तीस तारीख की सुबह जब रमेश दत्त आए अखबारों का पुलिंदा लेकर घर में घुसा था तो घर वालों के होश उड़ गए थे।
“इस पागल ने .. इस गधे ने ये क्या कर डाला, नेहा!” रमेश दत्त ने करुण स्वरों में गुहार लगाई थी। “मैं .. मैं तो” वह पागलों की तरह एक्टिंग कर रहा था। “आत्म हत्या!” उसने हाथ हवा में फेंक कर ऐलान किया था। “जहर खा कर मर गया!” रमेश दत्त रोने रोने को था।
“कौन मर गया ..?” बाबा ने डरते डरते पूछा था।
समीर, पूर्वा ओर नेहा अभी भी आंगन में मूर्तिवत खड़े थे। उनकी समझ में रमेश दत्त का ड्रामा न आ रहा था।
“विक्रांत मर गया नेहा!” रमेश दत्त ने रोने का आडंबर किया था। “मर गया ..” उसने अपने चेहरे को हाथों में भर लिया था।
“क्या ..?” पूर्वी का भयातुर प्रश्न आया था। “क्या कहा ..?” वह गिरने गिरने को थी।
“क्या कह रहे हो दत्त सर?” समीर ने हकलाते हुए पूछा था। “विक्रांत कैसे मर सकता है?”
“जहर खाकर मर गया! आत्म हत्या कर ली पागल ने!” रमेश दत्त ने स्पष्ट संदेश दिया था। “पढ़ लो अखबार!” उसने अखबारों के ढेर की ओर इशारा किया था। “लिखा है .. लिखा है कि .. कि .. नेहा की बेवफाई की वजह से ..”
“नहीं ..!” नेहा ने चीख कर कहा था। “ये गलत है! ये झूठ है। ये .. ये ..” नेहा रमेश दत्त की ओर दो कदम चल कर आई थी। उसने रमेश दत्त को कॉलर से पकड़ लिया था। “झूठ .. झूठ .. झूठ बोल रहे हो तुम!” नेहा ने उसे ललकारा था। “ये .. ये .. तुम्हारी ही कोई चाल है! तुम्ही ने मारा होगा बाबू को ..” नेहा ने रमेश दत्त की आंखों में देखा था। “मैं .. मैं ..”
“कसम ले लो नेहा!” गिड़गिड़ाया था रमेश दत्त। “मुझे दोजख में जगह न मिले! मैं बेकसूर हूँ! मुझे तो .. मुझे तो अखबारों से ही पता चला कि ..”
नेहा ने रमेश दत्त का कॉलर छोड़ दिया था। नेहा को लगा था कि उसकी चेतना चली जा रही थी। उसकी आंखों के सामने अंधकार घिर आया था। फिर वह कटे पेड़ की तरह जमीन पर आ गिरी थी। समीर ने दौड़ कर नेहा को संभाला था। पूर्वी दौड़ी थी। उसने नेहा के चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे दिए थे। बाबा निस्तब्ध खड़े खड़े करुण दृश्य को देख रहे थे – असंपृक्त!
“बा – बू!” अचानक नेहा जिबह होती गाय की तरह डकराई थी। “नहीं .. नहीं .. बाबू .. नहीं!” वह हाथ पैर पटक रही थी। “नहीं नहीं! तुम मरे नहीं हो! तुम मर नहीं सकते बाबू! नेहा विक्षिप्त थी। “तुम्हें .. तुम्हें ..”
“लाश लेने तक कोई नहीं पहुंचा है!” रमेश दत्त ने सूचना दी थी। “हम तो – हम तो भाई लाश को छू भी नहीं सकते!” उसने मुसलमान होने का उलाहना दिया था। “लोग न जाने क्या क्या कह रहे हैं .. कि वो .. क्या क्या नहीं था।”
अनायास ही नेहा उठ बैठी थी। उसने सीधा समीर को देखा था।
“चलो, भइया! लाश लेकर आते हैं – बाबू की!” उसने आदेश दिया था। “चलो चलें! जल्दी करो!” वह एक दौड़ भाग में जुट गई थी।
पूरी दोपहर धक्के खाने के बाद दोनों बहन भाई मॉरचुरी पहुंचे थे तो उन्हें किसी ने भी पहचानने से मना कर दिया था।
“तुम्हारा नाम है ही नहीं!” सभी का एक ही उत्तर था। “तुम कौन हो – हम क्या जानें?”
“मैं .. मैं नेहा हूँ!” विनम्र भाव से नेहा कह रही थी। “मैं .. मैं विक्रांत बाबू की ..” कह नहीं पा रही थी नेहा कि वो और विक्रांत अमर प्रेमी थे – एक दूजे के थे और ..। “एक बार .. बस एक बार .. बाबू के दर्शन .. बाबू का मुख देख लूंगी तो जी लूंगी!” नेहा की आवाज आद्र थी।
दया और करुणा का उदय न जाने कैसे हुआ था ओर न जाने क्यों चुपचाप उन्होंने विक्रांत का मुख खोल कर दिखा दिया था। तत्पश्चात ही विक्रांत का शव दाह गृह में लिफ्ट से उतर गया था।
“बा-बू!” नेहा ने गुहार लगाई थी। “आई एम सॉरी बाबू! आई एम सॉरी माई लव!” वह बिलख रही थी। “गलती हो गई बाबू ..” आंसू बह रहे थे नेहा की आंखों से। “माफी .. माफी .. माफी दे दो बाबू!” नेहा हाथ जोड़े खड़ी ही रही थी।
विक्रांत की मौत का साया बंबई के क्षितिज पर छपा खड़ा था।
अखबारों में विक्रांत की मौत की मुकम्मल कहानियां छपी थीं। सभी अखबारों ने उसकी बैन हुई फिल्म – काल खंड का विस्तार में वर्णन किया था। उसी के साथ साथ विक्रांत और नेहा के संबंधों में आई दरार को भी खूब लिखा था। कमाल ले भी था कि बंबई मेटरनिटी होम के उस पत्र का जिक्र हर जगह था ओर नेहा को बदनाम करने में कोई भी पीछे न छूटा था। विक्रांत की मौत एक प्रेमी की मौत थी जिसे उसकी प्रेमिका ने मरने पर मजबूर कर दिया था ओर उसका सारा माल असबाब अपने काबू कर लिया था।
लेकिन बंबई की सड़कों पर एक अलग ही नजारा देखने को मिल रहा था।
“हत्या है ..!” लोग सरेआम कह रहे थे – चीख चीख कर कह रहे थे। “इसलिए मारा है उसे कि वो एक महान कलाकार था। विक्रांत एक होनहार युवक था। इतना निष्ठावान, चरित्रवान ओर पढ़ा लिखा ऐक्टर और है कौन? बॉलीवुड उससे डर गया था। काल खंड को बैन कराया गया था। साजिश रची गई थी। अगर फिल्म आज भी रिलीज हो जाए तो ..”
मीडिया और पत्रकारों ने भी अब आवाजें उठाना आरम्भ कर दिया था।
सुधीर ने अखबार पढ़ा था तो उसको अपना शक सच हो गया लगा था। उसे पोपट लाल और वो मुसलमान कासिम बेग हत्यारे लगे थे।
“हम चुप न बैठेंगे मित्रों!” सुधीर ने इलाहाबाद में ही घोषणा कर दी थी। “अब हम बंबई की ईंट से ईंट बजा कर रहेंगे।” सुधीर का ऐलान था। “दल बल के साथ चलते हैं बंबई। ये मौका है जब हम अपनी बात सड़कों पर कहेंगे, जनता के सामने रक्खेंगे ओर लोगों को खुलकर बताएंगे कि आखिर बॉलीवुड में हो क्या रहा है .. चल क्या रहा है!”
“लगता है अब तो लड़ना ही पड़ेगा सुधीर बाबू!” माननीय रस्तोगी जी भी मान गए थे कि अब हिन्दुओं के एक जुट होकर लड़ने के दिन आ गए थे। “देश तो बचाना ही होगा!” उनकी राय थी। “फिल्मों में कुछ ज्यादा ही गंद मची है।” वह टीस आए थे। “न जाने बनाते क्या हैं? कोई बहन बेटी के साथ बैठ कर फिल्म देख ही नहीं सकता।”
“लगता नहीं बेटी बचेगी!” पूर्वी ने आहिस्ता से बाबा के कान में कहा था। “दोनों अमर प्रेमी थे।” पूर्वी बता रही थी। “मैंने तो उसे दामाद मान ही लिया था। खोटे काम किए होगे .. जो ..” पूर्वी के आंसू टपक रहे थे।
“होतव्य को कोई रोक नहीं सकता पूर्वी!” बाबा ने दार्शनिक के अंदाज में कहा था। “हम दोनों के नसीब हैं! जो लिखा है – वो तो होगा!” कहते हुए उन्होंने सूने सूने आकाश को देखा था।
माधवी कांत अस्ताचल में जाते सूरज को देख रही थी।
अखबारों में छपी खबरों को उन्होंने पढ़ा था। विक्रांत के साथ हुए संवादों को भी उन्होंने बार बार सुना था। और सुना था – अनहोनी की उन आवाजों को जो अब अनवरत आती ही रहती थीं। कई बार .. कई बार उनका मन बना था कि बंबई चल कर विक्रांत ओर नेहा का एका करा दें। लेकिन ..
“मैं .. मैं स्वयं ही संभाल लूंगा – सब कुछ, मां!” बार बार कहता था विक्रांत। “आप फिकर मत करो। आप का बेटा इतना कमजोर नहीं है .. कि ..”
“तू जाकर नेहा को ले आ!” कई बार उन्होंने आदेश दिया था।
“उसे आने तो दो मां!”
“वो नहीं आएगी, पगले!” टीस कर कहा था माधवी ने। “तू नहीं जानता कि एक स्त्री को अपना स्वाभिमान कितना प्यारा होता है! जाकर उसे ले आ बेटे!” उनका यही आग्रह होता था। “कोई कुछ भी कहे – कहता रहे! नेहा मेरी बहू है!”
और फिर सपने आते और माधवी को चारों ओर से घेर कर खड़े हो जाते!
“आते ही इनका ब्याह कर दूंगी!” बार बार माधवी सोचती। “उसके बाद कोई फिल्म-शिल्म नहीं बनेगी।” अपना इरादा बार बार दोहराती माधवी। “बच्चे ..” कहते कहते वह हंसने लगती। “मूल से ब्याज कितनी प्यारी होती है!” वह सोचती ही रहती।
“कांत साहब को भी तो लोगों ने मारा ही था।” माधवी को याद आने लगता। “उनका जुर्म भी तो ईमानदारी ही था।” वह सोचती। “और बेटा भी बाप का ही था। मारा गया सिद्धांतों के पीछे!” आंसू भर आए थे माधवी की आंखों में। “ये क्या न्याय हुआ परमेश्वर?” वह पूछ रही थी। “मेरी तकदीर में ही सारे गम क्यों लिख दिए?”
मोहन सिंह स्टेट शोकाकुल थी। न जाने कैसे मौली को भी माधवी का गम ज्ञात हो गया था। खरगोश भी खुश नहीं थे। गुलाबों की क्यारियां भी मुरझाई हुई थीं। बस एक पूरनमल ही था – चहकता चीखता रहता था।
सूरज डूबता ही चला जा रहा था। शाम सामने खड़ी विदाई मांग रही थी। अंधेरा आने आने को था। लेकिन निराशा जाने का नाम न ले रही थी। माधवी अपनी समूची प्रज्ञा लगा कर भी बेटे के गम को भुला न पा रही थी।
तभी .. अचानक शेखर आ गया था।
“अब क्यों आया है?” माधवी कांत ने करुण आवाज में शेखर से प्रश्न पूछा था।
और वो एकाएक दहाड़ें मार मार कर रोने लगी थीं!
शेखर ने माधवी कांत को अपनी बलिष्ठ बांहों में समेट लिया था।
मेजर कृपाल वर्मा