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सॉरी बाबू भाग चौंसठ

सॉरी बाबू

विक्रांत के ऑफिस में कलाकारों और फिल्मकारों की भीड़ भरी थी।

सब चुप थे। सांस साधे बैठे थे। विक्रांत भी कुछ जमा जोड़ लगा रहा था। संगीन स्थिति थी। जो सूचनाएं पहुँच रही थीं – घातक थीं। प्रतिकार और प्रतिशोध की आग धीरे धीरे बॉलीवुड में फैलने लगी थी। एक जमघट था जो अकेले विक्रांत के खिलाफ खड़ा हो गया था। रमेश दत्त ने आखिरी हथियार उठा लिया था।

“विक्रांत नहीं – इसे विकृति कहो।” रमेश दत्त ने एक नारा बुलंद किया था। “देख लेना ये सारे के सारे बॉलीवुड को एक दिन ध्वस्त करके मानेगा।”

“बिहारी है ..!” पंछी ने हामी भरी थी और विक्रांत को लांछित किया था। “सारे के सारे यू पी बिहार के लोग इसी के सुर में इसी का राग अलापते हैं। ये बिगाड़ेगा काम गुरु!” पंछी ने चेतावनी दी थी।

“सात निर्माताओं के फोन आये हैं भाई जी!” सुधीर बोला था। ऑफिस तनिक जग सा गया था। “सातों ने जॉब से जवाब दे दिया है मुझे। अब बॉलीवुड में मुझे कहीं भी काम नहीं मिलेगा।” उसका स्वर डरा सहमा था।

“सभी को काम से निकाला जा रहा है भाई जी।” सौमित्र बता रहा था। “जैसे ही पता चलता है कि ..”

“जैलिसी!” नेहा ने रोष पूर्ण आवाज में कहा था।

“नहीं! षड्यंत्र है।” विक्रांत ने बात पर मोहर लगा दी थी।

फिर से चुप्पी लौट आई थी।

“बर्बाद हो जाएंगे भाई जी!” सुधीर का कयास था। “काम के बिना तो बेकार हैं। बम्बई में रहना है तो ..?”

“इज इट दि एंड ऑफ लाइफ?” विक्रांत ने उन सब से प्रश्न पूछ लिया था।

अब ऑफिस में एक अजीब निराशा घुस आई थी।

“इस सो कॉल्ड षड्यंत्र का मतलब क्या है, भाई जी?” सौमित्र ने पूछा था। “क्यों है षड्यंत्र? किसके खिलाफ है?” उसने सीधा विक्रांत की आंखों में झांका था। “जहां तक मैं जानता हूँ ..”

“हमारी समझ में ही तो नहीं आता सौमित्र!” टीस कर बोला था विक्रांत। “हम लोग सीधा सोचते हैं, भला सोचते हैं और सबके हित की बात सोचते हैं। लेकिन यहां कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बहुत दूर की सोचते हैं, सत्ता महत्ता की बात सोचते हैं और ये सोचते हैं कि किस तरह हमें लूट लें, हमारा माल अपने नाम लिख लें, हमारी संस्कृति को मिटा दें और अपनी संस्कृति को हम पर आरोपित कर दें।” रुका था विक्रांत। उसने जमा साथियों की प्रतिक्रिया को पढ़ा था।

सभी विभ्रम में थे। चुप थे। समझ नहीं पा रहे थे। उन्हें तो निष्पाप बम्बई का वातावरण खूब शुद्ध साफ लगता था। उन्हें तो अभी तक किसी षड्यंत्र की बू न आई थी।

“लेकिन हम सब भाई भाई हैं, भाई जी!” प्रतीक बोल पड़ा था। “सब मिल कर रहते हैं, काम करते हैं, खाते पीते हैं और ..”

“दैट इज दि कैच पॉइंट प्रतीक!” विक्रांत संभल कर बोला था। “मैं भी बहुत दिनों तक इस भाई भाई के भंवर में भूला रहा था। लेकिन .. लेकिन मेरी आंखें खुली जब मैंने महसूसा कि ये भाई भाई का तो बिछाया एक जाल है। हम हिन्दुओं को उल्लू बनाने का अमोघ अस्त्र है! हमारे घरों में घुस कर हमें ही हलाक करने का एक नायाब तरीका है।”

“मैं समझा नहीं भाई जी।” प्रतीक ने प्रतिवाद किया था।

“यूं समझें प्रतीक कि हर प्रख्यात और विख्यात हिन्दू के घर में भाई भाई की आड़ लेकर घुसपैठ की है और अगर उसकी लड़की है तो लड़का मुसलमान है – उसका प्रेमी है ओर अगर लड़का है तो लड़की मुसलमान है – उसकी प्रेमिका है। और धर्म परिवर्तन में केवल और केवल इस्लाम है।”

“और फिर ..?” सुधीर की नींद खुली थी तो पूछा था।

“फिर ये सुधीर कि उनका धर्म, उनकी भाषा और उन्हीं का देश! हिन्दू बचेगा तो ही तो बोलेगा?” हंस पड़ा था विक्रांत।

एक संकट सा कुछ उठ खड़ा हुआ था।

सारे जमा युवा कलाकार आज पहली बार एक नए नाम – षड्यंत्र को सुन कर दंग रह गये थे। उन्हें अभी भी विक्रांत की बात पर विश्वास न था। उन्हें अभी भी कहीं कोई खतरा डोलता दिखाई न दे रहा था। लोग खूब नोट कूट रहे थे और उन्हें भी नाम और नामा हैसियत के अनुसार मिलता ही था।

“मैं तो चलूंगा भाई जी!” भगवंत उठा था और चला गया था।

भगवंत को अभी अभी लीड रोल मिला था और वो भी सुजाता के साथ। मल्लू भाई एक सुलझे प्रोड्यूसर थे ओर कहानी भी एक नायाब लव स्टोरी थी। फिल्म हिट होने का सीधा अर्थ था कि भगवंत की पांचों उंगलियां घी में और सर कढ़ाई में।

जादूगरों की नगरी थी बम्बई। कौन टोपी के भीतर से तीतर निकाले और दर्शकों को प्रसन्न कर दे – कोई नहीं जानता था। जिसकी भी किस्मत खुलती थी वो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखता था। और जो पीछे छूट जाता था वह तो उन सब को कोसता काटता था जो सफलता के सोपान चढ़ गये थे ओर मुड़कर भी किसी दोस्त को पहचानते तक न थे।

“काल खंड की कहानी क्या है भाई जी?” प्रतीक ने अहम प्रश्न पूछा था।

सभी जमा लोगों के कान खड़े हो गये थे। आम तौर पर कोई भी फिल्म प्रोड्यूसर या डायरेक्टर अपनी कहानी उजागर नहीं करता था। पता चलने पर बाकी लोग उससे पहले फिल्म बना कर बाजार में बेच आते थे।

विक्रांत ने गौर से देखा था प्रतीक को। साधारण जिज्ञासा थी प्रतीक की – वह जानता था।

“कहानी बहुत सीधी है प्रतीक!” विक्रांत विहंस कर बोला था। “एक बार फिर से गुलाम भारत!” विक्रांत ने सभी जमा लोगों को देखा था। “हिन्दुओं के भाग्य विधाता बहुत जल्दी ही उन से उनका देश छीन कर फिर से अपने नाम लिखने वाले हैं।” विक्रांत ने एक इशारा किया था।

“कौन हैं हमारे भाग्य विधाता?” सौमित्र भी अब नींद से जागा था।

“सोचो ..?” विक्रांत ने प्रश्न किया था। “लेट ऑल ऑफ अस थिंक!” विक्रांत ने हंस कर कहा था। “इट्स ए गेम फॉर ऑल ऑफ अस!”

सभी जमा लोगों के दिमाग पर एक सोच तारी हो गया था। काल खंड की कहानी क्या थी – कोई जानता भी तो कैसे? विक्रांत ने तो उन सब को उलझा दिया था और अब हर कोई प्रश्न को समझ कर भी उसका उत्तर देने से कतरा रहा था।

“आप का अर्थ कहीं मुसलमानों से तो नहीं है भाई जी?” उत्तर के बजाए प्रश्न ही लौटा था। “जहां तक मैं समझता हूँ – मुसलमानों के सिवा हिन्दुस्तान का दुश्मन ..”

“गलत बात है, सुधीर जी!” गरज कर बोला था प्रतीक। “वी आर सैक्यूलर!” उसने एक कानूनी पेंच सामने धरा था। “हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई – हम सब मिल कर भाई भाई।” उसने एक प्रचलित नारा हवा में उछाल दिया था।

विक्रांत ने आती प्रतिक्रिया को परखा था। यही तो हत्या की जड़ था। हिन्दुओं को गुमराह करने का यही एक सोचा समझा मूल मंत्र था।

“ये कहानी नहीं चलेगी भाई जी!” सौमित्र ने अपनी राय व्यक्त की थी। “इट्स कम्यूनल!” उसने कहा था। “मैं तो राय नहीं दूंगा भाई जी कि आप ये काल खंड बनाएं और डूब जाएं!”

विक्रांत को बुरा न लगा था। वह हंस पड़ा था। उसकी मुक्त हंसी को सभी ने चौंका दिया था। विक्रांत की आंखों में अलग से एक चमक थी जिसे नेहा ने देख लिया था। जब सारे लोग उठ उठ कर चले गये थे तो नेहा बोली थी।

“याद है बाबू मैंने क्या कहा था?” नेहा स्नेह पूर्वक पूछ रही है। “मुझे तो अचानक ही खुड़ैल और उसकी पूरी फौज एक साथ दिखाई दे गई थी। साहबजादा सलीम, भाई, पोंटू, सुलेमान और ताहिर – सब के सब कसाई थे, मैं तो जानती थी बाबू! अकेले अकेले हम कैसे लोहा लेंगे बाबू, मैंने तुम से पूछ लिया था।”

“आदमी को चलना तो अकेले ही पड़ता है – नेहा – तुमने कहा था। “मैं अपने जीते जी भारत को फिर से गुलाम होते नहीं देख सकता।”

“पर खतरा है बाबू!” मैं तो डर गई थी।

“मौत ही तो आएगी?” तुमने पूछा था। “मौत एक मात्र पड़ाव है नेहा, ये अंतिम मुकाम नहीं है।” तुम हंसे थे। “डरो मत! हम दोनों तो अमर हैं, अमर प्रेमी हैं ओर हम कभी नहीं मरेंगे!” तुमने मुझे आगोश में ले लिया था। “काल खंड बनने के बाद तो हम दोनों ..”

अमर हो जाएंगे .. अमर रहेंगे .. मैंने जैसे नारा दिया था – याद है न बाबू?

लेकिन .. लेकिन खुड़ैल ने अपना गेम खेल दिया!

अपने ही हाथों मारा तुम्हें! सॉरी बाबू – आई एम सॉरी!

रो रही थी नेहा।

मेजर कृपाल वर्मा
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