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सॉरी बाबू भाग चौरासी

सॉरी बाबू

शिखा की आंखों से चौधार आंसू चुचा रहे थे। आज 15 नवंबर 1949 का दिन था ओर अंबाला सेंट्रल जेल में नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी पर लटका दिया गया था।

8 नवंबर 1949 के दिन कोर्ट ने फैसला सुनाया था।

मुकदमा चला था – बड़ी तेज रफ्तार से चला था और आताल-पाताल से सबूत ला लाकर अभियोजन पक्ष ने यह साबित कर दिया था कि अभियुक्तों ने जघन्य अपराध किया था और महान आत्मा राष्ट्र पिता गांधी जी को गोलियों से भून कर हत्या की थी। इस हत्या करने में जो भी षड्यंत्रकारी शामिल थे उन सब को भी सजाएं सुनाई गई थीं। लेकिन विनायक दामोदर गोलवरकर छूट गये थे। उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं जुटा सका था अभियोजन पक्ष।

नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे की फांसी की सजा को आजन्म कारावास में बदलने के लिए मर्सी पिटीशन दायर हुए थे। गांधी जी के दोनों बेटे इसमें शामिल थे। और भी बहुत सारे गणमान्य व्यक्ति थे जो मर्सी पिटीशन में शामिल थे लेकिन नेहरू जी, सरदार पटेल और सी राज गोपालाचारी – गवर्नर ने साफ और खुले शब्दों में विरोध किया था और मर्सी पिटीशन खारिज हो गया था।

पूरा का पूरा धर्म निरपेक्ष भारत नेहरू जी के साथ खड़ा था। मात्र सांप्रदायिकता के आरोपों से मढ़ा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू महा सभा ही दो ऐसे संगठन थे जो हिन्दू राष्ट्र के समर्थक थे और मुसलमानों के घोर विरोधी थे। इनका कहना था कि गांधी जी का वध कोई पाप नहीं था बल्कि वांछित था। अपराधी षड्यंत्रकारी नहीं देश भक्त थे। उन्होंने देश हित में किया था गांधी जी का वध न कि अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए या कि किसी घृणा या वैमनस्य के तहत।

गोलियां चलाने से पहले नाथूराम गोडसे ने गांधी जी को प्रणाम किया था और उनके चरण स्पर्श किए थे।

गांधी जी का मुसलमानों के प्रति जो तुष्टिकरण का रवैया था वो घातक था और देश कभी भी खतरे में आ सकता था। मुस्लिम लीग की कारगुजारियां किसी से छुपी नहीं थीं। उनका ध्येय भारत को मुस्लिम राष्ट्र बनाने का था और गांधी जी परोक्ष रूप से उनके सहायक सिद्ध हो रहे थे। गांधी जी को रोकना असंभव था अत: उन्हें रास्ते से हटाना ही न्याय संगत था।

गांधी जी को मार कर नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे ने भारत को न्याय दिलाया था और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की संभावना को मरने से बचा लिया था।

हिन्दुओं की दी इन दलीलों को हिन्दुओं ने ही खारिज कर दिया था।

नेहरू जी का दिखाया धर्मनिरपेक्ष राज्य का सपना और गुट निरपेक्ष की राजनीति का नया क्षितिज भारत को ही नहीं पूरे संसार को सुहावना लगा था। लड़ लड़ कर लोग थक चुके थे। अब सभी को शांति की दरकार थी। और जो शांति पथ गांधी जी ने प्रस्तुत किया था वो मनोहारी तो था ही साथ में सुगम गम्य भी था।

अहिंसा परमो धर्म का नारा देकर भारत एक नए रास्ते पर चल पड़ा था।

लेकिन शिखा जारो कतार हो कर रोती ही जा रही थी। उसे गम था – अपने दादा नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे के फांसी झूलने का।

“देश भक्ति का सबसे बड़ा तोहफा सजा-ए-मौत ही तो होता है शिखा।” शिखर बताने लग रहा था। “कल को हम दोनों भी तो फांसी के तख्ते पर झूल सकते हैं।” शिखर ने बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा था। “इसका अर्थ ये तो नहीं कि हम अभी से रोना आरंभ कर दें।” वह तनिक सा मुसकुराया था। “इसका अर्थ है शिखा कि हम इसी पल से खुशियां मनाएं कि हमारा नाम और हमारा काम उस दर्जे पर पहुंचेगा जहां हमारे विरोधी हमें फांसी देने के लिए मजबूर हो जाएंगे।”

“मानती हूँ शिखर!” शिखा ने स्वीकारा था। “लेकिन .. लेकिन ये रुलाई तो भीतर से फूट रही है। मेरा मन तो कर रहा है कि मैं खूब रोऊं .. और रोऊं .. दहाड़ें मार मार कर रोऊं।”

“और हंसोगी कब?”

“जब हमारा राज होगा। हमारा भगवा ध्वज हिन्दू राष्ट्र के ऊपर फहरा रहा होगा!” शिखा ने आंसू पोंछ दिए थे।

“गुड!” शिखर हंस रहा था। “और शिखा ये ही संदेश हमारे दादा दे कर गए हैं।” शिखर बताने लगा था। “फांसी पर झूलते वक्त उन दोनों की गोद में गीता धरी थी, साथ में अखंड भारत का नक्शा था और हिन्दू राष्ट्र का भगवा ध्वज सनातन का प्रतीक बना बैठा था।” शिखर ने शिखा को पलट कर देखा था।

“सच ..?” शिखा ने मुग्ध भाव से पूछा था।

“सच शिखा!” हामी भरी थी शिखर ने। “ओर जानती हो उन्होंने कौन सी प्रार्थना की थी?” शिखर ने पूछा था। “नमस्ते सदा वत्सले मातृ भूमि – उन्होंने करबद्ध प्रार्थना कर प्राण दिये थे शिखा।”

“ओह गॉड!” शिखा के भीतर से एक सद्भावना का स्वर गूंजा था। “ग्रेट आई से!” वह कह रही थी। “आने वाली पीढ़ियों के लिए अमर संदेश दे गए – दा!” शिखा प्रसन्न थी। “गीता का अर्थ हुआ ..?” उसने शिखर की ओर उत्तर पाने के लिहाज से देखा था।

“अर्थ हुआ – नपुंसक मत बनो पार्थ! उठो और युद्ध करो। कोई भी राष्ट्र दया या करुणा के सहारे नहीं चलता शिखा। युद्ध में ही शांति का श्रोत है। युद्ध कभी भी अलाभकारी नहीं है। जबकि हम सोचते रहते हैं कि हम लड़ेंगे ही नहीं। हाहाहा!” जोरों से हंसा था शिखर। “अरे भाई! तुम मत लड़ो लेकिन वो तो लड़ेंगे! उन्हें तो खाना हजम नहीं होगा बिना लड़े! फिर से लूट लेंगे देश को।”

“सच है शिखर!” शिखा ने माना था। “और ये अखंड भारत का नक्शा?”

“हमें पहुंचने के लिए एक मुकाम है शिखा! खंड खंड हो गये भारत को फिर से हमें एक करना होगा, उसे पाना होगा, जीतना होगा और उसके लिए ..”

“सदियां लग जाएंगी शिखर!”

“रोम एक दिन में बनता कब है, शिखा! और जब सामने कोई बड़ा उद्देश्य होता है तो बड़ी शक्तियां और बड़ा साहस स्वयं हमारे पास चलकर आ जाता है। असंभव तो कुछ है ही नहीं।”

“हां! मानती हूँ। और मानती हूँ कि हमारा सनातन स्वयं में ही महान है। ईसाई और मुसलमान हार थक कर बैठ लेंगे। लेकिन सनातन को झुका नहीं पाएंगे। और अंत में भगवा ही लहराएगा विश्व पर।” शिखा प्रसन्न थी। “कितनी सार गर्भित है हमारी प्रार्थना – नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि, शिखर!” शिखा ने हंसते हंसते कहा था। “एक दम नई ओर नायाब निष्पत्ति है! नए युग के लिए नया अस्त्र है। विद्यार्थियों को खूब पसंद आता है इस तरह का अभिवादन!”

“मुझे स्वयं भी बेहद आनंद आता है शिखा।” माना था शिखर ने। “इस अभिवादन में अपार शक्ति निहित है। मातृ भूमि को प्रणाम करना और आदर देना मानव मात्र की सच्ची पहचान है।”

सुमिति गुहा और भानु मोम्पा को अपनी जिम्मेदारियां सोंप शिखर और शिखा दिल्ली के लिए रवाना हुए थे। चुनाव ऊपर आ गये थे और बहुत ही निर्णायक फैसले होने थे। चुनाव लड़ने के लिए ओर चुनाव जीतने के लिए एक बड़ा संघर्ष शेष था।

“कांग्रेस वर्सेस दी रेस्ट के बीच मैच होगा!” शिखर बता रहा था। “आज की कांग्रेस तो अजेय है शिखा।” मान रहा था शिखर। “एक नया युग आरंभ होगा देश में जब हर व्यक्ति को वोट देने का अधिकार मिलेगा और वो स्वयं चुनेगा अपने भाग्य विधाता। है न नया युग शिखा?” हंस कर पूछा था शिखर ने।

“बेहद नया प्रयोग है। देखते हैं सत्ता और शासन कैसा रंग रूप अख्तियार करता है।” शिखा भी प्रसन्न थी। “हमारे लोग भी तो सत्ता में साझी होंगे?” उसने पूछा था।

“अभी तो शायद नहीं!” रुका था शिखर। “अभी तो पता ही नहीं कि आर एस एस चुनाव लड़ पाएगी कि नहीं।”

“क्यों?”

“बहुत बदनाम हो चुकी है आर एस एस!” शिखर ने भी माना था। “कोई नहीं डालेगा हमें वोट!” उसने दो टूक कहा था। “जबकि कांग्रेस घर घर में बैठी है। नेहरू का नाम लोगों की जबान पर धरा है। गांधी जी राष्ट्र पिता बन चुके हैं। सरदार पटेल और ..”

“नहीं लड़ेंगे?” शिखा पूछ बैठी थी।

“लड़ेंगे तो अवश्य!” शिखर चहका था। “आरंभ तो आरंभ है। छोटा या बड़ा माने नहीं रखता। पहला कदम कितनी धरती नापता है शिखा? लेकिन .. लेकिन चलने की चुनौती भी तो पहला कदम देता है।”

“बाकी लोग भी तो हैं सत्ता के आसपास! क्या वो लोग भी ..?”

“सब के सब लड़ेंगे!” शिखर बता रहा था। “प्रजातंत्र का अर्थ भी यही है कि जनता जनार्दन के समकक्ष सब आ जाएं और लें उनका आशीर्वाद! इसी से तो सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा शिखा। बेहद नया प्रयोग है देश के लिए!”

“और हम भाग्यशाली हैं जो इस पवित्र घटना के साक्षी बनेंगे!” हंस रही थी शिखा।

1951-52 के पहले चुनाव को भारत वर्ष ने एक उत्सव की तरह मनाया था। देश में एक अजनबी उल्लास उमड़ा था। प्रदर्शन थे, सभाएं थीं, भाषण थे, ढोल-ढमाके और रेडियो बज रहे थे। देश भक्ति और देश प्रेम के गीत गाये जा रहे थे और लोग अपनी अपनी उपलब्धियों का गुणगान कर रहे थे।

मेजर कृपाल वर्मा
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