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सॉरी बाबू भाग छियासी

सॉरी बाबू

“नया युग बांहें पसारे हमारे स्वागत में आ खड़ा हुआ है मित्रों!” 1953 में नेहरू जी ने बयान दिया था। “इस सवेरे की महक और सफलताओं की खनक और हमारा सौभाग्य आज हमारे साथ खड़ा है। अब हम आगे बढ़ेंगे दोस्तों और ऊंचे उठेंगे – बहुत ऊंचे!” उनका कहना था।

चुनावों की सफलता और विरोधियों की पराजय ने नेहरू जी का मनोबल बढ़ा दिया था। एक एक कर उन्होंने एक योजना के तहत उन विरोधियों को पछाड़ दिया था जो उनके रास्ते का रोड़ा थे। सरदार पटेल स्वर्ग जा चुके थे और अन्य सभी ने अपनी अपनी पार्टियां बना ली थीं।

तीन मूर्ति में अकेले बैठे पंडित जी शाम की चाय पी रहे थे।

“क्यों .. क्यों किया हैदराबाद पर हमला?” अचानक नेहरू जी को पटेल के साथ हुआ विवाद परेशान करने लगा था। “मैंने मना किया था उसके बाद भी ..?”

“जरूरी था पंडित जी।” सरदार पटेल ने शांत स्वभाव में उत्तर दिया था। “ये निजाम ..?”

“मैंने तुम्हें कितनी बार कहा है कि मुसलमानों को गैर मत मानो! उन्हें यह महसूस मत होने दो कि वो इस देश के नागरिक नहीं हैं या कि बराबरी पर नहीं हैं। लेकिन तुम .. शायद एक कट्टर हिन्दू हो – इन संघियों की तरह जो ..”

“और तुम शायद मुसलमान हो!” सरदार ने मुड़ कर जहरीले सांप की तरह फन मारा था। “तुम .. तुम न जाने किस मिट्टी के बने हो! अपना मरना जीना तो हर किसी को दिखता है। लेकिन तुम्हें मुसलमानों की इतनी चिंता क्यों सताती है?”

“बापू .. बापू ने कहा था ..”

लेकिन सरदार उठ कर चला गया था!

“ये क्या ढोंग है नेहरू जी?” कर्कश आवाज थी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की। “ये जम्मू ओर कश्मीर का राज आपने शेख अब्दुल्ला को क्यों सोंप दिया है?” श्यामा प्रसाद पूछ रहे थे। “ये .. ये एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान कैसे चलेंगे?” उनका प्रश्न था। “मैं न मानूंगा! मैं जाऊंगा कश्मीर। मैं देखूंगा कि परमिट राज कैसे चलता है। मैं सत्याग्रह करूंगा। लाल चौक पर तिरंगा फहराऊंगा और मैं वायदा करता हूँ ..”

नेहरू जी को चुनौती देकर सदन से बाहर चला गया था श्यामा प्रसाद।

“कम्यूनल कांटा है।” टीस आये थे पंडित जी। “एन इरिटेंट!” उन्होंने मन में दोहराया था।

तभी उनकी प्रिय बेटी इंदु अपने दोनों बेटों – राजीव और संजय के साथ चली आई थी। उसके साथ एक सहेली भी थी। पंडित जी ने उसे गौर से देखा था।

“ये मेरी पुरानी सखि है पापा!” इंदु ने हंस कर बताया था। “ये शिखा है।” उसने परिचय दिया था। “हम दोनों शांति निकेतन में साथ साथ थे। इसने शादी नहीं की है। समाज सेविका है।” इंदु बताती रही थी।

शिखा ने पंडित जी की नजर को पहचाना था तो दंग रह गई थी।

“आती रहा करो शिखा।” जाते वक्त पंडित जी ने कहा था।

और शिखा का तीन मूर्ति में आना जाना हो गया था। उसकी दोस्ती इंदु के दोनों बेटों से भी हो गई थी। अब इंदु के साथ घंटों बैठ कर वो देश विदेश की बातें करती रहती थी। लेकिन राजनीति की चर्चा अगर चल पड़ती थी तो शिखा उसे बोरिंग कह कर बात को टाल दिया करती थी।

“कश्मीर मत जाओ शिखर!” शिखा आग्रह कर रही थी। “शेख अब्दुल्ला जालिम है। तुम लोगों को जीता न छोड़ेगा। तय हो चुका है कि ..”

“अब तो जाना ही होगा शिखा!”

“तो मैं भी साथ चलती हूँ।”

“नहीं! डॉ. साहब के साथ हम सब लोग हैं – गिने चुने लोग। नरेंद्र ने पूरी तैयारी की है। हम लाल चौक पर तिरंगा फहराएंगे। बिना परमिट के कश्मीर में प्रवेश करेंगे और हम ..”

शेख अब्दुल्ला का बेरहम चेहरा बार बार शिखा की आंखों के सामने आता जाता रहा था। पंडित जी के साथ बतियाता शेख अब्दुल्ला ..

“साजिश है, शिखर!” शिखा ने स्पष्ट कहा था। “शेख .. शेख पंडित जी का ..”

“यूं तो सारे मुसलमान ही पंडित जी के प्यारे हैं!” हंसा था शिखर और चला गया था।

और बाद में खबर आई थी कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत पुलिस की कस्टडी में हुई है। शिखर का अभी तक अता पता न था। नरेंद्र ही लौटा था। देश में तनिक सी हवा ही हिली थी बस! फिर सब शांत हो गया था।

पंडित जवाहर लाल नेहरू का ये कम्यूनल कांटा भी शेख अब्दुल्ला ने निकाल दिया था।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद संघ को ग्रहण लग गया था।

लावारिस हुए संगठन को मौली चंद्र शर्मा ने संभालने के प्रयत्न किए थे। लेकिन उनके विचारों में संघ के जन्मदाता आर एस एस एक मिसफिट इकाई था और इनका एजेंडा या तो आक्रांताओं को नैशनल रेस में समाहित हो जाना था ओर या फिर उनके मातहत होकर देश में रहें – ये शर्मा को अटपटा लगा था।

“नेहरू जी का धर्म निरपेक्ष, गुट निरपेक्ष और विश्व शांति का महान संकल्प हमें दिखाई क्यों नहीं देते?” मौली चंद्र शर्मा आर एस एस के संचालकों से बार बार प्रश्न करते। “संघ को स्वीकार कर लेना चाहिए – सेक्यूलरिज्म! सबको आने देते हैं संघ में। अगर मुसलमान आएंगे तो हमें ओपनिंग मिलेगी और ईसाइयों के बिना हम जाएंगे कहां?”

“अखंड भारत बनाने का प्रोग्राम है शर्मा जी!” शिखर ने हंस कर कहा था। “आप साथ न रहना चाहें तो ..?”

बात का बुरा मान गए थे मौली चंद्र शर्मा ओर संघ छोड़ कर चले गए थे।

1954 में जब चाऊ एन लाई भारत आए थे तो एक अलग खुशियों का साम्राज्य उठ खड़ा हुआ था। पंच शील पर हस्ताक्षर हुए थे और हिन्दू चीनी भाई भाई का नारा बुलंद हुआ था।

“ये क्या कर रहे हो पंडित जी!” अचानक ही नेहरू जी के जेहन में सरदार दहाड़ने लगा था। “मेरे ना कहने के बाद भी तिब्बत पकड़ा दिया और अब तो देश को ही दिए दे रहे हो?” प्रश्न था पटेल का।

“क्या धरा है तिब्बत में सरदार!” हंस पड़े थे पंडित जी। “कोरी लाइबिलिटी है भाई! कौन कमा कर खिलाएगा इन्हें? घास का पत्ता तक नहीं उगता यहां!” उनका तर्क था।

विश्व पटल पर अचानक ही नेहरू जी एक नए विकल्प की तरह आ खड़े हुए थे।

शीत युद्ध के बीचो बीच खड़े नेहरू जी के पास विश्व शांति के नए प्रस्ताव थे। उनके साथ नासिर, टीटो और चर्चिल तथा कैनेडी मिल कर अपने देशों के बीच एक स्थाई भाई चारे की मुहिम तैयार कर रहे थे। स्वेज कैनाल और कांगो के मसलों को नेहरू जी ने हल कर दिया था।

“ये अचानक हुआ कैसे इंदु?” शिखा बहुत गमगीन थी। फिरोज गांधी की असामयिक मृत्यु पर प्रश्न उठ खड़े हुए थे। वो नेशनल हैराल्ड के एम डी थे और उन्होंने कई ऐसे राज खोले थे जो .. “ये मेरा दुर्भाग्य है शिखा!” बिलख बिलख कर रो पड़ी थी शिखा की सहेली इंदु। “हार्ट अटैक! मैं जब तक पहुंचूं कि खेल खत्म हो गया।”

“वैरी वैरी सैड!” शिखा ने इंदु का दर्द बांटा था और फिर दोनों ने एक साथ इंदु के दोनों बेटों को देखा था।

1961 के उस उत्सव में भी शिखा शामिल थी जब अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी अपनी पत्नी और साली के साथ भारत आए थे।

“इतने बड़े राष्ट्र की रक्षा सुरक्षा यूं बातों से नहीं होती फ्रेंड!” कैनेडी ने नेहरू को चेतावनी दी थी।

“लड़ कौन रहा है?” नेहरू जी ने हंस कर पूछा था। “मेरे साथ आ जाओ और देखना कि हम दुनिया को कैसे रहने योग्य बनाते हैं। भाईचारा, आपसी प्रेम भाव और मेलजोल बुरी बात है क्या? लैट्स मेक ए ब्यूटीफुल वर्लड टू लिव माई डियर!” हंसते हुए नेहरू जी ने कैनेडी की पत्नी की आंखों में झांका था।

उन आंखों में एक उन्माद था, आग्रह था, प्रशंसा थी और नेहरू जी एक रोमांटिक हीरो से कम न लगे थे कैनेडी की पत्नी को। अब नेहरू जी सबके प्यारे थे और सबके दुलारे थे।

“चीन ने आक्रमण कर दिया है।” नेहरू जी नासिर के साथ मिस्र में बैठे थे तो सूचना मिली थी। “आर्मी चीफ छुट्टी पर हैं। कृष्णा मेनन पिकनिक पर गए हुए हैं। कोई नहीं है पंडित जी जो ..”

“मैं आता हूँ!” नेहरू जी सनाका खा गए थे। “संभालो किसी तरह।” उन्होंने आदेश दिया था।

गुट निरपेक्ष भारत अचानक ही अपने घुटनों पर आ गिरा था। परम मित्र चीन ने ही पीठ में छुरा घोंप दिया था।

“धर्म निरपेक्षता के साये के नीचे बैठे ये मुसलमान भी क्या ..?” नेहरू जी अचानक ही सोचने लगे थे। “क्या .. क्या ..?” खाली दिमाग में न कोई प्रश्न था न कोई उत्तर!

1962 की शर्मनाक हार के बाद भारत एक अपंग राष्ट्र के रूप में सामने आया था। अमेरिका और ब्रिटेन ने मदद करने की शर्तें लगा दी थीं। लेकिन रूस ने सहारा दिया था। गिर कर फिर से उठने की मुहिम में नेहरू जी हार थक गए थे। सारा दोष उन्हीं पर मढ़ दिया गया था। हालांकि चीन ने इकतरफा सीज फायर कर दिया था लेकिन नेहरू जी का गुट निरपेक्ष का नारा मौत पा गया था।

और नेहरू जी भी 1964 आते आते चल बसे थे।

“रोने धोने से क्या होगा इंदु!” शिखा सांत्वना दे रही थी। “अब तो तुम्हीं को संभालना होगा सब कुछ।” उसकी राय थी। और इंदु की मदद के लिए शिखा और सहेलियों का गुट एक जान एक प्राण हो कर उसके साथ आ खड़ा हुआ था।

मेजर कृपाल वर्मा
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