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सॉरी बाबू भाग एक सौ सात

सॉरी बाबू

नेहा की बीमारी की खबर पाते ही डॉ. प्रभा दौड़ी चली आई थी।

नेहा की आंखों को उसने पढ़ा था तो प्रभा चौंक पड़ी थी। उन आंखों में तो एक ठंडी आग सुलग रही थी। एक ज्वालामुखी बह निकलने को वहां आतुर बैठा था। एक अशुभ था .. एक – एक शोक था जिसे महसूस करती डॉ. प्रभा होश खोने लगी थी। हुआ क्या – उसकी जिज्ञासा अभी भी उसके पास बैठी थी, उत्तर तो अभी आने थे।

“कित्ते में बेचा मुझे?” नेहा ने डॉ. प्रभा से सीधा प्रश्न पूछा था। नेहा की आवाज कांप गई थी। अपनी बरबादी का दर्द उसके दांतों तले दबा था। “अरी करमजली!” टीसते हुए नेहा बोली थी। “पैसे तो मैं ही दे देती तुझे! तूने मांगे तो होते .. कहा तो होता?” नेहा ने अब सीधे डॉ. प्रभा की आंखों में देखा था। स्नात घृणा थी उसकी चलकर आई नजर में। क्रोध था – जो चेहरे से टपका जा रहा था। “बहुत बहुत गहरा घाव दे दिया तूने प्रभा!” नेहा के होंठ कांपने लगे थे। वो अब रो देना चाहती थी।

प्रभा बेदम थी। प्रभा आश्चर्य चकित थी। नेहा के लगाए लांछन उसकी समझ न आ रहे थे लेकिन हां हुआ तो कुछ था और ऐसा कुछ जिसने नेहा के सारे स्वर्ग फूंक डाले थे।

“अब बता हुआ क्या है?” डॉक्टर प्रभा ने नेहा के हाथ को हाथों में ले लिया था और एक आत्मीयता को खोजते हुए उसने एक ईमानदार प्रश्न पूछा था।

“विक्रांत के सामने तूने मुझे यों नंगा खड़ा क्यों कर दिया?” नेहा पूछ रही थी।

“लेकिन कैसे? लेकिन कहां? कब .. कब किया मैंने ऐसा कुछ .. नेहा ..”

“खुड़ैल को वो पत्र क्या तुमने नहीं दिया?” नेहा की आंखें जल रही थीं।

“कौन सा पत्र ..? ये तू क्या कह रही है?” चौंकी थी प्रभा। “तेरे सर की कसम नेहा मैंने उसे कोई पत्र नहीं दिया। मैं तो उससे कभी मिली ही नहीं। मैं .. मैं .. भला ..” अब डॉक्टर प्रभा भी सुबकने लगी थी। “नहीं नहीं! नहीं मेरी बहन मैंने ..”

अब चौंकने की बारी नेहा की थी।

“वो एबॉरशन का बिल – बॉम्बे मेटरनिटी होम प्राइवेट लिमिटिड का लिफाफा और वो भी विक्रांत के नाम?” नेहा पूछ रही थी। “उड़कर तो नहीं आएगा?” नेहा ने जोर देकर पूछा था। “तुम्हारे सिवा तो और कोई बीच में था ही नहीं!”

“हां! ये तो सच है!” प्रभा ने मान लिया था। “लेकिन .. लेकिन” डॉ. प्रभा भी अचंभित थी। “लैट मी .. लैट मी चेक इट नेहा! लैट मी .. फाइंड एन आनसर?” कहते हुए डॉ. प्रभा उलटे पैरों लौट गई थी।

विक्रांत के सर पर तो जैसे आसमान टूट कर गिर गया था।

बहुत गहरी चोट लगी थी – विक्रांत महसूस रहा था। इस तरह की टीसों को उसने पहले कभी नहीं झेला था। लगी चोटों की परियां विक्रांत का परिहास कर रही थीं। जैसे पूछ रही थीं – क्यों पुरोधा! है कोई इलाज तुम्हारे पास हमारे दिए इन अनोखे घावों का?

“नेहा ने छल क्यों किया?” अचानक ही विक्रांत ने स्वयं से प्रश्न पूछ लिया है।

फिर उसने पलट कर अपने पूरे विगत को पढ़ा है। उसने निरखा परखा है – अपने आचरण, अपना चरित्र और अपने तमाम क्रिया-कलापों को और जानने की कोशिश की है किसी ऐसे खोट को जिसने नेहा को ये चोट दे दी हो! लेकिन .. लेकिन ..

“किसका बच्चा होगा?” डरते डरते विक्रांत ने फिर एक प्रश्न और पूछा है। “कौन है वो राक्षस .. जिसने मेरी परम पवित्र गंगा में जहर बोया होगा?” विक्रांत की दृष्टि ने भाग भाग कर पूरे ब्रह्माण्ड की खबर ले ली है।

“कासिम बेग के अलावा और कौन हो सकता है?” प्रति प्रश्न आया है और विक्रांत के सामने खड़ा ही रहा है। “पत्र उसने दिया है .. तो अपवित्र भी उसी ने किया है।” एक प्रमाण भी सामने आ खड़ा हुआ है।

“अब क्या करोगे? उसने तो ..”

चुप है विक्रांत। कोई तूफान आज उसके भीतर से जन्म ही नहीं ले रहा है। न जाने क्यों भीतर की सारी आवाजाही आज बंद है। न भाव हैं .. न भावनाएं हैं .. और न जोश है और न रोष है! जिंदगी एक खाली बर्तन की तरह उसके सामने उलटे मुंह आ खड़ी हुई है।

वो करे भी तो क्या करे?

नेहा को ऑफिस जाना था। उसे सुधीर का बुलावा भूला कहां था?

लेकिन .. लेकिन नेहा के पैर थे कि चलकर ही न दे रहे थे। उसका दिमाग था कि उड़ा ही जा रहा था। वह कहीं दूर देश में जाकर बस जाना चाहती थी। उसकी निगाहों ने उसी के सामने उसके जलते अरमानों की चिताएं दिखा दी थीं। नेहा नर्वस थी। कैसे रोके बहती बयार को और कैसे नाट जाए सामने आ खड़े हुए दुर्भाग्य से?

“ओह गॉड!” आह भरी थी नेहा ने। “आयल गो मैड!” प्रत्यक्ष में बोली थी नेहा।

समीर स्थिति से अनभिज्ञ न था। उसे जम गया था कि जरूर कुछ बेहद भयानक घट गया था और उसकी जिज्जी का सुखी संसार उजड़ता ही चला जा रहा था।

“कैसे जाऊं ऑफिस ..?” हार थक कर नेहा भीतर के कमरे में जा बैठी थी।

“अपने नन्हे को याद करो ओर ये लो एक नन्ही सी गोली!” समीर पानी का गिलास लिए सामने खड़ा था। “कैसा भी टेढ़ा टेंशन हो – लमहों में भागेगा!” समीर हंस रहा था। “हम तो हकीम ही इसी बीमारी के हैं जिज्जी!” उसने नेहा को धीरज बंधाया था।

और अनमनी नेहा ने वो नन्ही गोली पानी के साथ सटक ली थी।

पल छिन बीता ही होगा कि नेहा के भीतर एक अनजान उजाला लौट आया था। और लगा था जैसे नेहा का मन फिर से वही सब कुछ मांग बैठा था। वह ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगी थी। लेकिन आज पहली बार ही था कि नेहा कौन से कपड़े पहने ये निर्णय ही न ले पा रही थी। वह जानती तो थी कि .. बाबू ने ..? फिर न जाने कैसे एक नई उमंग के साथ नेहा ने पूर्वा के लिए लाई नई हल्के-फुल्के प्रिंट की साड़ियों में से एक खींची थी और करीने से पहन कर शीशे में अपने आप को देखा था।

“ओ माई माई!” नेहा स्वयं ही बोल रही थी। “तू तो उड़न परी लग रही है नेहा।”

अब ऑफिस जाते वक्त नेहा डर नहीं रही थी।

विक्रांत ने नेहा को आते देख लिया था। हल्के प्रिंट की साड़ी पहने वो बेहद ही हल्के मूड में दिखी थी। और उसके आते ही जो ऑफिस में हलचल हुई थी – वो भी एक अलग ही घटना जैसी थी। सुधीर के खिले चेहरे को देख विक्रांत भी चौंका था। सारा ऑफिस और सारे चर चपरासी न जाने कैसे सजग से हो गए थे। एक नया उजास ऑफिस में पहली बार भर आया था।

और अकेला कुर्सी पर बैठा बैठा विक्रांत अपनी विपत्तियों को झोटे देता रहा था और अपने आप से जंग ठाने बैठा ही रहा था। नेहा की एक नजर पाने के लोभ ने उसे खूब ठगा था। कई बार मन भी हुआ था कि नेहा से हैलो तो बोल दे! लेकिन बार बार – हर बार उसकी हिम्मत टूट जाती। वह नेहा से हार जाता। वह हर बार परास्त होकर भाग लेता और नेहा की निगाहों को बचा जाता!

सुधीर हैरान और परेशान था। बिन बुलाई भीड़ को इकट्ठे होते उसने आज पहली ही बार देखा था। और तो और प्रेस भी दौड़ा दौड़ा चला आया था। नेहा को देख कर तो उसे नहीं लगा था कि वो किसी प्रेस के इंटरव्यू के लिए आई थी। लेकिन यहां तो बवाल ही खड़ा हो गया था।

सुधीर के सारे जरूरी काम निपटाने के बाद नेहा जा रही थी।

“सुना है मैडम! बो आपका लव लैटर ..?” पुलकित – अनाम वीडियो बनाने वाला पूछ रहा था। “किसने लिखा होगा?”

“कितने ही लोग लिखते हैं! अब मैं किस किस का नाम लूंगी?” नेहा बड़े ही बेबाक स्वर में बोली थी।

विक्रांत ने सुना था तो दंग रह गया था। सुधीर ने भी नेहा को पलट कर देखा था। प्रेस वालों में भी एक हलचल हुई थी। उन सब के चेहरों पर मुस्कानें खेल रही थीं। उन सब को उम्मीद थी कि आज कुछ मसौदा अवश्य मिलेगा!

“क्या कोई खटपट हुई है?” विनोद बाबी ने हंसते हुए पूछा था।

“लड़ता कौन नहीं?” नेहा ने तुरंत कहा था।

हंस पड़े थे – सभी जमा लोग! आज का नया नेहा का तेहा हर किसी को भा गया था। यहां तक कि विक्रांत के गमों ने भी उसे जरा सा और जीने को कहा था। कहा था – ये जिंदगी सुख दुख दोनों का एक नाम है! सुखी हो तो – सुख ही मिलेंगे बाबू और अब दुख आया है तो उसे भी गले मिलो। खुशियों से पूछो ..

“खुड़ैल का पता!” अचानक विक्रांत का दिमाग बोल पड़ा था। “इस हरामखोर कासिम बेग की तो खैरियत पूछनी ही होगी!” एक लंबी उसांस छोड़ी थी विक्रांत ने।

लेकिन नेहा चली गई थी।

मेजर कृपाल वर्मा

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