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सॉरी बाबू भाग चौहत्तर

सॉरी बाबू

“कालखंड खंड खंड हो कर सड़कों पर बिखर जाएगा।” अचानक नेहा ने खुड़ैल की दहलाती आवाजें सुनी थीं। और वैसे ही उसकी आंखों के सामने पुनीत पंडित का चेहरा उजागर हुआ था। “फिर विभक्त होगा भारत!” कहते हुए वह हाथ झाड़ रहे थे।

निपट निराशा की लहरें नेहा के तन मन के आरपार हो गई थीं। एक बे स्वाद था जो उसकी जबान पर भर आया था। आंखें निस्तेज हुई लगी थीं। काल खंड के निर्माण का उत्साह न जाने कहां उड़ गया था। जहां से अफसोस उगा था, वहीं से एक क्रोध भी गड़गड़ाने लगा था। अपनों पर उस दिन नेहा को लानत भेजने का खूब मन हुआ था। हिन्दुओं के डोलते नपुंसक हुजूम उसकी निगाहों के सामने हांफते कांपते खड़े थे। वो लड़ नहीं रहे थे, वो गर्राते-नर्राते नजर नहीं आ रहे थे और गुलाम बने हुए थे। निगाहें नीची कर फिर से गुलामी करते ..

“क्या फायदा?” नेहा ने स्वयं से प्रश्न पूछा था। “क्या फायदा इन लोगों के लिए लड़ने से?” वह टीस आई थी। “अगर फिर से विभाजित हुआ भारत तो हिन्दुओं के लिए बचेगा क्या?” उसे अफसोस था। “और अगर .. माने कि अगर ..”

तरस आ गया था नेहा को विक्रांत पर! उसकी अकेली जान कब तक लड़ेगी – वो सोच ही नहीं पा रही थी। क्रांति तभी तो आएगी जब सब का सहयोग होगा। ए स्टॉर्म इन ए कप ऑफ टी हैज नो मीनिंग!

“इट हैज नो मीनिंग टु मेक कालखंड!” विक्रांत का मन भी खट्टा होने लगा था।

पुनीत पंडित ने जो असलियत सामने रख दी थी और जिसे इतिहास दोहराने जा रहा था उसका तो एक ही अर्थ निकलता था! फिर व्यर्थ में क्यों प्रयास किया जाये? जिसे लोग समझ ही न पाएंगे, और होते अनर्थ के खिलाफ आवाज ही न उठाएंगे – तो? हिन्दू अगर फिर से गुलाम होता है तो हो, उसे कौन रोक सकता है? वह स्वयं उठेगा तभी तो उद्धार हो सकता है, वरना तो ..

अचानक ही विक्रांत के विचार बम्बई की हवा को फिर से नापने तोलने लगे थे। आज बम्बई में जो भी फिल्में बन रही थीं वो एक निहित उद्देश्य और निजी स्वार्थ के तहत ही बन रही थीं। जिन लोगों के हाथों में बागडोर थी वो फिल्मों के जरिये अपने अपने मनसूबों को रंग दे रहे थे। लोग बिना किसी सोच-विमोच के फिल्में देखते थे और उनकी महानता से भ्रमित हुए वो जो भी देखते थे, उसे सच मान लेते थे। जो लोग दो कौड़ी के भी न थे लोग उन्हें न जाने कौन कौन सी संज्ञाएं दे बैठते थे और ..

पैसा कमाना, नाम कमाना और .. और वो सब जिसका नाम लेना भी गुनाह होता है, फिल्मों के माध्यम से खूब पनप रहा था। जहां हमें फिल्मों को समाज कल्याण या देश भक्ति और धार्मिक उत्थान के लिए प्रयोग करना था वहीं इसका उपयोग ..

“तुम्हारे कौन बच्चे भूखे बैठे हैं विक्रांत?” किसी ने कान में कहा था। “मारो झाडू यार!” एक निर्णय उसने सुना था। “कितने ही और काम हैं – कोई भी कर लेना!”

“छोड़ न तू ये फिल्म बनाने का झंझट!” माधवी कांत भी विक्रांत से अनुरोध कर रही थीं। “और भी कितने काम हैं करने के लिए बेटे!” उनका भी सुझाव था। “मैं यहां अकेली पड़ी रहती हूँ! सोच बेटे?” उनका स्वर विनम्र था। “इतिहास की बात सुनकर तो मेरा भी जी खराब हो गया है।” वो बता रही थीं। “इस देश के लोग – हम हिन्दू न जाने कैसे ठंडे पड़ गये हैं!” अन्यमनस्क कहा था उन्होंने। “लड़े थे लोग आजादी के लिए! लेकिन अब तो न जाने क्यों ..”

“क्या यही सही सॉल्यूशन है – मां ..?” विक्रांत गंभीर था।

“फिर एक चना भाड़ भी तो नहीं फोड़ सकता!” माधवी कांत ने हौले से कहा था। “मैं ही अपना अकेला लाल गंवा कर क्यों बैठूं?” उनका प्रश्न था।

विक्रांत चुप हो गया था। मर्माहत हुई मां – माधवी कांत की पीड़ा कोई कम नहीं थी। उन्हें भी अफसोस था कि भारत फिर से बंटेगा और हम हिन्दुओं के नाम गांव भी गायब हो जाएंगे, मुसलमान छा जाएंगे और ..

कैसे धीरज बंधाए मां को – विक्रांत सोच ही न पा रहा था!

“अरे सुनो!” नेहा की आवाज आई थी। “वो .. वो .. राम रतन – वंशी वाला आया है।” उसने विक्रांत को बताया था।

नेहा प्रसन्न थी। विक्रांत ने भी जब राम रतन को देखा था तो उसका मन प्रसन्न हो गया था। राम रतन नए कपड़ों में सजा-वजा खूब मलूक लग रहा था। माधवी कांत ने भी उसे प्रशंसक निगाहों से देखा था।

“मां जी प्रणाम!” राम रतन ने माधवी कांत के चरण स्पर्श किए थे।

और माधवी कांत ने भी उसे सीने से लगा लिया था।

लगा था – कन्हैया अचानक उनके आंगन में आ कूदा था और अब उसने उत्पात मचाना था।

पंडित पुनीत हिन्दू महासभा की होती एक सेमिनार में शामिल होने काशी विश्वविद्यालय गये थे। अभी तक उनके लौटने की कोई सूचना न थी।

“अच्छा है वो सिरफिरा पंडित लौटे ही नहीं!” नेहा ने तनिक प्रसन्न होकर स्वयं से कहा था। “क्या धरा है इतिहास के उन पन्नों में?” नेहा का प्रश्न था। “हमीं क्यों पालें दुनिया जहान के झंझट!” उसने सारी जिंदगी की आय-बलायों को उतार फेंका था। “यही सच है – यही मऊ मोहनपुर हमारा स्वर्ग है।” प्रसन्न हो कर नेहा ने अपने आस पास को गहरे होते सरोकारों के साथ देखा था। “वह खरगोशों के साथ खेल रही थी। भूरे, काले और चितकबरे गोल-मटोल और गुदगुदे ये खरगोश उसके मित्र बन गये थे। गोल गोल आंखों से जब वो नेहा पर स्नेह वर्षा करते तो वो भी धन्य हो जाती थी। घास के तिनके खाते और छोटे छोटे घूंटों में पानी पीते, खेलते कूदते और ऊपर नीचे फुदकते ये खरगोश उसे अपने सारे सुख दुख भुला देते!

“अरी नाश्ता तो कर लेती नेहा!” माधवी कांत की आवाज आती। “ले जाना इन में से दो एक – बम्बई!” माधवी कांत कहतीं। “खूब मन लगाएंगे तेरा!” वह हंस जातीं।

“जा कौन रहा है बम्बई?” नेहा का पलट प्रश्न होता। “न – मां! मैं न जाऊंगी अब बम्बई!” वह साफ कहती और माधवी कांत के गले से लिपट जाती। “अब आप को अकेला छोड़ कर मैं न जाऊंगी!” उसका वायदा होता।

और फिर पूरनमल बगीचे में कुर्सियां लगा देता। बगीचे में नाश्ता खाती नेहा। और जब विक्रांत भी आ कर उसका साथ देता तो सोने में सुहागा हुआ जैसा लगता!

मौली भी उसके साथ ही आ कर बैठता। अनायास ही नेहा का हाथ मौली की गर्दन सहलाने लगता। वह मिलते अनाम सुख का आनंद लेकर कृतार्थ हुई निगाहों से नेहा को निहारता ही रहता!

नेहा की दोस्ती फूलों से भी हो गई थी। गुलाब की क्यारियों की गुड़ाई वह स्वयं करने लगी थी। उसे बागवानी करने में बेहद आनंद आने लगा था। माधवी कांत से पूछ पूछ कर उसने सब कुछ सीखना आरम्भ कर दिया था।

और हां! आनंदातिरेक के पल तो वही होते जब राम रतन वंशी बजाता!

“क्या सुनाओगे आज?” नेहा उसे पूछना न भूलती।

“बिरज का रसिया सुनाएंगे आज!” राम रतन लजाते हुए कहता। “ऊ बिरज की गोपियों के साथ ठिठोली करते कान्हा का किस्सा ही हमें रुचता है – मलकिन!” राम रतन लजाते हुए बताता था। “बचपन में बहुत चंचल थे कान्हा!” वह अपना ज्ञान भी दर्शाता था।

वंशी की तान के साथ साथ ही जब नेहा की निगाह गंगा के विस्तारों की ओर उठ जाती थी तो उसका मन बागी हो जाता था।

नेहा और विक्रांत पैदल घूमने निकलते थे तो जैसे लौटने की राह ही भूल जाते थे। आपस में गपियात गरियाते दोनों निडर और निर्भीक उन अनजाने रास्तों पर निकल जाते जो न उन्हें रोकते और न टोकते! एक विचित्र यात्रा का आरम्भ होता था – जहां सांसारिक झंझट थे ही नहीं। स्वच्छ हवा थी, आनंदित करती रोशनी थी, भूरा भक्क गंगा का बालू था और सुदूर में सजे वो ककड़ी, खरबूज और तरबूजों के खेत उन्हें पुकार पुकार लेते थे।

देर से लौटने पर कोठी के सामने मूढ़ा डाले माधवी कांत उन के इंतजार में बैठी मिलतीं!

“मैंने अब तुम दोनों की शादी रचा देनी है।” वह विहंस कर कहतीं। “यहीं प्रेम से रहो सहो!” उनकी राय होती। “यही तो उम्र है खेलने खाने की!” वो अपने अनुभव बताना न भूलतीं। “बाल बच्चे हो जाएंगे तो मेरी भी जिंदगी संभल जाएगी नेहा!” वो हंस जातीं। “सच नेहा! कितना कितना मन करता है मेरा कि घर में बाल गोपाल आएं तो मैं भी अपना मन मल्हा लूं!”

और फिर जब छत पर चांदनी रात में राम रतन वंशी की तान छेड़ देता तो मोहनपुर स्टेट पर स्वर्ग ही उतर आता।

नेहा अनाम सुखों के सागरों में डुबकी लगा लगा कर सोती, लेकिन विक्रांत विरक्त हो उठता। काल खंड उसे उन सूने सूने पलों में चुपचाप आ कर सताता और पूछता कि क्यों सुध भूल गया था वह अपनी मंजिल की? जिंदगी को अर्थ दिये बिना तो अनर्थ हो जाएगा – काल खंड का भी सुझाव होता।

संघर्ष से तो कभी विक्रांत डरा ही नहीं था। लेकिन डर था तो केवल एक – इतिहास का डर! उसे कहीं कोई प्रेरणा स्रोत न मिला था, जहां से वो सामर्थ्य जुटा लेता! उलटा शर्मसार हुआ था विक्रांत, पुनीत पंडित के उन आख्यानों को सुन कर!

और उसी दिन देर रात गये पंडित पुनीत काशी से लौट आये थे।

मेजर कृपाल वर्मा
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