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सॉरी बाबू भाग छत्तीस

सॉरी बाबू

“कौन सी जन्नत में जा बसे हो कासिम?”

फोन था। सुबह सुबह का पहला फोन था। उसकी नींद उड़ गई थी। मुंह का जायका तक जाता रहा था। चिंता रेखाओं से भरे ललाट को समेटते हुए रमेश दत्त ने अपने आप को संभाला था। साहबज़ादे सलीम की आवाज कड़क थी। जरूर कोई अजूबा घट गया था। रमेश दत्त के लिए सलीम सफलता का पहला नाम था। और अगर ..

“सलाम साहबजादे!” हचमचाए हुए रमेश दत्त ने आदाब पेश किया था।

“नेहा से मिले ..?” साहबजादे सलीम का प्रश्न आया था और अभिवादन नहीं लौटा था।

ये कैसा प्रश्न था। नेहा बम्बई में थी कहॉं? वह तो ..

“म .. मैं .. मैं .. वो ..” रमेश दत्त पूरी तरह घबरा गया था।

“मॉं जी बीमार हैं उनकी!” साहबजादे सलीम कह रहे थे। “और तुम्हें पता तक नहीं?” उनका उलाहना था। “जाहिल हो यार!” उनकी धमकी थी। “बहुत जाहिल हो तुम कासिम!” उन्होंने उसे कोसा था।

फोन कट गया था। रमेश दत्त ने जैसे कैसे अपने हुलिए को संभाला था। अपने नसीब को कई गालियां दे गये थे – दत्त साहब! यों उगते ही दिन बिगड़ेगा – उन्हें उम्मीद कहॉं थी! अब क्या करें ..?

“नेहा के बिना निजात कहॉं है?” उनका मन बोल पड़ा था। “अगर वो यहॉं है .. तो तुम्हें और क्या चाहिए कासिम?” उनका मन कूदने फांदने लगा था। “मॉं बीमार है .. एक माकूल बहाना है .. चलो चलते हैं नेहा के पास! अरे यार! इत्ते दिन हो गये दीदार तक नहीं हुआ उसका? चलो चलें! संभालो अपने आप को और .. और .. हॉं फेंको पत्ते!” हंस पड़ा था रमेश दत्त।

“मॉं जी बीमार हैं – उनकी!” अचानक ही साहबजादे सलीम की आवाज फिर कानों में गूँजी थी। “मर भी गई होगी तो कित्ता अच्छा रहेगा?” रमेश दत्त ने अपने आप से पूछा था। “अरे भाई! जब फल पककर डाली से टूटेगा – तभी तो तुम्हारा होगा!” जोरों से हंसा था रमेश दत्त। “इसे तो मैं ही खाऊंगा। ये तो मेरे नसीब का है। होता कौन है – ये सलीम? जाए जहन्नुम में!” रमेश दत्त ने ताल ठोक कर घोषणा कर दी थी।

अब रमेश दत्त उनके घर – पूर्वी विश्वास, जो बीमार थीं की खैरियत पूछने चल पड़ा था। कत्थई रंग का सफारी पहना था रमेश दत्त ने। नेहा की पसंद का सेंट लगाया था। चेहरे को भी खूब चमका लिया था। जूते शीशे की तरह दमक रहे थे। गोल्डी में बैठा रमेश दत्त किसी भी प्रभावी हस्ती से मेल खा रहा था। उसने रास्ते से फल और फूल खरीदे थे। फिर वो सोचने लगा था कि .. किस तरह से नेहा को ..

स्वागत के लिए समीर ने दरवाजा खोला था!

“बा-बा! दत्त साहब आए हैं!” देखते ही समीर ने हांक लगाई थी। जैसे कोई मन की मुराद मूर्त हो सामने खड़ी हो, समीर को ऐसा लगा था। “आइए .. सर अंदर आइए!” फिर समीर ही उनकी आगवानी में जुट गया था।

मात्र रमेश दत्त की उपस्थिति से उनका घर गुलजार हो उठा था।

“आइए भाई साहब!” बड़ी ही विनम्रता के साथ पूर्वी विश्वास बोली थी।

भौंचक्का हुआ रमेश दत्त स्वस्थ और सानंद पूर्वी विश्वास को देखकर अंधा हा गया था। फिर उसकी निगाहें घर के कोने कोने में झांक आईं थीं। नेहा का तो कोई नामो निशान तक न था। हॉं! मास्टर साहब बड़ी देर के बाद आकर उजागर हुए थे। बड़े ही सौहार्द के साथ दत्त साहब से हाथ मिलाते हुए उन्होंने कहा था – बड़े दिनों मे दर्शन दिए?

“आप जानते तो हैं .. कितना काम रहता है! और फिर ..”

“अहो भाग हमारे!” पूर्वी विश्वास ने फल और फूलों को देखते हुए कहा था। “आप कितना मान करते हैं हम लोगों का ..!” उन्होंने आभार व्यक्त किया था।

“सज-धज कर आएगी!” रमेश दत्त के अधीर होते मन ने उसे दिलासा दिया था। “कित्ते दिन हुए, यार! वो भी तो तड़प गई होगी?” मुसकुराए थे रमेश दत्त।

अब पास आ बैठे समीर को रमेश दत्त ने निगाहें भर भर कर देखा था। समीर भी बहुत प्रभावित था दत्त साहब के व्यक्तित्व और कृतित्व से! उसके लिए तो दत्त साहब जैसे कोई मिला भगवान थे जो वरदान बांटते फिरते थे .. लोगों को निहाल कर देते थे .. उनका भविष्य बना देते थे और ..

“और क्या करते हो, बरखुर्दार?” रमेश दत्त ने यूं ही प्रश्न पूछा था समीर से।

“तीन बार फेल हो चुका है!” उत्तर मास्टर साहब ने दिया था। उनकी आवाज में एक उलाहना था। उन्होंने रमेश दत्त से कोई सहायता पाने हेतु ही अपनी दुखती रग दिखाई थी।

“तो क्या हुआ ..?” रमेश दत्त चहके थे। “मैंने तो कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा!” उन्होंने हवा में हाथ फेंक कर घोषणा जैसी की थी। “मैंने तो कभी अपने बाप तक को नहीं देखा!” वह अपनी सफलता के सागर में बहने लगे थे। “मेरी मॉं ..” वह अचानक रुक गये थे। “मुसलमान थी” कहने से पहले ही उन्हें उनके विवेक ने खबरदार कर दिया था। वह समझ गये थे कि “मुसलमान थी” कहने के बाद से ही पूर्वी विश्वास की पूरी मान्यताएं ही बदल जाएंगी! शायद उसके बाद तो वह लाए फल और फूलों को छूएगी तक नहीं!

“और जब मेरे हिन्दू बाप को पता चला था – उसके मुसलमान होने का तो वह हरामी भी हम दोनों को छोड़कर जाता रहा था!” रमेश दत्त संभाल नहीं पा रहे थे अपने आप को। वह अब अपने से ही बतियाने लगे थे। “न जाने क्यों .. इतना पवित्र मानते हैं ये काफिर अपने आप को ..?” वह अब गालियां बकने लगे थे।

“न जाने क्या करेगा?” पूर्वी विश्वास बोली थीं। “हमारा तो अकेला ही बेटा है। “उनका स्वर कातर था। “भगवान .. न जाने ..” वह बुदबुदाने लगी थीं।

रमेश दत्त की जैसे नींद खुली थी। उसने पास बैठे अबोध समीर को नई निगाहों से देखा था। उसे लगा था – उसका तो अभीष्ट उसके पास आ बैठा था। उसने आकर आज उसे निहाल कर दिया था।

“इसमें चिंता की क्या बात है!” अब रमेश दत्त समझ सोच कर पत्ते खेलने लगा था। “बेशक कल से ही ऑफिस आने लगो!” उसने सुझाव दिया था। “अरे भाई कुछ तो सीखोगे ही!” उनका अनुमान था। “और फिर एक बार काम समझ में आ गया तो .. पौ बारह!” उन्होंने खैरात जैसी लुटा दी थीं।

मास्टर साहब और पूर्वी के चेहरे खिल उठे थे। समीर भी चहका था। हवा भी हिली थी। लेकिन नेहा कहीं नजर न आई थी। अब रमेश दत्त पूछने को ही था कि आखिर नेहा थी कहॉं? लेकिन वह तो पूर्वी की खैरियत पूछने आया था! वह तो नेहा का पता ठिकाना जानता था .. वह तो सर्वज्ञ था – उन सबके लिए!

“ये तो आपका उपकार होगा!” मास्टर साहब विनम्रता पूर्वक बोले थे। “यहॉं भी तो आवारा बना घूमता है!” उन्होंने समीर को तिरस्कृत निगाहों निहारा था।

“मैं तो डायरेक्टर बनूंगा!” समीर उछला था। “आप की तरह ही दत्त साहब .. मैं भी ..” उसकी खुशी के पारावार न थे!

जैसे उन पलों में मास्टर साहब की गरीबी घबरा गई थी .. और अमीरी ने आकर उन सब को एक साथ निहाल कर दिया था!

और रमेश दत्त ने उसी दिन .. उन पलों में ही नेहा की भंवर काट कर निकल गई नाव में छेद कर दिया था! वह बेहद प्रसन्न था। उसने अपने आप को खूब सराहा था। न जाने कैसे वह हर किसी की कमजोर कड़ी को देख परख लेता था ओर फिर तो ..

“हमारे परिवार के पराभव की ये पहली सीढ़ी है, बाबू!” टीस आई थी नेहा। “और इसका निर्माण भी इस खुड़ैल ने ही किया!” उसने स्वीकारा था। “समीर को उसने इतना बिगाड़ा इतना बिगाड़ा कि .. कि” नेहा की आवाज रुलाई में टूटने लगी थी। “डायरेक्टर तो दूर .. समीर तो क्लैप बॉय भी न बन सका!” दर्द भरी आवाज में कहा था नेहा ने। “और आज .. समीर मेरा भाई ..” वह रो पड़ी थी। “तुम अब क्या नहीं जानते बाबू? समीर खुड़ैल के हाथ की कठपुतली है .. समीर ..”

नेहा ने निरभ्र आकाश की ओर ऑंख उठा कर देखा था! वहॉं भी सब सूना सूना था ..

“सॉरी बाबू ..!” उदास निराश नेहा फिर से रोने लगी थी।

क्रमशः

मेजर कृपाल वर्मा

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