Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

सॉरी बाबू भाग इकहत्तर

सॉरी बाबू

नेहा निर्दोष है – एक नारे की तरह पूरे देश में गूंज उठा है!

नेहा को जेल में बंद रखने की साजिश अंतरराष्ट्रीय है। एक बड़ा षड्यंत्र है जिसका उद्देश्य है गजवा-ए-हिंद। इस्लाम के विचारकों के अनुसार भारत को एक इस्लामिक देश होना ही चाहिये। अंग्रेजों ने भारत को मुसलमान शासकों से छीना था लेकिन जाते वक्त वापस नहीं किया, इसलिए ही मुसलमानों का धर्म है कि अपना हक हासिल करें और ..

“नेहा का बयान कि उसने विक्रांत की स्वयं हत्या की – झूठा है!” अखबार सम्राट में छपा है। और ये भी छपा है कि विक्रांत की हत्या दिन दहाड़े उसके घर पर की गई थी और उसमें सत्ताधारियों का पूर्ण सहयोग था। “कितनी भी मिट्टी डालें सच के शवों पर लेकिन उसे तो उजागर होना ही है।” अखबार का कहना है। “जल्द ही गिरफ्तारियां होंगी!” अखबार का ये इशारा भी गलत नहीं लगता।

विक्रांत की मौत का रहस्य उजागर होता ही चला जा रहा है। मनों मिट्टी डालने के बाद भी रमेश दत्त का नाम और काम इस घटना से जुड़ता ही चला जा रहा है। लोग मुंह पर नहीं कहते पर हर किसी के मन में दत्त साहब का नाम ही अंकित है। कौन नहीं जानता कि दत्त साहब आज भी नेहा की फिराक में कैमरा लिए बैठे हैं ताकि कोरा मंडी पूरी कर लें और फिर ..

अचानक ही रमेश दत्त को दिल्ली याद हो आई थी!

“हमीदा बेगम! कुछ कर भी रही हो?” दत्त साहब की आवाज में रोष था। “तुम्हें किस लिए भेजा था दिल्ली?” उनका प्रश्न था। “कल को अगर प्रिंस अरेस्ट हो गया तो तुम्हारी खैर नहीं!” उन्होंने एक चेतावनी दी थी।

“क्या है दत्त साहब कि मामला बहुत ही पेचीदा हो गया है।” हमीदा बेगम की आवाज कुछ सहमी सहमी थी। “ये कह रहे थे कि – कासिम को कहो – लाई लो!” हमीदा बेगम बता रही थीं।

रमेश दत्त के ललाट पर पसीना आ गया था। वो घबरा गये थे। हाथ आते आते जैसे हिन्दुस्तान उन से दूर भाग गया था और .. हिन्दू ..

“क्या है हिन्दू दत्त साहब!” उन्हें अचानक पोंटू की दहाड़ सुनाई दी थी। “मैंने भी देख लिया है न!” वह कह रहा था। “बीड़ी पर बिकता है हिन्दू! लालची है हिन्दू! आज नहीं तो कल हमारे काबू आ ही जाएगा हिन्दू!” वह खुल कर हंसा था।

लेकिन आज तो अचानक ही सारा हिन्दू समाज उनके सामने आ खड़ा हुआ था। और अगर प्रिंस अरेस्ट हो जाता है .. तो .. फिर तो ..

“किसी तरह भी नेहा को जेल से निकालो .. बहका लो .. मना लो और फिर तो सारे मनोरथ पूरे हो ही जाएंगे!” दत्त साहब के दिमाग ने उन्हें आदेश दिये थे। “नेहा ही कुंजी है इस केस की!” उन्होंने मान लिया था। “नेहा किसी भी तरह मान जाए और कोरा मंडी पूरी हो जाए तो फिर तो फतह के डंके ही बाजेंगे! वरना तो ..”

फिल्म जगत में आज भी कोरा मंडी और काल खंड आमने सामने खड़ी दो ऐसी निर्णायक फिल्में थीं जिन्होंने देश के भाग्य और दुर्भाग्य का फैसला करना था। बजते संगीत से और हवा में उछलते संवादों से ही पता चलता था कि दोनों फिल्मों का उद्देश्य अलग अलग था और दोनों ही देश काल के दो रास्ते बताने का थीं जिन पर युवा पीढ़ी को अग्रसर होना था। जहां कोरा मंडी जी भर कर जीने की राह बताती थी तो वहीं काल खंड एक सामाजिक क्रांति की ओर इशारा करती थी जो युवा पीढ़ी की जिम्मेदारी थी।

“काल खंड को तो डिब्बे में ही बंद रखेंगे, गुरु!” धवन का कहना था। “अगर ये फिल्म रिलीज हुई तो गदर मचा जाएगी!” उसका कहना था। “नंगा कर देगी ये फिल्म हम सब को!” उसका अनुमान था।

रमेश दत्त के सामने अपना ही बिछाया जाल उठ खड़ा हुआ था।

फिल्मों की कहानियां, फिल्मों के किरदार, फिल्मों की चकाचौंध और फिल्मों के संवाद लोगों की जबान पर जा चढ़े थे। एक बार को तो फतह का डंका बज ही गया था जब सारे मुसलमान लेखक, गायक, कलाकार और संगीतकार फिल्मों पर छा गये थे और लोगों के दिलोदिमाग को जीत लिया था। भूल ही गये थे हिन्दू कि मुसलमान उनके दुश्मन थे ओर उनका देश उनसे हड़प लेना चाहते थे। बुरा हो इस बेवकूफ विक्रांत का .. इस निर्लज्ज बिहारी का जिसने सोते सांप को जगा दिया!

“अब तो दिल्ली से ही कुछ खात पानी हो सकता है!” रमेश दत्त का अनुमान था। “किसी तरह से अगर सत्ता का तख्ता पलट जाए और कोई ऐसी जुगत भिड़े कि फिर से नसीम भाई केन्द्र की किसी कुर्सी पर आ बैठें .. तो .. तो” एक सुंदर सा ख्वाब था – जो यूं ही चला आया था – दत्त साहब के पास!” और फिर उन्हें वो वक्त भी याद हो आया था जब हर मौके की जगह पर और हर मुबारक मुकाम पर मुसलमान शासक और नेता विराजमान थे और इस्लाम ने हर रोज कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ी थीं। तब तो मुमकिन लगा था कि हिन्दुस्तान के हाथ लग जाएगा! हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई का फूंका झूठा शंखनाद यह साबित कर बैठा था कि यहां सब भाई भाई थे और वो सब एक ही देश के नागरिक थे। मुस्लिम लीग की चली गुप्त चालों की भनक तक किसी को न लगी थी और जो जानते थे उनके मुंह बंद कर दिये थे – सावधानी से!

लेकिन बनते बनते खेल बिगड़ गया था – रमेश दत्त ने महसूसा था।

“अभी भी दिल्ली दूर नहीं है!” किसी ने रमेश दत्त के कान में कहा था। “पाकिस्तान और बांग्लादेश दो समर्थ बाजुओं की तरह घेरे खड़े हैं हिन्दुस्तान को!” उनका दिमाग बता रहा था। “कल को जरूरत पड़ी तो .. धमाका होगा और फिर तो ..” मुसकुराए थे रमेश दत्त। “हिन्दू तो अहिंसा के पुजारी हैं!” उनका मन खिल उठा था। “जबकि मुसलमान तो ..”

निरीह हिन्दुओं को कत्ल करते मुसलमान आक्रमणकारी अचानक ही रमेश दत्त के जहन में उठ खड़े हुए थे – काफिलों की तरह और काफिरों को काटते बांटते नजर आये थे।

“तन को जो भाए और मन जिसे चाहे वही सच्चा मीत होता है नेहा!” कहते हुए सरिता ने नेहा की आंखों में झांका था। “कैसी कंचन सी काया है तेरी!” सरिता ने नेहा को सराहा था। “मैंने तेरे तड़पते मन को कई बार अकेले में डोलते फिरते देखा है!” वह हंस रही थी। “कब तक रहेगी इस जेल में?” उसने पूछा था। “क्यों पड़ी है तू यहां?” उसका उलाहना था। “जब तेरी बेल हो गई है ओर तू बाहर जा सकती है .. तो ..?”

“मेरा है कौन बाहर सरिता?” टीस कर कहा था नेहा ने। “बाबू था सो मर गया ..” आंखें सजल हो आई थीं नेहा की।

“अरे यार! सड़क पर चलते चलते मीत मिल जाते हैं!” हंस पड़ी थी सरिता। “सच मान नेहा! मैं और रहमान यूं ही चलते चलते मिले थे और दिल दे बैठे थे!” सरिता ने नेहा को अब गौर से देखा था। कितनी नशीली थी नेहा। “घर वालों ने बात नहीं मानी थी और मेरी शादी मोहन लाल से कर दी थी। लेकिन सच मान कि अपनी ससुराल के घर में मेरा मन लगा ही नहीं! सास ससुर से लेकर ननद देवर तक सब मुझे दुश्मन ही नजर आते थे और जब कभी चोरी छुपे रहमान आ कर मिलता था तो .. तो .. गजब हो जाता था। प्रेमाकुल हुए हम दोनों प्यार के बहते झरनों में नहा नहा कर बावले हो जाते थे।”

“मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता सरिता!” नेहा ने संयत आवाज में कहा था।

“घुट घुट कर जेल में मरना अच्छा लगता है?” कड़क कर पूछा था सरिता ने। “मैंने तो रहमान के साथ मिल कर कत्ल कर दिया था मोहन लाल का! किस्मत ही खराब थी जो हम पकड़े गये वरना तो मौज कर रहे होते!” मुसकुरा रही थी सरिता। “सब चलता है – प्रेम प्रीत में यार!” उसने नेहा के कंधे पर हाथ धरा था। “हम दोनों अब जेल में हैं। यहां भी खूब मौज लेते हैं। शनिवार को मिल आती हूँ तो फ्रेश हो जाती हूँ!” सरिता ने निरी निर्लज्ज आंखों से नेहा को निहारा था।

“लेकिन मैं .. लेकिन मैं तो ..” नेहा कह नहीं पा रही थी कि वो अब अपने बाबू के लिए ही जीना चाहती थी। “मेरा मन अब बैरागी हो गया है सरिता!” नेहा ने जान बचानी चाही थी।

सरिता के साथ नेहा की दोस्ती पक्की हो गई थी। चार महीनों से दोनों साथ साथ एक ही चक्की में रह रही थीं। सरिता उसका बहुत ख्याल रखती थी। उसे खूब खिलाती पिलाती थी और खूब हंसाती गुदगुदाती थी। जेल के उन वीरानों में उसे सरिता एक सहोदर की तरह सम्हालती रहती थी।

“देख नेहा सरकारी वकील से बात कर लेते हैं ओर जब मेरा भाई मुझसे मिलने आयेगा तो मैं उसे बता दूंगी कि तेरे लिए गवाही का बंदोबस्त कर ले! बाहर निकल मेरी छोटी बहन! बहारों का क्या पता कहां खड़ी मिल जाएं!” वह हंस रही थी। “अभी तेरी उम्र ही क्या है?”

और अचानक ही नेहा को जेल के बाहर उसके इंतजार में खड़ा एक जहान दिखाई दे गया था। कोरा मंडी अभी पूरी कहां हुई थी। रमेश दत्त अभी भी उसके इंतजार में सूख रहा था। और एक वो शहजादा सलीम भी तो था जो उसी के साथ कोरा मंडी में काम करना चाहता था। और .. वो शूटिंग .. वो गहमागहमी और सेटों पर जुटी रौनक और वो चुहल भरे दिन ओर वो मौज मस्ती की रातें .. और .. वो ..

नेहा ने सरिता की युक्ति मान ली थी।

एक बाहर जाने का सिलसिला उठ खड़ा हुआ था। सरिता के साथ वह सरकारी वकील से बातें कर आई थी। अब वह निकलते बढ़ते कल्पतरु को चलती फिरती निगाहों से देखती थी और मुलाहजा में ही बैठ घंटों सरिता से ही गपियाती रहती थी। उसका मन पलट गया था।

“मुझे मेरा इनाम देना मत भूलिये, दत्त साहब!” मिलाई पर आये रमेश दत्त से सरिता अपनी गोट पटा रही थी। “मैंने ही उसका दिमाग फेरा है, ये और किसी के बस की बात नहीं थी!” सरिता हंस रही थी। “आप तो जानते हैं कि ..”

रमेश दत्त ने खोजा निगाहों से सरिता को परखा था।

सरिता सुंदर थी। सरिता काम की चीज थी और फिर दत्त साहब ने तीसरे नम्बर पर नेहा को रखते हुए चौथे पर सरिता की गिनती कर ली थी।

“यू नो आई लव हिन्दू गर्लस!” दत्त साहब ने हंसते हुए कहा था। “एंड यू आर दि वन दिस टाइम!” उनका इजहार था।

सरिता का मन बहारों के बगीचों में डोल आया था।

और रमेश दत्त भी आज अपने मन की मुराद पा गये थे। एक लम्बी तपस्या के बाद ही आज की आशा किरण का जन्म हुआ था। नेहा बाहर आएगी .. नेहा .. नेहा .. कोरा मंडी के सेट पर ..

“पहले आजमगढ़!” रमेश दत्त ने स्वयं को आदेश दिया था। “नेहा से निकाह पहले और काम बाद में!” उनका निर्णय था। “कोरा मंडी आखिरी फिल्म होगी और उसके बाद तो आजमगढ़ में बैठ कर गजवा-ए-हिन्द हासिल करेंगे!” दत्त साहब ने एक शहंशाह का सा फरमान जारी किया था। “पॉलिटिक्स .. वह मुसकुराते रहे थे – कई पलों तक।

नेहा को अजीब सा कुछ आस पास घिर आया लगा था।

वह बार बार अपने आप से ही आंखें चुरा रही थी। हर बार ही जबान पर आये विक्रांत के नाम को वह भूल जाना चाहती थी। वह भूल जाना चाहती थी उस काल खंड को जो उसने विक्रांत के सहवास में जिया था। वह भूल जाना चाहती थी उस हादसे को जो उसके साथ हुआ था .. और .. और

सॉरी बाबू! एक गहरा गम नेहा की आंखों में छलक आया था।

आई एम वैरी वैरी सॉरी बाबू वह रोते रोते कहती रही थी!

मेजर कृपाल वर्मा

Exit mobile version