Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

सॉरी बाबू भाग एक सौ आठ

सॉरी बाबू

प्रिय शेखर!

जिंदगी से इतनी जल्दी मोह भंग हो जाएगा – मुझे कभी उम्मीद ही नहीं थी।

सच मानो शेखर आज मेरा मन कह रहा है कि मैंने जितने भी किले और मनसूबे खड़े किए हैं उन सब को लातें मार मार कर ढहाता चला जाऊं। अपने हर अरमान को जूते की नोक पर रख कर हवा में उछाल दूं। जला डालूं – उन सब घरोंदों को जिन्हें मैं प्रेम रस से सींचना चाहता था। और प्रेम .. हाहाहा! अमर प्रेम कहो जिसे मैं जिंदगी की सच्चाई मान बैठा था। आज मेरा मन है कि मैं उस पर थूक दूं।

तुम्हें कैसे बताऊं शेखर कि मैं .. मैं तो नेहा के नाम पर ही जिंदगी का जुआ खेल बैठा था। मैं तो उसी के कारण न जाने कितने कितने जन्म जी लेना चाहता था। मैंने तो हर सपना नेहा को लेकर ही बुना था। मैंने तो नेहा को ही अपने जीवन का आधार मान लिया था। मैं तो नेहा के लिए ही जीता था। और नेहा के लिए ही अब .. शायद मरूंगा भी।

तुम पूछोगे तो जरूर कि आखिर हुआ क्या?

हुआ ये कि नेहा मेरे सपनों की सती सावित्री नहीं है। जिस पवित्रता की देवी नेहा की मैं पूजा करता रहा वो तो .. वो तो ..! शर्म आती है तुम्हें बताते भी कि नेहा न जाने कितनों की नेहा है। नेहा के बॉडी रिलेशन्स का प्रमाण पाकर मैं पागल हो गया हूँ शेखर।

मां को किस मुंह से बताऊंगा कि .. कि .. नेहा .. उनकी पुत्र वधु अब कभी नहीं बनेगी। मां कहीं मर न जाए – मुझे डर है शेखर।

मेरा तो कुछ नहीं। अपनी लाश तो मैं खुद ही फूंक लूंगा। लेकिन मां का बुढ़ापा तुम्हारे हिस्से में आ जाएगा शेखर। मां को बचा लेना मित्र। ये मुझ पर तुम्हारा आखिरी एहसान होगा।

तुम्हारा भइया विक्रांत।

पूरा बंबई शहर विक्रांत और नेहा के प्रेम विच्छेद से घायल हो गया लगा था।

प्रेस को खूब मसाला मिल गया था। काल खंड का भी खंडन मंडन इस प्रेम कथा के साथ साथ चल पड़ा था। यहां तक कि कुछ समाज सेवी संस्थाएं तो कोर्ट तक पहुंच गई थीं। उनका कहना था कि ये फिल्म काल खंड अगर रिलीज हुई तो पूरा देश सांप्रदायिकता की आग में जल उठेगा। इस फिल्म पर बैन लगाना परम आवश्यक था – उनकी मांग थी।

अकेला सुधीर ही था जो काल खंड की सिफारिश में मोर्चा संभाले खड़ा था। विक्रांत को तो अपने तन का भी होश नहीं था। नेहा ने भी पल्ला झाड़ लिया था। लेकिन सुधीर था कि अभी भी बाजी हारना नहीं चाहता था।

अकेले सुधीर ने पूरी बंबई में तहलका मचा दिया था। सारे यू पी, बिहार और हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोगों को इकट्ठा कर उसने एक फ्रंट खोल दिया था। इलाहाबाद से जाकर वो वकील गोपाल दास को ले आया था और उसने काल खंड के पक्ष को लेकर केस को संभाला था।

“ये गोपाल दास तो गोबर गणेश हैं!” उसी के लोग कहने लगे थे। “तीन तीन वकील हैं विपक्ष के। और उनका वकील तन्खा तो तुखम चीज है। वो तो बैन करा कर ही दम लेगा काल खंड को।” लोगों का पक्का अनुमान था।

और देखते देखते काल खंड बैन हो गई थी।

सुधीर के लोग – यू पी, बिहार और हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोग कोर्ट के बाहर खड़े खड़े कानून का मुंह ताकते रह गए थे।

लोग दीवाली मना रहे थे। लेकिन विक्रांत की सूनी सूनी आंखों में अंधकार ही अंधकार उगा था।

समीर ने नया घर खरीदा था। नेहा अपने भाई समीर और मम्मी पापा के साथ नए उल्लास से दीवाली मना रही थी। कई बार नेहा के जेहन में विक्रांत के साथ मनाई दीवाली भी लौटी थी लेकिन नेहा ने उन पलों को एक जोर की लात मार कर पीछे धकेल दिया था। नेहा ने अब आगे कदम बढ़ाने की शपथ ले ली थी।

“त्रिकाल में शिव और पार्वती की भूमिका साथ साथ निभाने का यह सपना न जाने अभी भी क्यों नहीं मरा है?” नेहा ने आश्चर्य के साथ महसूसा था। “वो क्या है जो इन कथाओं के साथ जुड़ा है और ये कभी मरता ही नहीं?”

“अमर प्रेम!” अचानक ही नेहा को उत्तर मिला था। “सती और शिव का प्रेम आदर्श प्रेम है। सती ने शिव के लिए ..?”

“और नेहा ने विक्रांत के लिए ..?”

“हैलो! नेहा जी!” खुले दरवाजे से रमेश दत्त दाखिल हुए थे तो नेहा को अपना उत्तर मिल गया था। “दीवाली मुबारक .. माई डियर!” बांहें पसार कर रमेश दत्त ने सीधा नेहा को अपने आगोश में लेना चाहा था।

लेकिन नेहा दूर छिटक कर अलग जा खड़ी हुई थी। और वासना के आईने में अपना चेहरा देख रही थी।

“सच मानिए बाबू जी!” रमेश दत्त अब बाबा की ओर मुड़ा था। “आज मेरा मन था कि मैं दीवाली आप लोगों के साथ मनाऊं।” वह हंस रहा था। “मैं तो आप सब को अपना ही मानता हूँ।” उसने समीर और पूर्वा की ओर देखा था। “यहां आकर मेरा मन हरा हो जाता है।” नेहा को देख कर रमेश दत्त हंस गया था। “आओ समीर भाई मदद करो!” रमेश दत्त ने समीर की कमर में हाथ डाल कर उसे साथ लिया था और कार में भूसे की तरह भरे उपहारों को ढो ढो कर समीर के नए घर की बैठक को नाक तक भर दिया था।

अब दीवाली की रौनक दो गुनी हो गई थी। लेकिन नेहा का मन बिदक कर घर के बाहर भाग गया था।

“ये दीवाली तो खाली गई समीर भाई!” एक उलाहने के अंदाज में रमेश दत्त कहने लगा था। “लेकिन मेरा वायदा है दोस्त कि ईद खाली न जाएगी।” उसने नेहा को मर्मस्पर्शी निगाहों से कई पलों तक देखा था। “रंगीला ओर कोरा मंडी दोनों रिलीज होंगी – साथ साथ।” रमेश दत्त ने घोषणा जैसी की थी।

समीर उल्लास से उछल पड़ा था। बाबा और पूर्वा के चेहरे भी खिल गए थे। लेकिन नेहा चुप थी। वह तो जानती थी कि रमेश दत्त दाना डाल रहा था। वह यह भी जानती थी कि रमेश दत्त उनके घर दीवाली मनाने क्यों आया था।

“फिल्में बनाना और पैसा कमाना बच्चों का खेल नहीं है नेहा।” रमेश दत्त ने अकेले में नेहा को पकड़ा था। “बैन हो गई न काल खंड?” उसने तनिक मुसकुराते हुए पूछा था। “डूब गया न सारा पैसा?” वह बता रहा था। “लेकिन कोरा मंडी कमाएगी। एक बार .. बस एक बार तुम मन बना लो नेहा! मेरे दिमाग में वो वो दृश्य हैं और ऐसे ऐसे संवाद हैं जिसे नेहा बोलेगी तो फूल झरेंगे, झरने बह निकलेंगे और दर्शक तो तालियां पीटते पीटते पागल हो जाएंगे!” रमेश दत्त ने कोरा मंडी को नेहा की आंखों के सामने उतार कर उसे दिवास्वप्न दिखाया था। “और हां! पैसे के लिए इस बार मैं तुम्हारा हाथ नहीं रोकूंगा नेहा!” उसने वायदा किया था।

“मुझे छूना मत!” नेहा ने रमेश दत्त के अपनी ओर आते हाथ को हवा में ही रोक दिया था। “मैं .. मैं ..” नेहा रोष में थी। वह कुछ बोल नहीं पा रही थी।

“वो तो अब तुम्हें किसी भी कीमत पर छूएगा ही नहीं नेहा!” अपमानित हुए रमेश दत्त ने भी जहर उगला था। “मुझे अपना बाप – हिन्दू बाप याद है जब वो मेरी मां को छोड़ कर भागा था और कभी नहीं लौटा था।” एक अज्ञात सा दर्द उभर आया था उसकी आवाज में। “हिन्दुओं को तो सती सावित्री ही चाहिए।” आंखें तरेरी थीं रमेश दत्त ने। “याद है – राम ने गर्भवती सीता को वनवास में भेज दिया था। केवल एक शक ही तो था जबकि विक्रांत के पास तो सबूत भी है।” नेहा को घायल करना आज रमेश दत्त को अच्छा लगा था। “लेकिन मैं .. तुम्हारा मैं तुम्हें कभी दगा न दूंगा नेहा!”

“चाय ठंडी हो रही है दत्त साहब!” बाबा बुला रहे थे।

“चाय तो पी ही लो मेरे साथ!” रमेश दत्त ने नेहा से आग्रह किया था। “तुम नहीं जानतीं नेहा कि मैं तुम्हारे लिए ..”

सब लोग बैठक में बैठ कर साथ साथ चाय पी रहे थे। तभी डॉक्टर प्रभा ने उनके नए घर में प्रवेश किया था। प्रभा भी दीवाली का तोहफा लेकर आई थी। वह बताने आई थी कि किस तरह किसी शातिर चोर ने सात तालों के भीतर रक्खी उस एबॉरशन की फाइल से एक पेज खींचा था और ..

रमेश दत्त और डॉक्टर प्रभा की आंखें अनायास ही मिल गई थीं।

“यही चोर है!” डॉक्टर प्रभा के दिमाग ने कहा था। “और यही इन के घर में बैठ कर दीवाली मना रहा है?” प्रभा ने प्रश्न चिन्ह लगाया था। और जब उसने बैठक में धरे तोहफों को देखा था तो वह दंग रह गई थी। उसे अपने लाए तोहफे को अब छिपाना जरूरी हो गया था।

“आप तो डॉक्टर प्रभा हैं!” रमेश दत्त मुसकुराया था। “दाद देंगी हमें कि हमने बिन बताए आप का परिचय पा लिया।”

“जी! आप हैं तो पहुंचे हुए पारखी!” डॉक्टर प्रभा ने प्रशंसा की थी। “अर, नेहा! सच – मैं जल्दी में हूँ!” वह कह रही थी। “ड्यूटी पर हूँ। चलती हूँ!” कहते हुए डॉक्टर प्रभा चली गई थी।

“कैसे चुरा ली होगी इसने वो चिट्ठी?” डॉक्टर प्रभा पूरे रास्ते सोचती ही रही थी। “असंभव सा ये काम संभव कैसे हुआ।” प्रभा समझ ही न पा रही थी।

“पाप को तुम पाताल में ले जाकर गाढ़ दो!” कोई डॉक्टर प्रभा के कान में कह रहा था। “लेकिन वह पाप वक्त आने पर अवश्य ही उजागर हो जाएगा!”

डॉक्टर प्रभा ने अपने आप को कई कई बार उलट-पलट कर देखा था। कई कई बार उसने अपने विगत को बुलाया था और एक अच्छी सच्ची स्त्री होने का साक्ष्य जुटाया था।

सच्चे मायनों में एक स्त्री होना ही बहुत कुछ होना होता है – डॉक्टर प्रभा ने आज पहली बार महसूस किया था।

मेजर कृपाल वर्मा

Exit mobile version