत्यारे पर भी न आया था । जिस तरह उन्होंने मुंह सिकोड़ कर ‘मुसलमान’ कहा था , मुझे बहुत बुरा लगा था । मॉं – जैसे हिन्दुस्तान की जड़ों में मट्ठा दे रहीं थीं ….देश तोड़ रहीं थीं …समाज को बदनाम कर रहीं थीं ….और …

चुप हो गईं थीं – डाक्टर सरोज सारंग ।

‘फिर ….आप ने ….?’ मैंने ही चुप्पी तोड़ी थी ।

‘मैं …..? मैंने नेहा असीम अंसारी के इशारे पर एक रात घर छोड़ा था ….सारे घर का जेवर और कैश ले कर …उस के साथ अमेरिका भाग गई थी । और एक दिन असीम अंंसारी सारा माल-टाल ले कर गायब हो गया था । मैं – अकेली …उस होटल के कमरे में , दिन में आसमान पर उगे तारों को गिन रही थी ।’ उन की ऑंखों में अपार वेदना उभर आई थी ।

‘फिर ….?’ मैंने ही उत्सुकता से पूछा था ।

‘इट्स …माई स्टार्ट पॉइंट , नेहा । ‘ उन्होंने संक्षिप्त उत्तर दिया था । ‘डॉन्ट वरी , बेटे ।’ उन का स्वर मृदुल हो आया था । ‘कौन जाने …..?’ उन का इशारा आसमान की ओर था ।

‘शादी की , आप ने ?’ मैंने एक बच्चे की उत्सुकता के साथ पूछ लिया था ।

‘नहीं ।’ कह कर वह जोरों से हंसीं थीं और उठ गईं थीं ।

मुझे होश लौटा था तो प्रभा चली आई थी । उसने मुझे ढ़ेरों पत्रिकाएं थमा दीं थीं । वह जानती थी कि मुझे मेरे इस एकांत में कोई संगी-साथी तो चाहिये था ?

‘सोचती हूँ , प्रभा कि तुम्हारे किये एहसानों का बदला चुका दूं ?’ मैं अब बेहद खुश मूड़ में थी । ‘ये लो । लो गंडा ।’ मैंने उसे पूर्वी विश्वास का लाया चुड़ैल भगाने वाला गंडा दिया था । ‘अब इसे तुम बांधो ।’ मैंने आदेश दिया था । ‘मेरी चुड़ैल …तो …..’

अब हम दोनों जोर-जोर से हंस रहीं थीं। प्रभा ने मेरी शरारत पर मुझ में दो-तीन हल्की-हल्की थापें जड़ीं थीं । और फिर हम दोनों अपनी और अपने समाज की बच्चों जैसी बेवकूफियों पर अफसोस जाहिर कर रहे थे जिस में डाक्टर सरोज सारंग से ले कर हम सब शामिल थे ।

और बाबू , उस विकट एकांत में ढेर सारी पत्रिकाओं के पन्ने उलटे-पलटते मेरी निगाहों के सामने अचानक तुम आ कर ठहर गये थे । हंस रहे थे …मेरी खैरियत पूछ रहे थे …और बता रहे थे , पोलेन्ड की कहानी ।

‘नहीं, राधे नहीं । कन्हैया किसी और का तो हाे ही नहीं सकता ?’ संवाद लिखा था जिसे मैंने न जाने कितनी-कितनी बार पढ़ा था । और फिर मैं तुम्हारे और नैनी रॉबर्ट के चित्र को देखती ही रही थी । झुक आये थे तुम नैनी के ऊपर …..और नैनी ने …..

अब मैं रोने लगी थी । न जाने क्यों नैनी मुझे अपनी दुश्मन लगी थी…..जानी दुश्मन । मैं उसे मार डालना चाहती थी …..मिटा देना चाहती थी । लेकिन फिर मैंने होश संभाला था । संगठित हो कर सब कुछ पढ़ा था ।

फिल्म का नाम ‘राधा’ मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था । और फिर दो शब्द लिखे थे – श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति में ही राधा-कृष्ण जैसा प्रेम संभव है । मरु भूमि में प्रेम का अंकुर कभी नहीं उगता ।

और, बाबू। फिर उस यूनीवर्सल पत्रिका में तुम्हारे बारे में ताे विस्तार से लिखा था कि तुम जैसा समर्थ अभिनेता ही नैनी रॉबर्ट के साथ ‘प्रेम’ के गूढ़ रहस्यों को उजागर करने में पूर्णतया सफल हुआ था ।

लगा था – संपूर्ण विश्व के सामने तुम …सनातन और संस्कृत के प्रतीक बने भविष्य को पुकार-पुकार कर बुला रहे थे….और बता रहे थे कि भारत ही संसार का गुरु है ….और ज्ञान का भंडार है ।

सहसा मुझे याद आया था कि आज मैंने न जाने कितने युगों के बाद अपने बाल धोये थे और अब बालों को सुखाने मैं बालकनी में चली आई थी। तभी मैंने सागर को सुना था ….आकाश को पुकारते हुए । और तभी मैं भी …अनायास ही…..तुम्हें पुकारने लगी थी , बाबू ।

प्रेम ही क्यों – मुझे तो आज तुम्हारे किये एक-एक उपकार का एहसान उतारने का मन था । मेरा मन था , बाबू कि – मैं भी तुम्हें राधा की तरह ही अपने मन-प्राण में बसा लूं । नैनी रॉबर्ट से मैं मुकाबला ले लूं ….और ….

‘नेहा निवास’ और फार्म हाउस में ‘नेहा’ के लिखे नाम से तुमने ताे अपना सारा जीवन मेरे नाम लिख ही दिया था , बाबू । लेकिन मैंने ही राधा का रोल नहीं किया ।नैनी जीत गई और मैं हार गई …..

ये कैसी विडंबना है , बाबू …..?

ऑंखें भर-भर आईं थीं , नेहा की ……

क्रमशः ……

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